कन्धे पर मेरे सिर रखकर रोती सी लगी....
बड़ी बेचैन थी शब्दों के बोझ तले दबी सी....
महफिल में सरेआम रूसवा होती सी लगी....
दिले शायर में उतरी थी बड़ी आरजूएं लेकर....
गुनगुनाई गज़ल तो लबों पर मोती सी लगी....।।
✍🏻
गोविन्द सिंह चौहान, भागावड़
मधुर मधुर जल मेरे दीपक
विकल व्यथित भ्रममय जीवन में,
थोडा पर उजियारा कर ।।
मुट्ठी का रेत समय बन फिसला,
वातहत लतिका सा झकझोर दिया।
मृदुल उर के कोमल भावों को,
क्षण में छिन्नाधार किया ।
उठकर प्रिय इस नववेला में,
नवगति, नवलय, नवरस भर ।।
प्रिय सांध्य गगन को त्यागो अब,
घिरता विषाद का तिमिर सघन।
ज्योतिर्मय शक्ति समेटो तुम,
अपनी ज्वाला खुद ही बनकर ।
भर लो जीवन में मृदुल उमंग,
इस मधुरिम वेला में उठकर ।।
मधुर मधुर जल मेरे दीपक
विकल व्यथित भ्रममय जीवन में,
थोडा पर उजियारा कर।।
आँखों से बेवफ़ा का देखा वो मन्ज़र नही जाता।
छीनकर ले गया वो दगाबाज़ मेरे दिल का मोती
दिल मे चुभा नश्तर की तरह वो तेवर नही जाता।
दग़ा पे दग़ा देता रहा जो प्यार के नाम पर
दिल मे बसा है जो दिल से दिलबर नही जाता।
पहली दफ़ा जब भी प्यार हो जाता किसी से
लाख चाहो वो दिल से बाहर नही जाता।
नदी मिलने जाती है अपने समन्दर से
नदी से मिलने बेदर्दी साग़र नही जाता।
*रेणू अग्रवाल*
*5::8::2018;;*
*(स्वरचित)*
घने अंधेरे में।
मैं और मेरी,
तनहाई है।।
कुछ दर्द भरे,
से नगमे है।
और याद तेरी,
भी आयी है।।
दिनभर दुनिया के मेले में,
मैं तन्हा अकेला रहता हूँ।
और रात में तेरे यादों संग,
जीता हूँ और मरता हूँ।।
और दूर तलक सपनों में,
संग तेरे विचरण करता हूँ।
जो रह गये हैं जीवन में,
पैमाने खाली भरता हूँ।।
...टूट ना मधुर स्वपन,,
बस इससे ही डरता हूँ...
..जो टूट गये सपने तो,
बस जिल्लत है रुसवाई है।।
जीवन के,
घने अंधेरे में।
मैं और मेरी,
तनहाई है।।
कुछ दर्द भरे,
से नगमे है।
और याद तेरी,
भी आयी है।।
कहते हैं संगी साथी,
क्यों अपने में खोये रहते हो।
न सुनते हो ना कहते हो ,
बस सोये-सोये रहते हो।।
आंखों में है लाली बस रोये-रोये रहते हो।
उनीदि की हालत में कोई स्वपन सजोये रहते हो।।
...अब तो कह दो बाबू हमसे,
ये चोट कहां से खायी है....
जीवन के,
घने अंधेरे में।
मैं और मेरी,
तनहाई है।।
कुछ दर्द भरे,
से नगमे है।
और याद तेरी,
भी आयी है।।
अब क्या बोलूँ,
कैसे कह दूँ,
कैसे मैं प्रसार करूँ।
है प्रश्न जीवन मरन का उसके,
कैसे मैं प्रचार करूँ।।
उस उपकारी मूरत पर ,
कैसे मैं अपकार करूँ।
है देवी जो मन मंदिर की,
कैसे अशिष्ट व्योहार करूँ।।
...है जिसने सारे दर्द सहे,
कैसे कह दूँ हरजाई है.....
जीवन के,
घने अंधेरे में।
मैं और मेरी,
तनहाई है।।
कुछ दर्द भरे,
से नगमे है।
और याद तेरी,
भी आयी है।।
...राकेश पांडेय
दोस्ती ;दोस्ती क्या है?.......
दोस्ती एक एहसास है ,एक जज्बात है।
रिश्तों में अनंत विश्वास है दोस्ती।
दोस्त गुलाब तो उसकी महक है दोस्ती।
जीवन एक मंझधार तो किनारा है दोस्ती।
दुखों के सागर से उबारने वाला अनमोल मोती है दोस्ती।
आँखों का पानी है दोस्ती।
दोस्त हमराज तो हमदर्द बन जाती है दोस्ती।
जिंदगी भर जीवन महकाती है दोस्ती।
हर किसी के नसीब में नहीं आती दोस्ती।
वह बड़ा खुशनसीब होता है जिसे मिल पाती सच्ची दोस्ती।
खुदा की इनायत है दोस्ती।
जो समझे उसके लिए खुदा है दोस्ती।
©-सारिका विजयवर्गीय "वीणा"
सिंदूर
***************
महज लाल रंग नही ये,
मेरे माथे का सिंदूर है।
बंधे दो तन-मन एक डोर से,
ऐसा यह दस्तूर है।
देख प्रेम प्रखर होता है,
माँग की लाल रेखा को।
नियति भी घुटने टेक देती है,
मिटा न पाती प्रेम की लेखा को।
शक्ति समाहित कितनी इस में,
तुम सावित्री को याद करो।
माँ-बहनों का शस्त्र है ये,
तुम इस पर न विवाद करो।
दो अनजाने राही बँध जाते,
ये अदृश्य सी डोर है।
कदम मिलाते जीवन पथ पर,
ये नव जीवन की भोर है।
उषा किरण
"स्वतंत्र लेखन"
मित्रता दिवस पर विशेष
"मित्र"
मित्र है हम
एक हैं हम
दूरियां नही है हममें
पास रहे या दूर हम।
अहम नही हैं हममे
उठायें जो भी हम कदम
कृष्ण सुदामा नही है
पर सच्चे मित्र है हम
सुनकर एक दूजे की
दिल की आवाज
दौड़ पड़ेंगे हम
मित्र है हम।
मित्रता की पहचान है हम
खून के रिश्ते नही पर
अटूट बंधन में है हम
दुनिया की परवाह नही
एक दूजे का सहारा हैं हम।
धन दौलत, जाति पाति
हमारे बीच में नही
जरूरत पड़े तो जान
भी दे देंगे हम
ऐसे मित्र है हम।
आओ इसे अमर बना ले
मित्रता की मिशाल बने हम।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
हे जीव!अपने स्वरुप से तुम साक्षात्कार करो
आत्म शुद्धि से स्वयं में
ईश्वर का दर्शन करो
एक ही मंजिल तक है सभी को जाना
इर्ष्या द्वेष घृणा से
अपने मन को मत मलिन करो
मानव जीवन है अनमोल जीवन
मिलता नहीं बारम्बार
इसका एहसास करो
दुनिया यह छलावा है
दो दिनों के बाद
उपर से आता बुलावा है
इस सत्य से तुम ना अनजान बनो
माया की नगरी है
अंधकार यहाँ गहरी है
ज्ञान की जोत से
मन को अपने प्रज्वलित करो
बाल्यावस्था का परिवर्तन है जीर्ण काया
अपने यौवन का ना अहंकार करो
आत्मा का है रुप परिवर्तन
इस परम सत्य को सहस्र
स्वीकार करो
हे जीव!अपने स्वरुप से तुम साक्षात्कार करो
स्वरचित पूर्णिमा साह पश्चिम बंगाल
''नि: स्वार्थ प्रेम"
मेरे प्रिय ने भले
नही किया याद मुझे
पर मैं कर रहा हूँ
अपनी दुआओं से
उसकी झोली भर रहा हूँ
मेरे खुदा मेरी उम्र भी
उसे लग जाये
मेरी दुआओं से
उसका गुलशन
मँहक जाये
मुझे मिलना था जो
वो मुझे मिल गया
थी सच्ची लगन
मेरा अध्यात्म खिल गया
और क्या चाहिये अब
जब मिल ही गया रब
इसमें उसी का हाथ है
सिर्फ निश्छल प्रेम
मेरा मेरे साथ है
कोई भले भूले ''शिवम"
पर न भूलो अपना करम
नि: स्वार्थ प्रेम
मानवता की शान है
इससे झुकता भगवान है
पर मानव आज इससे
बिल्कुल अन्जान है
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
इसके अंतर्गत मेरी एक और रचना --
नशा सावन का
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दिनकर की तपिश से
झुलसती धरा पर,
पड़ती जब सावन की फुहार,
समस्त जन-जीवन में
फिर होने लगता है
मान, मनौव्वल और मनुहार।
खिलखिला उठते हर ओर
वन-उपवन, वृक्ष-लताएं
पशु-पक्षी जंगल में मोर
घन आच्छादित नभ चहुंओर
चारों ओर चहल-पहल
जंगल में भी मचता शोर।
घने काले बादलों की फौज
देखता जब नभ में मोर
अपनी धुन में
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बाहरी दुनिया से बेखबर
अपनी दुनिया में जीती जाऊं,
बाहरी ठोकरों ने संभलना सीखा दिया यारों,
मस्त-मगन अपनी धुन में बढ़ती जाऊं।
सोच पर जरूरी नही कि
हमेशा हम खरे ही उतरे,
पर सोच मुताबिक जीने के अंदाज निराले यारों,
तंग गलियों से भी निकलती जाऊं।
मस्त-मगन अपनी धुन में बढ़ती जाऊं।
आंधी-तूफान के अनेक थपेड़े
तराश्ते गये हमें वक्त-वक्त पर,
जिंदगी में कुंदन सा चमक छिटकने लगे यारों,
अब पीछे देखना भूलती जाऊं।
मस्त-मगन अपनी धुन में बढ़ती जाऊं।
जिंदगी ने इतना तोड़ा-मरोड़ा
कि सीधा चलना मुश्किल हुआ
तो मैने भी टेढ़ चलना शुरू कर दिया है यारों,
अब सब छोड़ आगे बढ़ती जाऊं।
मस्त-मगन अपनी धुन में बढ़ती जाऊं।
जिंदगी के सफर में मिले हैं
ढेर सारे खट्टे-मीठे अनुभव
उनसे भी सबक हमको खुब मिल गया है यारों,
अब मंजिल की ओर चलती जाऊं।
मस्त-मगन अपनी धुन में बढ़ती जाऊं।
-रेणु रंजन
प्रेम-प्रीति का होता जोर,
मोरनी के मन जीतने को
रंग-बिरंगे पंख फैलाकर
नृत्य करता मगन हो मोर।
सावन का नशा अजब
छाता जब जन मानस में
होता फिर सजन-सजनी मनुहार,
मिलन की व्याकुलता में
विरह अग्नि सौतन-सी
पिया, निक लागे नही संसार।
---रेणु रंजन
दिनांक - 05/08/2018
"भावों के मोती"
रास्तों को देखे बगैर ही,
रे पथिक! किस ओर चले हो?
तुम इन अंधेरी रातों में,
तारों - सम कैसे खिले हो?
क्या बड़ी दूर से ही तुमने,
स्व मंजिल को देख लिया है?
क्या रजनी ने खुद आकर के,
इक सितारा भेंट किया है?
बोलो कैसे तम रातों में,
उजाला तुम्हें लगता है?
इन सोये सारे स्वप्नों में,
तेरा ही स्वप्न जगता है?
या अपने स्वप्नों में ही तुम,
स्वप्न सुंदरी से मिले हो?
तुम इन अंधेरी रातों में,
तारों - सम कैसे खिले हो?
खुशमय तेरा जीवन कैसे,
कैसे बहारे फूलों की?
जीवन के उपवन में तेरे,
कैसे मस्तियां झूलों की?
बीज ऐसा कहाँ से लाया,
तुरंत कैसे फल मिला है?
भाग्य तेरा चमका है कैसे,
भाग्य से न कोई गिला है?
किस्मत के सिलसिले से जुड़े,
तुम एक प्रबल सिलसिले हो?
तुम इन अंधेरी रातों में,
तारों - सम कैसे खिले हो?
✍परमार प्रकाश
सुबह लिखता हूं शाम लिखा करता हूँ।
मै हरेक हर्फ तेरे नाम लिखा करता हूँ।
एक शायर की हैसियत भला कया है।
बन के गजल सरे आम बिका करता हूँ।
लोग कहतै है क्या खूब कलम होगा।
अजब सर हूँ नाकाम झुका करता हूँ।
लोग कहते है सुकूं सुन के बडा आया।
मुफ़्त मरहम हूँ बे दाम बिका करता हूँ।
मै गुल नहीं के मौसम का इंतजार करुं।
सिर्फ पत्ता हूँ खूलेआम दिखा करता हूँ।
सिर्फ तेरा जिक्र है मेरे हरेक फसाने में।
मय तेरे नाम पे मै जाम बिका करता हूं।
विपिन सोहल
ये अमीरी की बड़प्पन तब छोटी नज़र आती है
ग़रीबी जब सड़क पर सोती नज़र आती है
भरे पेट से तो चांद खुबसूरत है महबूब की तरह
भूखी नज़रों से देखो तो रोटी नज़र आती है
तपती धूप में सर्द हवाओं से हैं
ये मेरे दोस्त जो दुआओं से हैं
संसद फिर बंद हुई, कार्रवाई के बग़ैर
नौजवान भटक रहे हैं,कमाई के बग़ैर
वो अस्पताल की चौखट पर गुहार लगाता रहा
जिसका बच्चा मर गया दवाई के बगैर
II कौन मेरे भीतर और मैं हूँ कौन…. II
मेरी आँखों की नींद चुरा कर…
है उनमें सपने सजाता कौन….
चुरा के लाली वो अरुण की….
मेरी आँखों को है देता कौन….
जब होता दिल कभी बोझिल….
झोँका हवा का है लाता कौन….
दर्द कभी जो उभरे कहीं भी….
धीमे धीमें उसे सहलाता कौन….
पथ मेरा पत्थर सा भी हो तो….
नरम मुलायम बनाता कौन….
कांटे राह में हों कितने भी….
मन खुशबू भर जाता कौन….
हंसी मेरी से जब बिखरें मोती….
हर कोई पूछे मुझसे है तू कौन….
हो उदास या ग़मगीन कोई भी….
चोट मेरे दिल पे है करता कौन….
मैं अनजान न जानूं अपने को….
बिन कहे मेरे मुझे चलाता कौन….
हर पल खोजूं उसको अपने संग….
कौन मेरे भीतर और मैं हूँ कौन….
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
यह कैसा रूचिर चित्र ?
यह कैसा निखिल रतन?
हे विधाता! कहाँ हो ?
अब वसुधा पे आ जाओ।
पल-पल आदमी की दुर्गति होती है
हर पल मानवता दुर्वह होती है
कोई दूध मलाई खाता है
कोई भूखा सोता है
जानें किसके किस्मत
तुम ने क्या क्या लिखा है?
कोई सुख का गीत गाता है
कोई दुख का उपाख्यान करता है
तेरी रचना कैसी रचना
क्यों आँसू तुम ने बनाया है?
आसमां में खग कूजन करते
वन में मृग विचरण करते
तृण तृण सूख में झूमते
हम क्रंदन निशि-वासर करते
सून ले मेरे मन की अर्त्तनाद
क्यों इतना विषाद दिया
क्यों अविराम दर्द दिया
व्याकुल तन रूह तड़प रही
धू-धू जिन्दगी जल रही ।
हे विधाता! कहाँ हो ?
अब वसुधा पर आ जाओ।
@शाको
स्वरचित
साहित्य अमी रस धार निःश्छल पटल पर उतारी हैं,
कल्पनाओं की क्यारी बन गई फुलवारी है।
बगिया मे खिलती कलियाँ एक दूसरे पे भारी है,
फूल-शूल समन्वय ये छटा कितनी प्यारी है।
तूली ने उर ऋचाएं कागज पे उतारी है
संवेदना क्षितिज कि अभिव्यंजना न्यारी है।
मैत्री शुचित समन्वय सोहार्द पूजारी है,
भावों भरी पूजा को शुभेच्छाऐं हमारी है।
आभासी युग फलक पर वांछाऐं सुचारी है,
मैत्री अमूर्त अर्चा अभिनंद हजारी है
*स्वरचित:-रागिनी शास्त्री*
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