Sunday, October 28

"स्वतंत्र लेखन "28 अक्टूबर2018







                                             
ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिना लेखक की अनुमति के कहीं भी प्रकाशन एवं साझा नहीं करें |





साथी !

तुमने कहा था
सुख हो या हो दुख
हम साथ-साथ चलेंगे
कुछ भी कर ले जमाना
हम कभी साथ नहीं छोड़ेगे
तेरी मुस्कान से
मेरा मन सुमन खिलता था
तुझे भी तो 
मुझसे मिल कर ही चैन मिलता था
यह क्या हुआ 
कि तुम मुझे देख 
बगल काट जाते हो
खुशी की जगह
गम बाँट जाते हो
तूफान तो आते ही रहते हैं
बगिया फिर भी खिलती है
मेरी हर भावना
तेरी ही गलियों से निकलती है
अब तो तुम यह बेरुखी छोड़ दो न
सिसकते रिश्ते को खुशियों से जोड़ दो न.
--------------
सुरेश मंडल 
पूर्णिया (बिहार)



प्यार हो जाएगा मुल्क से जिस समय

सारी खुशियाँ जमाने की मिल जाएंगी

पत्थरों में खिलेंगे सुवाशित सुमन
मन के मधुवन की कलियां भी मुस्काएँगी

हर कदम बढ़ चलेंगे प्रगति की तरफ
झोपड़ी भी महल में बदल जाएंगी

हौसले होंगे फिर पर्वतों की तरह
आँधियाँ घर में दीपक जला जाएँगी

______________________________

अरुण नामदेव
नागौद



कविता लिखूंगा मैं

जन की
गगन की
महकते उपवन की,

बचपन की
जवानी की
गश खाते बुढापे की,

मजदूर की
मेहनत कश की
दम भरते किसान की,

देश की
इन्सान की
हुंकार देते जवान की,

न जाति की
न मजहब की,
न मंदिर की
न मस्जिद की,

एक आशा लिखूंगा मैं
अभिलाषा लिखूंगा मैं,
जीवन की, प्रेम की
मिलन की, अपनें-पन की l

हां एक
कविता लिखूंगा मैं ,
कविता लिखूंगा मैं l

श्री लाल जोशी "श्री"


अपने अनुभवों से ,ये खूब समृध्द हैं, 
उम्र के इस दौर में,कहलाते लेकिन वृध्द हैं,
इनकी आँख में,समय की गहराई है,
इनके माध्यम से इन्होंने,अपनी करूणा बहाई है।

इनके होठ यौवन की ,उड़ान बतायेंगे,
कैसे छूते हैं आसमान, तरीके बतायेंगे,
इनकी बाहों में ,प्रेम के आलिंगन हैं,
इनके हाथों में,आशीषों के कंगन हैं।

लोरियों की सरिता,ये ही तो बहाते हैं,
सपनों की सुनहरी,गोद में सुलाते हैं,
रिश्तों से लबालब, गंगा में नहलाते हैं,
गरिमाओं से परिचय,ये ही तो कराते हैं।

मई हो या फिर, जून का माह,
देते हैं अपनी,शीतल छाँह,
समस्या भाँपती,इनकी निगाह,
सुझा देती,सुलभ सी राह।

ये वृध्द जन नहीं, प्रियजन हैं,
अपने अपने समय की,गर्जन हैं,
इनकी सेवा,पुर्ण्यों का अर्जन है,
एक सीमा तक,पापों का विसर्जन है।

उम्र का यह पड़ाव,माँगता है केवल जुड़ाव,
पीड़ामय होता बहुत,अवसान का यह पड़ाव,
थोड़े से कठोर शब्द,बना देते ऐसे घाव,
धीरे धीरे होता रहता,अन्त तक उनमें रिसाव।

अंग करने लगते हैं,रोज़ रोज़ विद्रोह,
सह नहीं सकते ये,कोई भी विछोह,
इनके प्रति रखते हैं,जो भी कोई मोह,
तो ईश्वर भी रखता है,उनकी सदा टोह।

अतः वृध्दों के साथ बितायें,थोड़ी सी अपनी शाम,
आत्मा को मिलेगा,एक बहुत सुखद विश्राम,
ताकि जब ये जा रहे हों ,बैकुण्ठ धाम,
तो श्रध्दा से कह सकें,अपनी अन्तिम राम राम।

कृष्णम् शरणम् गच्छामि





जिन्दगी तोहफा समझ, जिसने जिया है ।

ख्वाब जीवन के सफल, उसने किया है ।।
-1-
जिन्दगी अनमोल हर एक पल बडा है कीमती ,
जिसने समझा सोम रस , उसने पिया है ।
-2-
जो बिखरने के ही पहले गर सभल जायें ,
आत्म मंथन कर कदम , मन से लिया है ।
-3-
खुद को यदि रंगीन दुनिया से बचा पाये ,
परमानंद अनुभूति सुख, दिल ने किया है ।
-4-
ये मनुज तन भी सुयश है कई जन्मो का ,
व्यर्थ जीवन जो गया तो क्या, तूने जिया है ।
-5-
मुक्ति का माध्यम इसी तोहफे मे दिखता ,
कर्म कर जीवन सफल, सबने किया है ।

राकेश तिवारी " राही "




हिन्द-देश के वासी हैं हम,हिन्दी अपनी शान।

हिन्दी से ही मान हमारा, हिन्दी ही पहचान।

निज भाषा का करो सदा सब,
नित आदर सत्कार।
रहो सभी से मिलजुल करके,
छोड़ो सब तकरार।

गर्व हमें हिन्दी भाषा पर,हिन्दी अपनी जान।
हिन्दी से ही मान हमारा,हिन्दी ही पहचान।

भटक गए हैं कुछ साथी तो,
उन्हें दिखाओं राह।
ठेस न पहुँचे कभी किसी को,
रखिए ऐसी चाह।

हिन्दी भाषा का सब मिलकर,करिए नित सम्मान।
हिन्दी से ही मान हमारा, हिन्दी ही पहचान।

बातचीत करिए हिन्दी में,
खास रहें या आम।
हिन्दी भाषा में ही हो अब,
सब सरकारी काम।

दर्ज राष्ट्रभाषा के पद पर,करिए सब अभिमान।
हिन्दी से ही मान हमारा, हिन्दी ही पहचान।

हिन्दी है बिन्दी के जैसे,
सदा बढ़ाती साज।
मधुर-मधुर हैं शब्दावलियाँ,
सब भाषा सरताज।

लेन-देन हो सब हिन्दी में,रखिए इसका ध्यान।
हिन्दी से ही मान हमारा, हिन्दी ही पहचान।

स्वरचित
रामप्रसाद मीना 'लिल्हारे'




*बना इक आईना ऐसा* 


हे कारीगर, बना इक आईना ऐसा 
जो दिखलाए असलियत बेईमानों की, 
राक्षसप्रवर्ति के इंसानों की।।

हे कारीगर, बना एक आईना ऐसा 
जो जमीर जगादे रिश्वतखोरों का,
भ्रस्टाचारियों का, चोरों का।।

हे कारीगर, बना इक आईना ऐसा
जो चरित्र दिखलाए लोगों का,
कुछ पाखडींयो का, दारोगों का।।

हे कारीगर, बना एक आईना ऐसा 
जो राह दिखलाए यवनों को,
कुछ भटकों को, *रमनों को।।

सुखचैन मेहरा




मधुवन -मधुवन भटक रहा मन, भौरा बन ललचाए।

मधुरस का प्यासा हिय मेरा, प्रणय मिलन को चाहे ॥
🍁
कामदेव सम रूप धरा तब बोली प्रिय से प्रियतमा ।
क्यो अधराये साजना माटी का यह देह मेरा॥
🍁
जितना तुमको प्रीत है मेरी मोहिनी रूप से।
जीवन सफल होगा तेरा उतनी प्रीत जो राम से॥
🍁
बात हृदय को वेध कर जो निकली उस पार।
तुलसी बन लिख दी कथा राम चरित संसार॥
🍁
प्रणय तो भ्रम संसार का कामी को दिखता काम।
प्रणय साधना राम का शेर हृदय मे भगवान ॥
🍁






हूँ बुलबुला पानी का लेकिन,
पानी नही हूँ मैं---
मैं स्वप्न हूँ ह्रदय का अपने,
दृग का नही हूँ मैं---
क्या आग को भी,
नही जानता है तू,
है शक्ति क्या उसकी,
नही पहचानता है तू---
लौह को कितने गला कर,
ये तरल कर दे,
आग ही जीवन में,
जीने को शरल कर दे,
समझो नही की मैं,
सपनों में जिया करता,
है स्वप्न जो मेरे मैं,
उनको ही जिया करता---
मैं ही कभी बिन वस्त्र,
घूमा कंदराओं में,
भूख से व्याकुल दोपहरी,
रात छावं में---
था कठिन जीवन,
मगर चलता रहा हूँ मैं,
हर स्वप्न को सत्य से,
गढ़ता रहा हूँ मैं---

सच है की आदमी,
कुछ विचित्र होता है,
उलझने खुद ही बनाता,
खुद ही रोता है,
चाहता जिसको,
बुरा उसको ही कहता है,
जग में रहकर ही जगत का,
ताप सहता है,
पर अकारण कुछ नही,
समझो अगर समझो,
प्रेम का अतिरेक है,
प्रेम ही समझो---

अब तलक ठहरे नही,
आगे न ठहरेंगे,
अब तलक बढ़ते रहे हैं,
बढ़ते ही जाएंगे-
स्वर्ग के राजा भी,
विस्मित हुये से है,
देव भी क्या इनको,
अब रोक पाएंगे,
स्वप्न आंखों में लिये,
बढ़ते आ रहे हैं जो---
बढ़ते आ रहे हैं जो---

......स्वरचित....राकेश पाण्डेय,







अदभुत शिल्पकला ईश्वर की,
विस्मयकारी,अप्रतिम,अलौकिक,
प्राकृतिक सौन्दर्य अनूठा,
बसुधा गरिमा चारु सुलौकिक।

नीलगगन पर शुचि रजनी मे,
घटता बढ़ता धवल चंद्र शुचि,
बाल अरुण प्राची दिशि में नित,
स्वर्णिम विहान का शुभ संदेश।

हरित चारु मखमल सी हरीतिमा,
मकरंद गंध सुमनों में विहँसित,
कलिकाओं की मुस्कान मधुरतम,
भँवरों के गुँजन कर्ण-मधुर।

मोहक रंग विविध तितली तन,
आकर्षक अतिशय मनभावन,
वन्य जीव अठखेलि निरख शुचि,
मन मयूर हर्षित अतिशय।

नदियों के सुमधुर कलकल स्वर,
सागर की लयमय मोहक सरगम,
मनभावन सरस गीत मे संलिप्त,
निर्झर की सुरमय सी झर -झर।

जलवृष्टि उपारान्त व्योम पर,
इन्द्रधनुष मनमोहक से रंग चारु,
प्रीति अनूठी शलभ ज्योति की,
प्रेम पगे अदभुत अतुल्य रंग।
--स्वरचित--
(अरुण)



मेरे आंगन में फुदकती गोरैया, 
बडे़ जतन से, 
अपना नीड बनाती, 
तिनका - तिनका चुन कर लाती, 
बडे़ जतन से उसे सजाती। 
नवजीवन के सृजन में तत्पर, 
दृढसंकल्पित, 
नन्हे-नन्हे पंखों से, 
आसमां की ऊंचाई छूने को तत्पर, 
उत्साहित आनंदित जोडा, 
भावों का संसार सजाता, 
अजनबी पंछी के आने पर, 
विकलता का भाव गहराता, 
ममता का अतुल्य प्रदर्शन, 
नवजीवन का ऐसा संरक्षण, भावविह्वल मन होता जाता। 
चुन-चुनकर दाना लाते, 
बारी-बारी सप्रेम खिलाते, 
पंख हुए जब नए जीव के, 
खुला आसमां उसको दिखाते, 
सारे बंधन तोड़ उसे, 
जीवन स्वयं से जीना सिखाते, 
नहीं है कोई माया मोह का बंधन
बस है तो प्रेम समर्पण
उड जाता नवजीव आसमां में, 
बैठे-बैठे दोनों मुस्काते, 
अपने हिस्से का दाय निभा के, 
उसका दाय उसे समझा के, 
नयी राह फिर अपनाते। 
कितना जीवन में विस्तार वहां है, 
बंधन का कोई नाम कहां है, 
ऐसा मोहमुक्त हो मानव जीवन, 
पल में मिट जाए सब संपीडन।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित



सपनों में रोटी ढूंढ़ती आँखें 

भूख से व्याकुल आँखें सपनों
में भी रोटी ही ढूंढ़ती हैं

मिल जाये यदि सपनों में रोटी
तो भी ख़ुश हो लेती हैं

सपनों में ही सही पेट भरने का
एहसास दिला देती हैं आँखें

भूखे को निन्द्रावस्था में सुख का
आभास करा देती हैं आँखें

-रत्ना पांडे
स्वरचित






प्रकृति के रूपरंग देखे हैं,
नवग्रह नव निर्माण करें।
नहीं पर्यावरण प्रदूषितकर,
महापुरुष युग निर्माण करें।

हमसब ग्रहों के संरक्षण में,
डालें कुदृष्टि से कष्ट होते हैं।
शनि राहु रवि बुध मंगल ग्रह,
क्यों कभी बहुत रूष्ट होते हैं।

कार्य सभी का बंटा हुआ है,
ये सब हैं जो नक्षत्र सितारे।
ग्रहणग्रसित ग्रह होते कभी तो,
सभी बिलक्षण ग्रह सितारे।

इन नक्षत्रों की की बात निराली।
नहीं जाऐ कोई वार से खाली।
सौर जगत का प्रभुत्व यहां पर ,
ये तारामंडल है बडा बलशाली।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय






 हाइकु ग़ज़ल,
सत्ता के मद/देश को चारे बना/चले न कोई,
होनी तो होनी/होकर ही रहेगी/मरे न कोई।।१।।

मौत आयेगी/रुप ढल जायेगा,
समय पर,
मां बहिन की/अस्मत का सौदा तो/करें न कोई।।२।।
नोच रहे हैं/मासूम परिंदों को/हवस भूखे/
जग में ऐसा/कलियों पे सितम/कोई न करें।।३।।
किसी भूखे को/अपाहिज को न दें/खाने को कुछ,
जले अंगार,/उसके हाथ पर,/धरे न कोई।।४।।
स्वरचि त देवेन्द्र नारायण दास।।







सावन के आने से पहले,
नभ
 में घन छाने से पहले।
केशों में सुंदर घटा लिए,
उर में तुम हो बस गई प्रिये।।

हिरणी जैसी चंचल चितवन,
है मोहकता जैसे मधुवन,
नयनों में सागर बन्द किए,
उर में तुम हो बस गई प्रिये।।

यह मन्द मधुर मुस्कान सरस,
यह मौन शांत मधुगान सरस।
अधरों में किसलय राग लिए,
उर में तुम हो बस गई प्रिये।।

वासंती संध्या फाग सदृश,
है शब्द-शब्द अनुराग भरा।
बातों में मलयज गंध लिए,
उर में तुम हो बस गई प्रिये।।

दुग्धधवल,किञ्चित् अरुणिम,
मादक, मोहक उल्लास भरे।
शोभित सुंदर ये कपोल लिए,
उर में तुम हो बस गई प्रिये।।

सिंहो को लज्जित करती,
तुम्हें और सज्जित करती।
ये पतली-पतली कमर लिए,
उर में तुम हो बस गई प्रिये।।

पक्षी जैसे कलरव करते,
मेरे मन में अनुगूंज रही।
राहत का सुर,संगीत लिए,
उर में तुम हो बस गई प्रिये।।

तेरे सुख में सुख मिलता है,
दुख में तेरे हैं अश्रु बहें।
सुख-दुख का ये संसार लिए,
उर में तुम हो बस गई प्रिये।।

यह उर काशी के घाट सदृश,
अविरल गङ्गा बन बहो प्रिये।
यह जगत भले त्यागे मुझको,
तुम बसी रहो उर में ही प्रिये।।
स्वरचित-महेश भट्ट 'पथिक'







लघुकथा"विडंबना"
"लीजिए दीदी मेरी बिदिंया की डिबिया"।जूही ने अपनी नन्द शोभा को अपनी बिदिंया की डिब्बी आगे बढा़ते हुए बोली।
उसके श्वसुर के गमी पर आये, सभी रिश्तेदारो से घर अटा पड़ा था, तील रखने की भी जगह नही थी।नन्द को भीड़ से अपनी भारी सुटकेश निकालने में परेशानी न हो:यही सोचकर उसने अपनी बिदिंया की डिब्बी आगे की थी।
परन्तु उसकी नन्द यह कर डिब्बी लौटा दी कि वह उसका बिंदी इस्तेमाल नही कर सकती; क्योंकि उसके घर में अभी "छूतका" है।
और जूही यह सोचती रही कि यह कैसी विडंबना है कि जो पिता अपनी बेटी से समुँद्र से भी अधिक गहराई से प्यार करे,वही बेटी अपने पिता की मृत्यु के बाद उसका छूतका मनाये।बाप बेटी के असीम प्यार में यह'छूतका"शब्द कहाँ से आया?
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।







 हवाओं 
तुम चलना 
बेफिक्र होकर 

बिंदास होकर 
चाहे जिधर मुडना
चाहे जैसे तुम उडना 
रोकने को कौन तुम्हें अब 
छलनी हुए वो पहाड 
जो रोकते थे तुमको 
तोड दिए गए,काट दिए गए 
पुरानी परंपराओ की तरह 
परंपराओ के मिटने से 
पीढियां भटक ही तो जाती है 
तुमने विकास के नाम से तोडा 
किसी ने और किसी बहाने से तोडा
सबका अपना मतलब था इसमे 
जानते थे हश्र क्या होगा इसका 
पर परिणाम पर नीयत थी भारी 
पहाडों के टूट बिखरने का फल 
आने वाली पीढियां भोगेगी 
केवल किताबों की बाते रह जाएगी 
परंपराएं और ये उंचे पहाड

कमलेश जोशी 





(1)वात्सल्य भरा
सागर से गहरा 
माँ का ह्रदय 

(2)कदम तेरे
पड़े जिस घर में 
स्वर्ग हो जाए 

(3)उम्र की बर्फ 
पिघले हर वर्ष 
कर ले खर्च 

(4) छू ले जिसको
वह हो जाता सोना
ज्ञान पारस 

(5)विश्वास जहाँ 
मिठास भरे रिश्ते 
पनपे वहाँ 

(6)धन संचय 
जीवन में जरूरी 
व्यवहार का
================ 
मुकेश भद्रावले 



विषय ,समय का प्रभाव
हमने भी जीवन के लम्हे
बनते और बिगड़ते देखे
जीवन के खेल निराले देखे
जीवन के रंग निराले देखे
और ना जाने क्या क्या देखे
उजड़े उपवन खिलते देखे 
वहाँ भौरे गुगुन गाते देखे
अनहत नाद सुनाते देखे
चिडिया चह्र चह करती देखो 
अलबेले गीत सुनाती देखो
कोयल को कु कु करते देखा 
मीठे गीत सुनाते देखा 
तितली को इठलाते देखा 
मधुर मुस्कान फैलाते देरवा 
पनघट पर पनहारी को देखा 
गगरी को छलकाते देखा 
और ना जाने क्या क्या देखा 
स्वरचित जे.पी.चौहान मस्त



1.गयंद दोहा (22लघु,13 गुरु) 

साहिर, सौदागर सजन, माहिर लगे सलील। 
स्नेह-सहर से मत सता, मेरी मान अपील।। 

2.करभ दोहा(16लघ, 16गुरु) 

तेरी पाती में प्रिये, केवल पावन प्रीत। 
जाकर टांगा इसलिए, उसको दिल के भीत।।

3.मर्कट दोहा(14लघु,17गुरु) 

बाँटा मैंने प्रेम को, अरु पाया अपनत्व। 
धीरे-धीरे बढ़ गया, दिल में प्रेम-घनत्व।। 

4.मर्कट दोहा(14लघु,17गुरु)

ज्यों सूरज की रश्मियाँ, बने सानु-सिरमौर। 
लगते तेरे केश त्यों, स्नेह बढ़ाए और।। 

5.गयंद दोहा(22लघु,13गुरु)

स्नेह-सरुज मैं हूँ सखी, औषधि केवल प्यार। 
आयी बनकर वैद्य तुम, करने को उपचार।। 
__________________________
✍️ मिथिलेश क़ायनात



रजनी की काली स्याह चादर
तुम मेरी उदासियों को ढांप लो
मेरी ये दिल पर छायी परेशानियां
तेरी उदास मुस्कुराहटें ओढ़ लें ।

मैंने सुनी है तुम्हारी कहानी
हर दुख सुना है तेरी जुबानी
क्यों न हम दोनों जान लें
जिन्दगी गमों की नदी है
मिलकर इसे हम पाट लें।

तुम्हे गमगीन उदास देखकर
ये घमंडी चांद मुस्करा रहा है।
तुम्हारे स्याह बदन को देखकर,
तारे भी तो ताने मारते हैं।

कुछ यही हाल मेरा भी है
तुम्हारी तरह जीवन कठिन मेरा भी है।
तुम जो खामोश जिन्दगी बिताती हो
कुछ यही दशा मेरी भी है।

मगर तुम आसानी से सब सहती हो
क्या मुझे भी तुम ये सीखा दोगी।
अब बस यही चाह है मेरी
मैं भी सब सह सकूं तुम्हारी तरह।

स्वरचित

सुषमा गुप्ता



तेरा अंदाज़ कातिलाना है....
लूट कर चैन मुस्कुराना है...

धूप खिलना बहुत ज़रूरी है...
रिसते घर को अगर बचाना है....

मौत आई न ही खबर उसकी...
हर तगाफुल मुझे सताना है...

शाख से फूल तोडना, अपनी...
नीच फितरत को ही दिखाना है...

आँख से आँख लड़ गयी तो फिर....
जून का माह भी सुहाना है.....

है जुनूँ इश्क़ सर पे चढ़ता जब...
फिर ज़माना खुदा बेगाना है...

है नज़ाकत से हुस्न फूल खिले....
खूं जिगर से महक जगाना है.....

बात 'चन्दर' वफ़ा नहीं अब तो...
इश्क़ पीना ज़ह्र पिलाना है...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 






















































No comments:

Post a Comment

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...