Thursday, August 16

"ख्वाहिशें"16अगस्त 2018





ख्वाहिशों का अथाह समन्दर, 
है मेरे इस दिल के अन्दर, 
कुछ ख्वाहिशे सीमित है, 
कुछ ख्वाहिशे बेलगाम हैं
कुछ मूल्यवान ख्वाहिशे हैं, 
और कुछ तो बेदाम हैं, 
कुछ ख्वाहिशे दबाना चाहूँ,
कुछ छलक के बहार आ जायें, 
ख्वाहिशों का ये सफर चलता रहेगा,

 जब तक माटी के पुतले मे जान है!

स्वरचित -संगीता कुकरेती



ख्वाहिशें सभी की पूरी नहीं होती ।

ईश नामंजूर करें जरूरी नहीं होती।
हमारी ख्वाहिशें बढती ही जाती हैं,
कुछ अनावश्यक मजबूरी नहीं होती।

प्रसन्न रहें जो परमेश ने दिया हमको।
क्या हमें महाकाय नहीं दिया हमको।
क्यों लगातार शिकायत रहती उनसे
बताऐं स्वस्थ तन किसने दिया हमको।

ख्वाहिशें करने से सदा दुख मिला है।
जो नहीं करते उन्हें ही सुख मिला है।
कोई ये सुखदुख दे नहीं सकता कभी,
हमें मनोविकारों से सुखदुख मिला है।

ख्वाहिशों को एक कोने में रखें हम।
जो भी मिला उसी में खुशी रहें हम।
जिंंन्दगी में कभी सुखद नहीं रहेंगे,
जबतक ख्वाहिशों को पाले रहें हम।

स्वरचितः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


न रहीं ख्वाहिशें और न रहा वो जुनून
वक्त ने ऐसा किया ख्वाहिशों का खून ।।
वो तो कुछ यादें हैं जिनके सहारे जीता हूँ
जहर जिन्दगी का पीता हूँ रहता हूँ मजनून

वक्त के साथ मिलाता हूँ ताल
मगर होता हूँ , हर बार बेहाल ।।
न जाने कब बदलेगा ये वक्त
और कब बदलेगी वक्त की चाल ।।

अब तो सिर्फ एक ख्वाहिश रब करे इनायत
मिले इस दिल को उसकी सच्ची इबादत ।।
रहम फरमाये ''शिवम" इस बिगड़ी तकदीर पर 
बदले इस आशियाने पर अपनी रिवायत ।।

बयाँ कर जाऊँ जीवन की कुछ सदाकत

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"


भावों के मोती समूह ,
दैनिक कार्य स्वरचित लघु कविता

दिनांक 16अगस्त , 2018
दिन वीरवार 
विषय ख्वाहिशें
रचयिता पूनम गोयल

मेरी ख्वाहिशों की फेहरिस्त ,
कुछ इस कदर बढ़ गई !
कि मेरी चादर , इन ख्वाहिशों से , 
काफी छोटी पड़ गई !!
हर रोज़ इनका ,
एक नया पुलिंदा !
जिसे देखकर , मैं ख़ुद भी ,
हो जाऊँ शर्मिंदा !!
क्योंकि मैं नहीं थी ऐसी ,
हरगिज़ नहीं थी !
बहुत कुछ था मेरे पास ,
सिर्फ और सिर्फ ये मेरी ख्वाहिशें ही नहीं थी !!
फिर , न जानें , कब ? कैसे ? और कहाँ से ?
ये आ गई !
और मेरी ज़िन्दगी में ,
एक अज़ीब सी हलचल मचा गई !!
समझ नहीं आता ,
कि करूँ , तो क्या करूँ !
कैसे ? मै , फिर से , अपनी इन ख्वाहिशों को ,
ख़ुद से जुदा करूँ !!
ज़िन्दगी एक अज़ब से 
ढर्रे पर चल रही है !
क्योंकि पल-पल ,
इन ख्वाहिशों की रफ्तार बदल रही है !!
अब तो ख़्वाब में भी ,
इनका मेला-सा लगा रहता है !
और ख़ुदा के नाम के बजाय ,
बस इनका ही बोलबाला बना रहता है !!
न जाने , ख़ुदा कभी इसके लिए ,
मुझे कभी मुआफ करेगा भी , या नहीं ?
न जाने , ज़िन्दगी की राह पर ,
मेरा कोई सही कदम ,
उठेगा भी , या नहीं !!
बेक़ाबू हूँ लगातार ,
ख़ुद के ज़ज़्बातों पर मैं !
और बढ़ रही हूँ , 
न जाने , किस डगर पर मैं !!
अ'ख़ुदा , 
तुझसे ग़ुज़ारिश है मेरी !
कि सभी भूलों को मुआफ कर,
तू राह बदल दे मेरी !!



कभी कभी दिल करता है छोटी सी बच्ची बन जाऊं
छोङ तमाशा दुनियादारी का मां के आंचल छुप जाऊं!!

भागूं दौङूं उङूं पंतग सी, और ख्वाहिशों के पेच लङाऊं
छज्जे उपर छम छमके नाचूं, मस्त मोरनी बन जाऊं!!

मां की गोदी के सिरहाने, माथे की चम्पी करवाऊं
लम्बे लम्बे बालों की, कस के दो चोटी कर आऊं!!

पापा के आंगन में, भइया बहना के लाङ लङाऊं
बच्चों की टोली को लेकर ,गलियों में शोर मचाऊं!!

झूला झूलूं पेंग बढाऊं, आसमान को छू के आऊं
पेङो की फुनगी पे चढके, बादल हाथों में ले आऊं!!

चंदा पाने का सपना देखूं ,तारों को झोली भर लाऊं 
थोङा है थोङे की जरूरत, ये ना सोचूं खुश हो जाऊं!!

मम्मी की साङी पहनूं ,गुड्डे गुङिया का ब्याह रचाऊं
झूठ मूठ के सजे बराती, मिलकर ज्यौनार जीमाऊं!!

मै मस्त कंलदर सी बनके, बेफिक्री का हुङदंग मचाऊं 
बीते कल की घङी में घुसके, इक लम्हा बचपन लाऊं!!

कभी कभी दिल करता है छोटी सी बच्ची बन जाऊं
छोङ तमाशा दुनियादारी का मां के आंचल छुप जाऊं!!

------ डा. निशा माथुर(स्वरचित)



मेरी भी हैं कुछ ख्वाहिशें
कुछ पूरे हुये कुछ आधे-अधूरी पड़़ी

जब ख्वाहिशें हैं सिर उठाती
तब मैं उनके पीछे भागती

जब ख्वाहिशें सुस्त पड़ जाती 
तब मैं भी नही चुस्त रह जाती
जब याद आये आपनोंकी ख्वाहिश
पूरा करने में लग जाती तुरंत

सबकी ख्वाहिशें पूरी करते करते
न जाने कब मेरी ख्वाहिशें और
अपनो की ख्वाहिशें हो गये हमशक्ल
अब है बस एक ख्वाहिश

हर ख्वाहिश हो पूरी मेरे अपनो की
अपनों की ख्वाहिश पूरी हो तो
तो हो जाये अपनी भी ख्वाहिश पूरी
ख्वाहिशें तो ख्वाहिशें है अपनो की हैं या दूसरो की।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।


विषय - ख्वाहिशें 
कवि जसवंत लाल खटीक

कुछ ख्वाहिशें थी मेरी , 
जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।
कुछ अरमानों की झोपड़िया , 
मजबूरियों से ढ़ह गयी ।।

बचपन में देखे थे मैने , 
बड़े-बड़े और प्यारे सपने ।
लेकिन जवानी में आते-आते ,
सपनों की दुनिया बह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।

कोशिस बहुत की थी मैने ,
बड़ा अफसर बन जाने की ।
वक्त के आगे एक ना चली ,
बस घर की जिम्मेदारी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।

सपने में गड़गड़ाहट हुई ,
उम्मीदों की बिजलियां भी चमकी ।
लेकिन किस्मत की बारिश से जमीन ,
अंदर से सुखी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।

कभी थी मरने की ख्वाहिश ,
कभी होती जीने की इच्छा ।
इस जिंदगी की कशमकश में ,
नैया , डूबती-डूबती रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।

वो दिन भी देखे थे मैंने , 
जब यमराज मेरे पास से गुजरे ।
शायद कुछ उपकार किये थे हमने ,
तभी फिर से , जिंदगी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।

सूट-बूट और पीए-सीए ,
सरकारी गाड़ी की ख्वाहिश ।
लेकिन किस्मत का खेल निराला ,
कलम हाथ में रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।

छोटी सी उम्र है लेकिन ,
छाछ , फूँक-फूँक कर पीता हूँ ।
तजुर्बों से आया फ़न लेकिन ,
ख्वाहिश , अधूरी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।


सुरेंद्र शर्मा जी से प्रेरित 
घैराडी बोली सुनो पंत जी, 
एक ख्वाइस पूरी करदै, 
मै बोल्यो री पंतडी, 
घणे प्रेम से बोल रही l
लागे सै आज आँखा आँखा 
मा म्हारी जेब तू तोल रही 
बोलो राणी के चावे है, 
आज मु मा गुड़ घोल रहीl

वा बोलि रे पंत जी, 
के बोलणे लागरे हो, 
आज तो आप घणे ही, 
सोणे लागरे हो l
मेरो दिल धड्कण लाग्यो, 
कुछ कुछ समजण लाग्यो 
आज जेब कॉटन अली, 
घेराडी घणी सूथरी लागरी l

बोलि मने हार दिवाओ, 
न तो छोड़ तने मै जारी, 
जो खाइश पूरी न करे तो, 
कुआँ मे डुबन मै जारी l

मन मा बड़ी ख़ुशी होरी थी, 
या चुड़ैल जान लागरी, 
पर बार स मै बोल्यो 
री या तू के कहन लागरी 
मै बोल्यो थारी खाइश सर माथे, 
पर तू कित जासे 
बैठ मेरे धोरे राणी, 
पेली करदू तने सोणे स l

खुश होके गले लाग् गी, 
जैसे हो फंदा फाँस की, 
मै बोल्यो अब ते छोड़, 
अब न है मेरे कोई होड़ l
कुसुम पंत 
स्वरचित 



1
आजाद पंक्षी
ख्वाहिशों का आकाश
चंचल मन
2
दृढ़ निश्चय
ख्वाहिशों का दमन
लक्ष्य पूर्ण
3
मन सागर
ख्वाहिशें हैं लहर
तट मस्तिष्क
4
ऊँची ख्वाहिशें
सुख-दुख ड़गर
दिखे दर्पण
5
बाल ख्वाहिश
चाँद बने खिलौना
माँ परेशान

स्वरचित-रेखा रविदत्त
16/8/18
वीरवार



बस अब और जिन्दगी में आजमाइश न रहे

एक ख्वाहिश है कि कोई ख्वाहिश न रहे

मेरी ख्वाहिश तेरी ख्वाहिशों के आगे
तोड़ देती हैं दम, रोज़ की आजमाइशों के आगे
मेरी जरूरत ही मेरी ख्वाहिश बन बैठी अब
अधूरी ही रह जाती है तेरी फरमाइशों के आगे

हमें आदत है, जिनके हक़ में दुआ कर जाने की
हैं वहीं लोग वजह,आंख मेरी भर जाने की
उमर भर मैं जिनकी चाहत पूरी करता रहा
उन्हीं की ख्वाहिश है आज, मेरे मर जाने की


ख्वाहिशें सबकी कुछ रही अधूरी 
*कुछ हुई पूरी*
ख़्वाहिशें बचपन की---
गुड्डे गाड़ियों की बारात हो
खेलने के लिए दोस्तों की
भरमार हो
खिलौने चाॅकलेटों की
बरसात हो
ख़्वाहिशें किशोर की---
बिन पढ़े ही नम्बर 100के पास हो
जैसे तैसे इम्तिहान का बेड़ा पार हो 
कक्षा में प्रथम स्थान ही हर बार हो
ख्वाहिशें यौवन की---
अपना सुन्दर सपनों का संसार हो
मित्रों का हरपल साथ हो
प्यार की भरमार हो 
ख़्वाहिशें सुहागन की--- 
देहली के उसपार भी ममता की 
छाँव हो
पतिदेव जी से मिलता प्यार की 
सौगात हो
आँगन में गूँजती किलकारियां हो
माँ की ख्वाहिशें ---
बच्चों के सपने सँवारने हैं 
आई कठिनाइयों से बचाने है
आसमान भी कदम उनके चूमते हो
प्रौढ़ की ख्वाहिशें---
बच्चे संस्कारों को अपनाते हों
ईश्वर का आशीर्वाद मिलता हो
सुख चैन से वो जीते हों
वृद्धा की ख्वाहिशें---
स्वास्थ्य में कुछ सुधार हो 
बच्चों के सेवा भाव हो
जीवन नैय्या अब बेडा पार हो

स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला



निकल पड़ी थी आज एक ख्वाहिश मन में लेकर,कि मुलाकात कर आऊँ आज ख्वाईश से।ढूंढती ढूंढती पहुंची एक दींन केआँगन
खड़ी थी वहां कोई उदास सी अबला,
पूछा मैने कौन हो तुम?
बोली 'गरीब की ख्वाहिश'
'नाम सुनकर अचंभित हो गई मैं?गरीब की ख्वाहिश!ये कैसा नाम तुम्हारा।
बोली हाँ,मेम साहब मेरा नाम यही है।
मैं भी हूँ निर्धन,तभी तो दीन के घर रहती हूँ।
तो रोटी को तरसती हूँ।
कपड़ो के नाम पर उतरन पहने हूँ
वो भी ढेरों पाती के साथ।
छत के नाम झुपड़ियाँ है, जिसमे 
दुबककर रोती हूँ।
सुनकर उसकी बातें दिल मेरा भी रो पड़ा। जब ये इतनी गरीब , फिर कैसे ये करे दीन की ख्वाहिश पूरी।
कहा मैंने अमीरों के घर तेरी बहन तो रहती है
क्यूँ न तो उससे जाकर इन दीनों के घर भरती है।
व्यंग भरी मुस्कान थी उसके चेहरे पर
बोली क्या सचमुच भोली हो आप?
या जानकर अनजान बन रही।
कभी देखा है पैसे वाली बहिन को निर्धन बहन के घर आते जाते
आई कभी तो मुँह पर कपड़ा बंधा रहता है
जानते हो क्यों?
मेरे यहाँ हर चीज़ में बदबू आती हैउसे।
हाँ गई थी एक बार घर उसके यहाँ
पहचानने से इनकार कर दिया।
तब से दूर ही रहती हूँ।
मैं गरीब हूँ मगर इज़्ज़त से जीती हूँ।
सचमुच, ख्वाहिशें भी मजबूर है , मैंने आज जाना।
गरीब की और अमीर की ख्वाहिशों को आज पहचाना।

स्वरचित
गीता लकवाल

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