सृजन करने निकला था....
अपनी दुनियाँ का मैं....
खुद को ग़ुम सा पाता हूँ....
मैं खुद को पाना चाहता हूँ....
हर कोई जानता है मुझे...
पर मैं भूल जाता हूँ...
कब अपनों में गैरों से...
कब गैरों में अपनों से मिला...
हर किसी से अब सम्भलना चाहता हूँ....
हर किसी से गैर होना चाहता हूँ...
मैं खुद को पाना चाहता हूँ...
काले रात के साये में....
नज़र आती है मेरी परछाई....
पर दिन में ग़ुम हो जाती है क्यूँ....
यह देखना चाहता हूँ....
रात में जब भी हाथ बढ़ा छूना चाहा उसे...
कर उजाला भाग जाती है मुझसे...
वैर है उसीका मुझसे, जिसे...
मैं पाना चाहता हूँ....
सागर में गहरे उतरा था मैं भी...
बिन सोचे समझे....
मोतियों की नहीं पर...
डूबने की चाह थी मुझे...
न जाने सागर पल में....
क्यूँ ख़फ़ा हो गया मुझसे.....
छूते ही वो मुझे...
काली रेत् का ढेर हो गया...
मेरे निशाँ भी ले गया...
रेत् से घरौंदे का सृजन किया...
फिर खुद ही ढहा दिया मैंने...
अपने को खड़ा रखना चाहता हूँ....
खुद को पाना चाहता हूँ...
कहाँ से शुरू करून...
खोजना खुद को....
काले बादल बीते वक़्त के...
छा जाते हैं....
उमस बढ़ती है...
बिजलियाँ चमकती हैं...
दिल आँखों में आ... ठहर सा जाता है....
रास्ता मिलता नहीं लौट जाता है....
और मैं...
खुद को पाना भूल जाता हूँ....
ताकता रह जाता हूँ....
बस ताकता ही रहता हूँ....
अनदेखी...अनचाही...निर्जन सी राह पर...
जो मुझ जैसे ही दिखती है...
खुद को पाता हूँ...
शायद उसे भी तलाश थी...
कोई आये संवारने उसे...
और मैं....
फिर से सृजन करना चाहता हूँ...
अपने ही हाथों अपना...
सृजन करना चाहता हूँ...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
२५.०८.२०१८
मन हो जाए विधा को अर्पण
जीवन सादगी को समर्पण
मंजिल की खोज मे लगे रहो
हिम्मत से ज्ञान का हो सर्जन
राहे करेगीं खुद अभिनंदन
खुद के हौसलौ का करो वंदन
हिम्मत से बडा हथियार नहीं
चेतना का करो खुद मे सर्जन
गजेन्द्र तंवर
दया करो माँ शारदे! , करो क़लम का स्पर्श ।
मन वाणी से जो लिखूँ , होय काव्य उत्कर्ष ।।१।।
दोहे हों निज से परे, हों समष्टि आधार ।
हरि !हित में जग के सकल ,होय शब्द संचार ।।२।।
सुरसरि सम दोहे बनें , पढ़े मिले आनंद ।
कस्तूरी सम यश मिले , हो माधुर्य अमंद ।।३।।
शुभ विचार शुभ भाव से , किया सृजित है काव्य ।
पठन करें विद्वान जो , हो उनके संभाव्य ।।४।।
करुणा करो उदार प्रभु , दो मुझको वरदान ।
दोहे जो मैं लिख रही , बन जाएँ रसखान ।।५।।
करूँ सृजन जो शारदे , करना तुम उपकार ।
बहुजन हित साहित्य हो , मिले यही उपहार ।।६।।
पढ कर श्रुति पुराण निगम , पाया जो भी ज्ञान ।
वह समर्पित समाज को , सबका हो कल्याण ।।७।।
स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा 125055 ( हरियाणा )
धन्य वो सृजन कर्ता जिसने रची श्रष्टि सारी
हम सब उसके अंग हम पर उसकी बलिहारी ।।
हम ही उसको भूल जायें रोयें अपनी लाचारी
सृजनशीलता उसकी हममें न देखें भूल हमारी ।।
मानव उसकी श्रेष्ठ कृति चाहे नर हो या नारी
उसको हम पर गर्व है पर हममें रहे खुमारी ।।
परमपिता को दुख होता जब हम करें भूल भारी
सोचे कौन कमी छोड़ी जो मानव में बेकरारी ।।
सीमाओं में बँधी है श्रष्टि सीमा लाँघ मुसीबत डारी
दोष किसे हम दें ''शिवम" रहे न हम सुविचारी ।।
रचनात्मकता खोयी हमने विध्वंस की राह विस्तारी
सृजनशीलता थी कभी अब तोड़फोड़ की तैयारी ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
जिसने मानव का सृजन किया।
पर मानव ने बदले में।
उसे क्या तोहफा दिया।
चरों तरफ आतंक मचा है।
सभी बेसब्र हो रहे।
मानवता छोड़ इन्सां।
दानव सभी बन गये।
कहीं गरीबी,कहीं हत्या।
कहीं बलात्कार हो रहा।
समझ में नहीं आता।
मानव को क्या हो गया।
देखकर ये कृति इन्सां का।
सृजनकर्ता भी सोच में पड़ गये।
मैंने ये कैसा सृजन किया।
सभी लालची हो रहे।।
स्वरचित
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
"सृजन "
सृजन..हमेशा,
सँतुष्टि का,अहसास देता है,
यदि..
अहँ का भाव ना हो,
तो उसमेँ....
परमात्मा का वास होता है।
सृजन मेँ जीवन बोलता है,
रचनात्मक ईँटे जोडता है,
सकारात्मक होता है,सृजन,
हर असँभव सपना पलता है,
हाँ...
सृजन ही है,
जो
मनुष्य को
मनुष्यता की ओर,
इस धरती को
पवित्रता की ओर,
ले जाता है,
उसकी ऊचाइयाँ बता
छिपी हुई क्षमता से
परिचय करा जाता है..
ऋतुराज दवे
*सृजन*
क्षण प्रति क्षण नवल नूतन
लिए उर भाव मनन चिंतन
सघन मृदुला युति विचरण
समय गतिमान है लेकिन
अवनि आँगन ये व्यापित गगन
दसो दिशाऐं और दो अयन
देह का ये पंच तत्विक भवन
इसमे समन्वित समुचित सृजन,,,,,,,,,,
रागिनी शास्त्री
चरणों में रख भाव पुष्प
समर्थ लेखनी को करते जाएँगे....
हम सरस्वती पुत्र !
सृजन नित करते जाएँगे....
उर को करेंगे हम पुनीत,
सींच ऋचाओं के ज्ञान से।
सभ्यता को करें समृद्ध,
नित्य नव विज्ञान से ।
भारत माँ के भाल हम,
उन्नत नित करते जाएँगे..
हम सरस्वती पुत्र !
सृजन नित करते जाएँगे..
माँ भारती के आँचल पर,
लिखेंगे नव कीर्ति गान।
नत मस्तक होगी सारी दुनिया,
विश्व गुरु का बढ़ेगा मान।
बंजर हर उर को सींच,
स्वदेश का भाव भरते जाएँगे...
हम सरस्वती पुत्र !
सृजन नित करते जाएँगे...।
स्व रचित
उषा किरण
मैं तो बस माध्यम हूँ तेरा,
तू ही असली रचनाकार।
तेरा ही चिंतन करता हूँ,
निशदिन आत्मीय साभार।।
नही जानता छंद सोरठा,
नही समझ मात्राओं की।
लिखता मैं पढ़ते है सब,
हरदम लुटाते अथाह प्यार।।
यही विनती है प्रभु मेरे,
लिखता रहूं मन के भाव।
#सृजन तेरा तुझको अर्पण,
नमन तुझे है बारंबार।।
नमन तुझे है बारंबार।।
#गिरीश
#स्वरचित
जब नभ में सूरज चमके,
चंदा की चाँदनी यूँ बिखरे,
तारों की झिलमिलाहट दिखे,
तब मन मेरा ये कहे..........
क्या खूब सृजन है !!!!
जब हरियाली की दुशाला ओडे,
धरती खूब दम-दम दमके,
आँखों को बडी ठंडक मिले,
तब मन मेरा ये कहे.........,
क्या खूब सृजन है !!!!
जब सागर की लहरे उठें,
नहरों में पानी कल-कल करे,
पेड़ों की ठंडी हवायें चले,
तब मन मेरा ये कहे.......,
क्या खूब सृजन है !!!!
धन्य है तु सृजनकर्ता,
प्रकृति का ऐसा श्रृंगार किया,
कोटि -कोटि तुझे है नमन,
कृपा तेरी यूँ ही बनी रहे!!!!
स्वरचित -*संगीता कुकरेती*
कृष्ण की बांसुरी:
सृजन है वर्णों का
सृजन त्वरित ध्वनी का
सृजन सुर और लय का
सृजन सरगम और ताल का
सृजन प्रेम अनुराग का
सृजन मन के झंकारों का
सृजन है परा अपरा शक्ति का
सृजन है दिव्य ज्ञान का
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
25/08/2018
मै एक अंश का टुकड़ा हूँ
उस सृष्टि सृजन कर्ता का।
जिसने सृजन किया है इस
अनुपम अद्भुत सी रचना का
प्रकृति सुंंन्दर प्राकृतिक छटाऐ।
आकाश में छाई मनोहारी घटाऐं।
बडी बिचित्र ये मानव देह गढी है,
हम सब इस पर बलिहारी जाऐं।
मकरंद बिखेरते प्रसून यहाँ तो,
ये मधुकर मधुरम रस पीते हैं।
किसलय कुसमाकर इठलाते,
मोहित भंवरे गुंजनकर जीते हैं।
जो अट्टालिकाऐं हैं मानव निर्मित।
तेरी सृजनशीलता से हैं अचंम्भित।
अविश्वास अलौकिक रचनाओं पर,
होते हैं सब देख देखकर लज्जित।
प्रतिमाओं को जबसे किया है खंडित।
तेरी प्रकृति पृवत्ति ने किया रक्तरंजित।
अपने पांवों पर मारी कुल्हाड़ी मानव ने
जबसे पृथ्वी को किया प्रदूषण मंडित।
स्वरचितः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
ना यज्ञ है
ना हवन है
ना हलन है
ना चलन है
ना कामना है
ना वासना है
ना आकांक्षा है
ना अभीप्सा है
यह भीतर की मशाल है।
यह पूजन है
अर्चन है
यह ध्यान है
आनंद है
यह उमंग है
उत्सव है
यह प्रेम है
प्रीत है
यह जीवन का स्वर है
जीवन का नृत्य है।
यह कैवल्य है
निर्वाण है
यह सत्य है
शाश्वत है
यह परम है
ईश्वर तक पहुँचने का
एक सुन्दर आयाम है।
@शाको
स्वरचित
पटना
हे सृजन कार
क्यू बनाया तूने संसार,
आज का इंसान,
बना बैठा भगवान,
तेरी सृजित इस प्रकृति को,
इसने लहूलुहान किया,
नष्ट करके इसके सौंदर्य को,
अपना भविष्य गर्त कर रहा l
सृजन किया मनुज का तूने,
वही उसको नष्ट कररहा,
प्रकृति और संस्कृति को,
अपने हाथो त्रस्त कर रहा l
नारी ने किया नर का सृजन,
बन गया वो उसका दुश्मन,
नन्ही कली को नोंच रहा,
उसको नोच खसोट रहा l
संभल जा अब हे इंसान,
हो जायेगा हा हा कार,
सृजन कैसे हो पायेगा,
ना आएगी फिर बहार
कुसुम पंत
स्वरचित
तभी नव निर्मित होते हैं धरती गगन
सृजन की लीला न्यारी
जग में सबसे अलग और प्यारी .
सृजन का रूप कण कण में
मानवता के हर पग पग में
माँ पिता का प्रेम हैं संतान में सृजन
प्रकृति का मनोहारी रूप हैं सृजन .
सागर की लहरों में सृजन
लता की शाखाओं की सृजन .
मन में होती हैं हर पल सृजन
सम्पूर्ण विश्व हैं एक सृजन .
स्वरचित :- रीता बिष्ट
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