Friday, October 5

"सफ़र"05अक्टूबर 2018


🌹🍁🌹🍁🌹
जिंदगी के सफर में
न हो सच्चा हमसफर
बहुत मुश्किल होता है
जीवन का यह सफर
मिलते हैं सफर में फूल
तो मिलते हैं कांटे भी
मीत मिले मन का
तो सुख-दुख आपस में बांटे भी
खड़ी हो जाती है जिंदगी
सफर में दोराहे पर 
कहां से शुरू हो फिर
जो पंहूचा दे मंजिल पर
हर डगर आसान मिले
यह तो जरूरी नहीं
टूट कर संभल जाना
जीवन की रीत यही
धूप छांव जीवन के
हर डगर पर मिलती है
जब तक जिंदगी जाकर 
मौत से नहीं मिलती है
होता है सफर पूरा 
छूट जाते है रिश्ते
सिर्फ कर्म ही इंसान के साथ है जाते
तय करो प्यार से सफर 
जब तक है जिंदगी
बाद में तो सिर्फ इंसान के नाम ही रह जाते
***अनुराधा चौहान***स्वरचित रचना
दिनांक - 05 - 10 - 18 शुक्रवार 
विधा - गजल
बह्ह - 212. 212 212. 212

हो सुकूं से भरा ज़िन्दगी का सफर |
राह एेसी चलो हो खुशी का सफर ||

गर अँधेरे मिले ..दूर मंजिल लगे ,
कब पता चल सके रौशनी का सफर |

चाहते हैं सभी. . . . . रोज करते रहे ,
खूब अच्छा लगे . .चाँदनी का सफर |

हड़बड़ी से नहीं . .कुछ मिलेगा हमें ,
दे बहुत ही सुकूं . सादगी का सफर |

चाहते हो दिलों . . .में जगह कोष्टी ,
कर सको तो करो बंदगी का सफर |

एल एन कोष्टी 
गुना म प्र 
स्वरचित एवं मौलिक

मुसाफिर बढ़ चलो दुनिया सफर है।
कदम दर कदम चलो दुनिया सफर है। 


अरे हैरां हूँ जिन्दगी कितनी मुख्तसर है। 
तुम चलो फिर भी कि दुनिया सफर है। 

हजारों मुश्किलें होंगी ठोकर लगेगी। 
मिलेगी मंजिलें चलो दुनिया सफर है। 

मौसम कभी रस्ते रोकर कभी हंस के। 
कट जायेंगे दिन चलो दुनिया सफर है। 

दुखेगा दिल कभी पांव थकने लगेंगे। 
बना के होैसला चलो दुनिया सफर है। 

वक्त सब का मुकर्रर है इस जमाने में। 
हैं जो बची सांसे चलो दुनिया सफर है। 

स्वरचित विपिन सोहल



दूर रहकर भी रौनक बनी रहतीं हैं

यादें वो मनमोहक बनी रहतीं हैं ।।
कितनी सुहानी थी वो घड़ी सफर की
लेखन की प्रायोजक बनी रहतीं हैं ।।

भले पल दो पल का था वो सफर 
कुछ पल ही रहे वो बनकर रहगुजर ।।
मगर जादू चला जो दिल पर ''शिवम"
मुश्किल है बताना उसका असर ।।

कलम को मानो मिली स्याही
गमों को मानो मिली दवाई ।।
वीरां से इस चमन में मानो 
एक कली हरदम मुस्काई ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 05/10/2018


जिंदगी के सफर में
लोग मिलते हैं
मिलकर बिछड़ जाते हैं
कोई दिल में बस जाता है
कोई याद बन जाता है
कोई साथ निभाता है
कोई अपनी छाप छोड जाता है
कोई सच्चा दोस्त बन जाता है
कोई दोस्त बन दगा कर जाता है
कोई दूर होकर भी बहुत पास होता है
कोई पास होकर भी बडा दूर होता है
परिचय से परिचित होने की शुरुआत होती है
जब दो अजनबियों की मुलाकात होती है
परिचित होने पर आदमी की पहचान होती है
बातचीत इसका मुकाम होती है
ये सफर अनवरत चलता रहता है
रिश्ता बनता या बिगडता रहता है
मिलना बिछडना चलता रहता है
क्योंकि आदमी अकेला नहीं रहता है
ये मिलना बिछडना है खेल जिंदगी का
यह खेल ही है दस्तूर जिंदगी का ।। 

अभिलाषा चौहान
स्वरचित


*****
आदि बिन्दु से गन्तव्य बिन्दु तक,
दूरी गमनीय "सफ़र" अभिव्यक्ति,
जीवन का हर क्षेत्र सुनिश्चित,
सफर गमन से अभिप्रेरित।

प्रत्येक सफ़र का पूर्व-नियोजित,
लक्ष्य सदा विधिवत निर्धारित,
दृढ़ता, निष्ठा, और परिश्रम, 
लक्ष्य प्राप्ति के संसाधन। 

उन्नति पथ पर सफ़र कर रहे,
पथिकों का पाथेय शिखर,
धन अर्जन पथ के पथिकों का,
पाथेय अन्ततः भौतिक सुख।

स्वयं धरा एक भ्रमण-स्थली 
जहाँ भ्रमण पर आते जीव
इस सफ़र अवधि में कर्मों द्वारा,
भावी गति स्वयं कराते निश्चित।
--स्वरचित--
(अरुण)

तुमबिन यह संसारसुनहला।
कितना सूना लगता है।

अभाव घाव कितना रिश्ता है।
भीगा चूना लगता है।
तुम आई भर गईरिक्तता।
अभिषिक्तहुए सब सपने।
एकाकीपन तप्त तवे पर।
जैसे भूना लगता है।
तुम आई आधार मिलाहै।
निराधार जग लगता था।
दूर दूर केलगतेथे।
अपने फन लिये हुए ऐसे।
सिमट गया संसार तुम्ही मे।
ऐसा मुझको लगताहै।
या उतनासंसार बना है।
जितना तुममें लगताहै
पथ पर चुभते शूल हमें
फूलों का अनुभव दैतेहै।
हाथों की मजबूत पकड़ में
और जकड़ भर लेते
साथ साथ चलने के सुख मै
स्वर्ग नजर आताथा
हर खोने के पलपल में हम
कुछ पाना भर देते थे।
चिर आपसमें हाथ मिलाकर
संयुक्ती दौड लगाते
गीत सफर नामे के गाते।
जीवन पथ पर चलते।
स्वरचित देवेन्द्र नारायण दास बसना। ।

चलते चलते कितने थको।
नही रुके अब कोई कदम।।
कित
ना दुरारोह पथ होवे।
कितनी मुस्किल हो सफर।।
बढते रहे चलते रहे हरक्षण।
यही समय की मांग हैं।
चलने बाले ही यात्रा पथ पर।
विजय विजयी होते आऐ।
नही डरो और खुब भटको।
उद्देश्य ध्येय सुधारात्मक हो।
वह सफर वह सफर क्या।
जिसमें साथी दो चार हो।
अकेले हो तब दुर्गम पथ।
अभेद्य सफर पार जाओगे।
दो चार मे भटकोगे और।
हमेशा हताश रह जाओगे।
साथी हमेशा एकभाव नही।
तुम्हें जाना वहां उन्हे नही।
मन डर रहेगाऔर क्षोभ।
स्वयं भूखे रहो और थके।
आपकी क्षुधा उदरीय नही।
आपको तो तय करना सफर।

स्वरचित ः-
राजेन्द्र कुमार #अमरा#


कुदरत के बनाएं
इस सफर पर निकल पड़ी हूँ,
तम में अभी जी रही
गर्भ में पल रही हूँ ।
एक प्यार भरा स्पर्श
महशूस कर रही हूँ,
बहुत सुखद है ये
सफर का शुरुआत
जहाँ मैं, सींची जा रही हूँ।
धीरे-धीरे पोषित होकर 
मैं बड़ी हो रही हूँ,
खत्म हुआ तम का सफर
अब मैं प्रकाशमय धरा को 
छुने जा रही हूँ ।
आह! पर ये क्या?
मैं फिर अंधेरे में खो रही हूँ,
जहाँ से की थी शुरुआत
फिर वहीं विलीन हो रही हूँ..........॥

स्वरचित:- मुन्नी कामत ।


ये जिन्दगी एक सफर है, 
सभी इंसान मुसाफिर है, 
मंजिल की हर एक को चाह होगी, 
कभी कठिन,कभी आसान राह होगी |

सबकी अपनी-अपनी रफ्तार होगी,
कोई तेज चलेगा, कोई धीरे चलेगा,
कहीं काँटों भरी राह होगी, तो कहीं
फूलों की बरसात भी होगी |

कभी परेशानियों की बात, तो कभी 
गमों की काली रात भी होगी, 
हौंसला कायम रखना, इस सफर में 
अच्छे और बुरे की पहचान भी होगी |

जब तक सांसे हैं सफर चलता रहेगा, 
वक्त के साथ ये कारवाँ बनता रहेगा,
रास्ता सही चुनना तु ऐ मुसाफ़िर !
मंजिल का पता तुझे मिलता रहेगा |

स्वरचित *संगीता कुकरेती*

बिषय:-" सफर "
विधा ;- कविता

जिंदगी का सफर-
एक ऐसा सफर है
कभी खत्म नहीं होता
जिंदगी वो रास्ता है
जिसका,कहीं अंत नहीं होता ।
सफर-
मुड़ जाता है चौराहों की तरफ
अंतहीन दिशाओं में
तय करता है मंजिलें
मुकाम पे पहुंचकर
नये ठौर
फिर दिखने लगते हैं
अगले सफर के लिये ।
( स्वरचित: मेरे कविता संग्रह से)
डॉ. स्वर्ण सिंह रघुवंशी,
गुना (म.प्र.)



राम जाने कब तक ये सफर चला पाऐं।
कबतलक जिंदगी तय सफर चला पाऐं।
यह सब उसी के ऊपर निर्भर है निश्चित,
क्या पता कब हमें मुक्तसफर चला पाऐ।

आया हूँ अकेला साथ हमसफर कोई नहीं।
हों भले भगवान मेरे साथ सफर कोई नहीं।
कौन मिलता अंतिम समय तक चलने यहां,
 एकाकी चलना मुझे साथ सफर कोई नहीं।

जिंदगी बुलबुला पानी का कब फूट जाऐगा।
अगर साथ चला कोई पता कब रूठ जाऐगा।
जो सफर शुरू किया साथ कहाँ तक चलेगा,
ना मालूमसिलसिला कब कहाँ छूट जाऐगा।

उनकी याद में यूं कब तक आंसू बहाऊंगा।
अपनी नैया नारायण के सहारे चलाऊंगा।
एक वही रहे साथ सदा हमसफर बनकर
अंत में सिर्फ कंधों पर ही बोझा ढुलाऊंगा।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.



शीर्षक:-सफर
विधा:- लघु कविता

सफर जिंदगी का 
जब साथ हमसफर हो
हर गम भूला दे
ऐसा हमसफर हो

ऐसा हमसफर है पाया
कोरा कागज सा जीवन
रंगीन फूलों से सजाया 
साथ हरदम हरकदम
बना अंधेरों में भी जो साया

जीवन के हर पढ़ाव पर
संघर्ष के हर चढ़ाव पर
देकर साथ मेरा 
जीवन है महकाया
ऐसा हमसफर है पाया

थोड़ी तकरार से
थोड़े प्यार से
हरपल को सजाया
हर एक गम भूलाया
ऐसा हमसफर है पाया

कभी धूप कभी छाया
अनमोल है प्रीत की माया
मेरी हर सांस में
नाम तेरा ही आया
ऐसा हमसफर है पाया

स्वरचित :- मुकेश राठौ


यूँ ही आसान नहीं 
होता जिंदगी का सफर 
देखो तो है कहर ही कहर 
कभी महंगाई , कभी आरक्षण 
कभी बलात्कार , तो कभी चोरी 
कभी बेरोजगारी तो कभी महामारी 
हर जगह कहर है जारी 
किन्तु जिसने सीख ली 
करना थोड़े मे गुजर
आसान हो जाता
उसका सफर
और मिल जाये 
कोई रहगुजर
तो सुहावना लगता सफर 
स्वरचित 
शिल्पी पचौरी


निकल पड़े हम जीवन के सफर में
मुड़ कर न पीछे देखना हैं
चाहे जितनी भी दुष्कर हो राहे
हँस कर चलते रहना है

कितने अपने मिल जाते सफर मे
कितने अपने छूट जाते है
चलता रहता यह सफर जीवन का
यही हमें सीख दे जाते हैं

अनभिज्ञ रहते हैं हम आने वाले पल से
बस ईश पर भरोसा रहता है
धर्य न छूटे कभी ,हिम्मत न हारे कभी
अधिर न एक पल होना है
सफर तो पूरा करना है

धन,संपदा का मोह नही
बस हो अपना सच्चा, सरल ब्यवहार
तो सफर आसान हो जाता है
जिदंगी का सफर तय करने के बाद

मंजिल सबका एक है
राहे हो भले अलग अलग
पर सबका मालिक एक है
सबका मालिक एक है।
स्वरचित-आरती -श्रीवास्तव।


" सफर "

जिन्दगी के सफर में चलता चल 
किसी का ना इंतज़ार कर
मंज़िल की ओर बढ़ता चल 

जिन्दगी के ......................
पथ में बनें कुछ अपने कुछ बेगाने 
अपनों को संग लेकर बढ़ता चल 

जिन्दगी के.........................
ठोकर की तू ना परवा कर 
जख्मों को ले बढ़ता चल 

जिन्दगी के ......................
कर्मों से है पहचान अपनी 
छोड़ कदमों के निशां बढ़ता चल 

जिन्दगी के ..........................
खुशियों को जीते गमों को पीते 
धुन में अपनी बढ़ता चल 

जिन्दगी के सफर में चलता चल 

स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
 ना मंजिल मिलती हैं 
ना कारवां मिलता हैं 
ना खुशियाँ मिलती हैं 

जिंदगी की राह में हर दिन एक नया सफर मिलता हैं .

गमों से भरा हैं ये सफर जिंदगी का 
हर इन्सान बस आगे बढ़ रहा हैं 
बिना सोचे समझे इस सफर पर चल रहा हैं
और एक नये मौत के मंजर से मिल रहा हैं .

कितनी ही मुश्किल हो राह में 
रखना तू बस खामोश होकर सब्र 
मंजिल भी मिल ही जायेगी
बस जारी रखना ये जिंदगी का सफर .

वो जिंदगी में आये इस कदर 
बदल गया जीने का सफर 
वरना हमारी जिंदगी तो भटक रही थी दर-बदर
बदल गई जिंदगी हुआ उनका ऐसा असर.

बीत गया हैं ये जिंदगी का सफर 
फिर भी एक नई जिंदगी की तलाश हैं
इन अनजानी राहों में 
एक नये सफर की तलाश हैं .

चल रही हैं मंजिल की तलाश 
ये सफर भी कट ही जायेगा 
आज वक्त साथ नहीं तो क्या हुआ 
कभी मंजिल भी मेरे संग साथ और आबाद होंगे .
स्वरचित:- रीता बिष्ट

वो आँखें कुछ बोलती हैं....
खिलखिलाती हैं जब...
तो शबनमी बूँदें चमकती हैं...
तस्वीर सी दिखाती हैं....
मन के दर्पण पे बनती...
गम की परछाईयां सी.....
झिलमिलाती हैं...
उन शबनमी कतरों में...
जो लब पे न तो आती हैं...
न आँखों से लब तक का...
सफर तय करती हैं...
पर वो आँखें....
बोलती हैं....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II 
५.१०.२०१८

जब जन्म हुआ 
तब से शुरु हुआ।

जीवन का यह सफर।
कभी कठिन रहा
कभी बहुत सरल,
जीवन का यह सफर।
शुरुआत तो सबको पता है,
नहीं पता इसका अंत।
जब से चलना सिखा,
न रूकते है कहीं।
चल निकलें हैं करने पुरा,
जीवन का यह सफर।
अ से ज्ञ तक के सफर में,
मिला बहुत सा ज्ञान।
कुछ. मिला पूरा
कुछ रहा अधुरा
कहीं मिला सम्मान।
बहुत सुखद रहा
जीवन का यह सफर।।।

क्रमशः.......

स्वरचित
प्राजक्ता डॉन गोधा "प्रतिभा"
5/10/2018


सफर "हाइकु"

हुआ विहान
सफर की उड़ान
मन है पंख

फैला प्रकाश
सूरज का सफ़र
धरा आकाश

भावों के मोती
साहित्य का सफर
अद्भुत ज्योति

बचा इंसान
दया धर्म ईमान
सफर शेष

पथ पत्थर
जीवन का सफर
नहीं आसान

एकाकीपन
नहीं हमसफ़र
दुखिया मन

उद्देश्यहीन
मानव का सफर
तम प्रखर

प्रकृति दीन
संरक्षण सफर
हुआ विलीन

वीर नमन
सरहद सफर
झंडा कफ़न

पूर्ण विराम
परलोक सफर
तन विश्राम

स्वरचित
'पथिक रचना'

सफ

सफर,जन्म से मृत्यु तक
अनवरत सतत क्रियाशील।
आत्मचिंतन,मनन हेतु प्राप्त
दिग्विजय सफर।
कभी चाँद-तारों सी अठखेलियाँ
कभी सूरज की तपती किरणों का सफर।
अनजान,सुनसान राहों को
बखूबी पारदर्शिता से पार करता ये सफर।
जड़ को चेतन में तब्दील करता
सुरभित,मन की आकाशगंगा को
पार लगाता ये सफर।
शून्य से प्रारम्भ
विराटता को समेटता व्योम रूपी सफर।जारी

वीणा शर्मा
स्वरचित


1
शरीर बस 
ईश हैं ड्राइवर 
साँसो की यात्रा 
2
जग सागर 
लहरों का सफर 
प्रभु जहाज 
3
शरीर बस 
अंग हमसफर 
दिल चालक 
4
जीवन नैया 
भगवान खिवैया 
साँसो का सफर 

5
प्यासे है नैना 
ढूंढे हमसफर 
चैन न रैना 
6
चाँद की यात्रा 
भटके है चांदनी 
रैना प्रसन्न 
7
चाँद बेबस 
कैद मे अमावस 
रुकी थी यात्रा 
8
यात्रा सुहानी 
मंगेतर चांदनी 
चाँद प्रतीक्षा 
9
राधा के कृष्ण 
मथुरा का सफर 
छुटा गोकुल 
कुसुम पंत (उत्साही )
स्वरचित 
देहरादून 
उत्तराखंड


ये जीवन का सफ़र
एक उज़ड़ी हुई डग़र है,
हर कोई जीता है
क्योंकि मरनें का डर है l

रास्ते कहीं नहीं
चलें तो किधर चलें,
विश्वास और आस को लेकर
बढें तो किधर बढें l

जन्म और मरण
ये दो ही पहलू
बचे है इस राह में,
खाली स्थान दीख पड़ते हैं
बीच की जगहां में l

घुल रहा है वो विश्वास
मिट रही आपस की आस,
मोम बन कर पिघल रही
प्यार, प्रेम जीवन की सांस l



विषय - सफर 
विधा - अतुकांत छंद मुक्त कविता

मित्रो मेरी यह रचना जीवन के सफर की रेलमपेल और सहयात्रियों की भूमिका को दर्शाती है ।बचपन से लेकर पचपन तक हमारे जीवन में मित्र बदलते रहते हैं परन्तु वह हमेशा हमारे साथ नहीं होते ।यही कारण है कि मुसाफिर बदलते रहने के बाद भी जीवन का सफर अनवरत जारी रहता है । यहाँ मुसाफिर से मेरा मतलब - माता -पिता , भाई- बहन पति - पत्नी , व ससुराल के लोग पड़ोसी , बच्चे व अन्य वह सब जो हमारी जिन्दगी का हिस्सा हैं ।।
" जिन्दगी का सफर " 
--~~~~--~~~--~~~--
जिन्दगी के सफर में 
एक मैं अकेली 
मुसाफिर बहुत साथ होते हैं मगर 
मंजिल तक साथ दें ऐसा नहीं है 
या फिर मैं ही साथ दे नहीं पाती हूँ उन सबका 
भीड़ दुनिया में लोगों की बहुत है 
कुछ अपने भी उनमें शामिल हैं कुछ मेरी ही तरह 
इस भीड़ में अपने को अकेला पाते हैं 
कुछ भटके हुए मुसाफिर मेरा हाथ थाम लेते हैं 
लेकिन कठिन लगता है 
मुझे उनके साथ - साथ चलना इसीलिए शायद हर जगह 
साथी बदल जाते हैं 
ये मेरी खुशनसीबी है 
कि हर मोड़ पर साथी नए मिल जाते हैं 
जो मुझ पर जान भी कुर्बान कर देना चाहते हैं 
वर्ना इस लम्बे सफर को 
तय करने की चाह ही न रह जाती 
और इस भीड़ में औरों की तरह मैं भी घुट - घुट कर मर जाती 
किन्तु ऐसा नहीं है 
मेरे साथ भी हैं कुछ काफिले बहार के 
जो मेरे सफर को सुरक्षित करते हैं 
और हर बार जीने की एक नई रोशनी मुझे देते हैं 
शायद इसी उम्मीद के पर में जी भी रही हूँ 
कि न जाने जिन्दगी अभी कितने मोड़ लेती है 
और नए - नए साथी मुझे देती है 
अभिलाषा यही है कि 
जिन्दगी का सफर यूँ ही चलता रहे 
इसी तरह बहारें मुझ पर फूल बरसायें 
और " पुनीत " पवन के झोंके मेरी थकान को मिटाएँ ।।
++++++++++++++++++
पुनीता भारद्वाज 
रचनाकाल - 5-8- 93


(आज का सफर गाजियाबाद से देहरादून)

आज फिर मै निकल पड़ी एक नये सफर की ओर
जिसमे साथ थे मेरे वो मुसाफिर
आज इस सफर का अनुभव तुम्हें बताती हूं
इस सफर में कुछ अजनबी चेहरे कुछ पल के लिए बन जाते हैं अपने
हम बस में बैठे ही थे की हाजमे की गोली व चुरन
देने वाले आ गये जिसका पेट है गड़बड़ाये वो चुरन रामलाल का खाये।
वो उतरा नही की दंतमंजन वाला 
जिसको लगा हो पारिया ठड़ा गरम पानी लगरिया हो ,वो खुशबु दंतमंजन ले जाये अौर अपने दाँतों को चमकाये।
चिप्स कुरकुरे भी आये अौर उन्हे देख मेरा बेटा है ललचाया वो मुझे देख हर्ष आया।
खतौली में बस ने थोड़ी देर का ब्रेक जो लगाया
लोजी हकीम साहब का पर्चा भी आया 
वो भी यू चिल्लाया वशीकरण हो या धन की समस्या वो हमारे पास आये और समाधान पाये
ये सुन मेरा मन भी चिड़चिड़ाया तूने क्यों पब्लिक को बेवकूफ है बनाया तूने क्या दिमाग है पाया
सारी पब्लिक को है भरमाया।
हमने पूछा इस जादू टोने से तूने कितना धन है कमाया 
वहाँ एक वृद्ध अंकल दबदबादब पकौड़े खाये जा रहे थे ,हमसे देखा ना गया आखिर ह्रम पूछ ही बैठे
आप इस उम्र में इतने पकौड़े खायेंगे तो पेट ना गड़बड़ायेगा ।
अंकल मुस्कुराये और हमारी पगलेट वाली बातो
पर यू खिलखलाये 
और बोले बेटी ह्रम शुद्ध देसी घी खाकर पले बढ़े हैं ह्रम तो सौ साल तक भी यही डटे पड़े हैं
हम आज की मिलावटी दुनिया में नहीं
जहाँ खाने की हर सामाग्री मे दवाई ड़ाल कर बड़ा क्या जाता है।
हमने मेहनत कर पसीना बहा कर शरीर बनाया है
और आजकल के बच्चे हैं घी तेल त्याग कर अपना शरीर बनाते हैं
मेहनत करने का कोई विचार उनके मन में नहीं है आता।
हमारी बातें ही चल रही थी इतने में एक महिला
सामने खड़ी हो आयी वो बोली मेरे बच्चे के पिता चल बसे इसकी भूख है मिटानी बस दस ,बीस रुपया का सवाल है मैमसाहब
हम चुप रहे कुछ ना बोले 
लेकिन वो ना मानी और बोलती रही हमने भी पाँच रुपये थमाये ,उसने कह्रा की पाँच रुपये का कुछ नहीं आता ।
बस मुझे क्रोध ह्रै आया दो आँखे सही तेरे पैर भी ठीक ठाक है और हाथो मे भी कोई परेशानी नही नजर आ रही है फिर तु क्यो भीख माँग रही ह्रै
हमने कहा महेनत कर और रोटी खा सम्मान पा
वो लाल पीली हो गयी, हमने कहा हिंदुस्तान में आलसीयो की कमी नहीं मेहनत करना उन्हे मंजूर नहीं भीख 
चलो ये भी अनुभव लिया हमने इस सफर मे
आगे बढे तो रुड़की के बाद उस जाम का सामना करना पड़ा , छः घंटे का सफर नौ घंटे मे पार क्या 
हाये ह्रालत ऐसी पस्त हो आयी बस अब कुछ ना दे सुनायी मै और मेरा बिस्तर ही दे रहा है दिखायी 
इस सफर मे नीद ऐसी खो गयी ,
हम ना सोये रात थक कर सो गयी
स्वरचित हेमा जोशी


सफर
मेरी जिदंगी के सफर में,
साथ तेरा प्यारा था,
दुखों के अंधियारे में,
साथ तेरा उजियारा था,
जिदंगी के सफर में,
मंजिल के साथ ठोकरें भी पाई हैं,
मन के मेरे जख्मों की,
यादें तेरी दवाई हैं,
जिदंगी के सफर में,
उम्मीदें ना हारी हैं,
थाम हौंसलों की ड़ोर,
खेली हमनें जिदंगी की पारी है।

स्वरचित-रेखा रविदत्त
5/10/18
शुक्रवार



(1)
इच्छाएँ ज्यादा
जीवन का "सफर"
वजन लादा
(2)
कर्मों का थैला
मौत के "सफर" में
यात्री अकेला
(3)
खानाबदोश
ज़िंदगी का "सफर"
पल का डेरा
(4)
ठहरे मन
प्रेम के "सफर" में
मंज़िल गुम
(5)
शब्दों को छोड़
मौन "सफर" करे
अंतस ओर
(6)
ईंजन भाव
कलम का "सफर"
शब्द सवार
स्वरचित
ऋतुराज दवे

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