Wednesday, August 22

"बालिका से वधू"22अगस्त 2018





कमसीन, सुन्दर, नाजुक, कोमल सी एक बालिका
निश्छल, सौम्य, शालीन, सुकुमारी सी एक बालिका 

छोड़कर कलम, किताब
और पाठशाला जैसा मंदिर 
पहनकर पैरों में पायल 
हाथों में कंगन 
ओढ़कर लाल चुनर 
शादी के मंडप पर 
चुपचाप बैठी है

पलकों पर आँसू की बूँदें
होंठो पे कपकपाहट है 
सुकुमारी के चेहरे पर 
कब से उदासी ठहरी है

माँ की ममता 
पिता की लाजवंती 
चुपके-चुपके सुकुमारी रो रही है 

चारो ओर रोदन स्वर
माँ का आँचल तर आँसूओं से 
चाची, फुआ का आँचल भी भींगा 
सखियों की आँखो से भी
अश्रु बह रहे हैं

कुमकुम, सिन्दूर थाल में 
पंडित का मंत्रोच्चार साथ में 
सुकुमारी की माँग में
सिन्दूर भरने 
उनके प्रियवर आतुर हैं 

छोड़कर बचपन का आँगन 
अपने पिया संग 
घर से बाहर निकली है 
जाकर कुछ दूर फिर लौट आयी है 
माँ की गोद में सिर रखकर रो रही है
सखियों से लिपटकर रो रही है 

एक तरफ 
विदाई 
जुदाई 
बिछोह है 

एक तरफ 
मिलन 
सुहाग
जीवन है

छोड़ बाबूल का घर 
सुकुमारी चली पिया का घर 

भोली सूरत, गुमसुम सी
शरम सी, यौवन सी 
छोड़ बचपन की गली
सुहागन चली पिया की गली 

कुछ दूर जाकर 
कुछ देर में
रखकर पिया के हाथों में हाथ 
मंद-मंद सुहागन मुस्क रही है

पाकर पहला स्पर्श पिया का 
अंदर अंदर महक गयी 
रोना-धोना बंद हुआ 
हँसी की हवा बही 
मिलाकर नजरें पिया से 
मंद-मंद सुकुमारी मुस्क रही है

घूँघट से आवाज आई 
पिया प्रीत हमारी पावन सी 
बनकर रहूँ सदा आपकी ही दासी मैं 
आपके घर-आँगन की तुलसी मैं 
बनकर कोयल कूकती रहूँ सदा आपके दिल के बागों में मैं 

आप मेरा श्याम 
राधा आपकी मैं 
जनम जनम तक 
करती रहूँ आपकी ही अर्चना मैं 

आप से जीवन है मेरा
आप ही श्रृंगार हैं मेरा
कर दे ह्रदय को जो शीतल 
वो मीठी वाणी 
आपके होंठो से निकले हरदम 

आप हैं तकदीर मेरी 
आप हैं पूजा मेरी 
आप से आपका प्यार
मिले हर पल मुझे 

ऐसा मेरा सौभाग्य हो 
जब भी मौत हो मेरी 
आपकी बाहों में ही हो 

इतनी सी इबादत है
सुख हो या दुख हो 
खुशी हो या गम हो 
पिया मेरे सिर पर 
आपका हाथ हो 

माँग में सिन्दूर 
माथे पे बिन्दिया 
सदा महकते, चमकते रहे
प्रेम का प्रवाह 
हमारे आँगन में सदा होता रहे 

पिया आप मेरा शाश्वत सुहाग 
आप ही मेरा ईश्वर विधान।
@शाको 
स्वरचित 
पटना
#भावों _के_मोती#





बालिका से वधु कहाये 

घर पिया का सजाये ।।

दो घरों का वो मान बढ़ाये 
धन्य स्त्री जन्म, पर उपेक्षा पाये ।।

कैसे हो भला समाज का
जहाँ न्याय एकतरफा जाये ।।

बालिकाओं को सम्मान दो 
वो सम्मान का पात्र कहाये ।।

उन बिन नही तरक्की परिवार
या समाज की ये क्यों भुलाये ।।

समझो उसके हृदय की पीढा़
बाबुल घर छोड़े ससुराल सताये ।।

क्या बीते उस पर ये दुख कोई
आत्मसात करके बतलाये ।।

कोमल हृदय समर्पण भावना
क्यों न बालिका पर तरस आये ।।

जागना होगा समाज को ''शिवम"
वरना संकट सर पर हैं मँडराये ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"




माँ- बाबा के बगिया की,
सुन्दर, नाजुक-सी कली हूँ मैं, 
समय के साथ खिलना है मुझको, 
यही नियति लिखवा लाई हूँ मैं !

पन्द्रह सावन मायके में बिताये,
सोलहवां सावन गजब ये ढाये, 
विवाह के मेरी सौगात ले आये, 
बालिका से वधु मुझे बनाये! 

अब माथे पे मेरे सजती बिंदिया,
और होंठों पर सजती लाली, 
सिर पर घूँघट, पैरो में पायल,
मैं बालिका से बनी वधु प्यारी! 

ब्याकर जब ससुराल पहुँची, 
रिश्तों को नया आयाम मिला, 
माँ अब सासू-माँ बन गई, 
बाबा बन गये हैं ससुर! 

देवर में भाई की छवि निहारूँ,
बहन बन गई ननद प्यारी, 
मेरे तो दो घर बन गये, 
बढ गई और जिम्मेदारी,

मायके की जब याद सताये, 
पिया जी खूब दोस्ती निभाये,
बाजार वो घुमाकर लें आयें, 
कभी-कभी सिनेमा भी दिखायें! 

धीरे-धीरे समय ऐसे बीता, 
मान-सम्मान व्यवहार से जीता, 
दोनों घरों की रखूँगी लाज, 
ये वादा खुद से करती हूँ आज! 

मन से निभाती हूँ सब रिश्ते, 
निभाती हूँ सब जिम्मेदारी, 
बालिका से वधु बनकर, 
आ गई बहुत समझदारी! 

स्वरचित -*संगीता कुकरेती*



तारो की छाँव में 
देवों का आशिश था
धरती पर यज्ञ-हवन का
आयोज्य था

सितारों जड़ी चुनर ओड़े
सप्तपदी की भाँवर मे
रात के अंतिम पहर में
बालिका वधु बन गई

अल्हड़ता की पराकाष्ठा
कदमों को स्थिर न रहने देती
चपल -चंचल तुतलाती मधुरता थी बोली में

खिड़की,दरवाजे,छत-आँगन
घर का कोना -कोना और झरोखा
सब ही तो उसका अपना था

इस कोने से उस कोने तक
बहती हवाओं में उसकी 
बिखरी यादों का स्पंदन है

एक रात बस एक रात में
सब पराया हो गया
अल्हड़ नटखट बाना
वधु के जोड़े में बदल गया

पार कर देहरी घर की बेटी
महावर में लिपट ससुराल की दहलीज आ गई
कुंकुम अक्षत दान कर
बहु बन ससुराल आ गई

दबे कदम, नत नयन ,सर पर चुनर ओढ़ कर ,

सोलह श्रृंगार में सजधज कर नव वधु आ गई ।

डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित


)विषयःबालिका से वधू ःविधाःकविताः
बाबुल के घर उछल कूद करती मै।
घर आंगन बहुत फुदकती रहती मै।

सखी सहेलियों संग बचपन बीता,
अब बाहर ही जाने से क्यों डरती मै।

कली खिली थी कभी जिस उपवन में
आज पुष्प रूप मे विकसित हो गई।
ये पता नहीं चला तनिक भी मुझको,
कब क्यों वय षोडषी सुकुमारी हो गई।

मात पिता को अब सताने लगी चिंता 
हो गई मै अब व्याह करन के लायक।
बिटिया के लिए वर घर द्वार देख रहे,
सोचें यह पहुंचे किसी घर सुखदायक।

खुशी खुशी मेरा व्याह कर दिया एकदिन,
कभी बालिका थी आज वधू बन आई।
अपने जनक मायका छोड छाडकर,
जो थी बालिका ससुराल वधू बन आई।

डोली में बैठी सबके आँसू बह रहे थे।
सखी सहेलियों केभी निर्झर बह रहे थे।
बाबुल का घर छोड पिया घर आई मै,
कुछ सुखद दुखद ये अश्रु कह रहे थे।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.



मासूम कोमल सौम्य बाला
अल्हड़ सा सुन्दर जीवन 
नव ज्योती थी नई उमंगे 
पुष्प कलि थी खिलने को तैय्यार 

खिलता तन प्रस्फुटित मन
शरमाते हुए आया यौवन 
सपनों में था राजकुमार 
सफेद घोड़े पर सवार
संग अपने ले जायेगा एक दिन 

आया वह सपनों का दिन
वधू के रुप में सज रही थी
लाल जोड़े में कर सोलह श्रृंगार 
राजकुमार का था इंतजार 

देखा सपनों का राजकुमार 
आकर पहुँचा उसके द्वार 
घबराई सी शरमाई थी
आँखों में थे सपने हजार

चाँद तारों की सजी थी बारात
परिवर्तन की थी वह रात
अग्नि को साक्षी मानकर 
संग लिए थे फेरे सात

राजकुमार संग बंध गई राजकुमारी 
छोड़ बाबुल का अंगना 
चली पिया के द्वार 
मन में लिये आशाओं का फूहार

स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला

विषय बालिका से वधु 
22अगस्त 2018
सफर लम्बा है बालिका से वधु तक का 
धैर्य से पढ़ेसादर 
घर मे छाई खुशियाँ भारी, 
गूंजने वाली थी किलकारी, 
माहौल हर्ष से भरा हुआथा
सभी मे था उल्लास भारी l

भीतर से आवाज आयी, 
नन्ही कली है मुस्काई, 
ख़ुशी मनाओ अम्मा तुम, 
नन्ही लक्ष्मी घर मे आयी l

शनै शनैः वो बड़ी हो रही, 
गुड़िओ मे वो मस्त हो रही, 
बाल क्रीड़ाये करने ला गी, 
मैया उसकी चूमन लागी l

बढ़ने लगी जैसे चाँद सी, 
शादी की अब उम्र हो गयी
विवाह लग्न कीबात हो गयी
मेहँदी दोनों हाथ सज गयी l

कभी रोये कभी मुस्काऊ, 
अपनी व्यथा किसे सुनाऊ, 
आज माँ से बिछड़ना होगा 
पिया केघर अब जाना होगा l

पापा घुट घुट रोते है, 
नहीं किसी से कहते है, 
पर रीतजग की यही रही है, 
बिटिया घर मे नहीं रही है l

सज सवंर दुल्हन बनी, 
केले पत्र की बेदी बनी,
सात फेरे लिए है आज, 
बालिका बनी वधु आज l

मेरी विदाई का है मंजर, 
खुशियों का है अश्रु समंदर, 
एक तरफ खुशी माँ की, 
दूसरी था बिछड़ने का गम l

डोली चढ़ कर पिया घरआयी 
संग माँ के संस्कार लायी, 
सासु मेरी बिलकुलमाँ जैसी, 
ससुर मे पिता छवि पायी l

ननद मिली है बहन जैसी, 
देवर मे मिल गया भाई, 
पिया मेरे मे राम बसते,
सीता मै बन कर आयी l

पिया आप ही हो सुहाग मेरे, 
आप के बिना मै नहीं कुछ भी,
चूड़ी, बिंदी सिंदूर मेरे,
आपसे ही श्रृंगार मेरा l 

तेरे आंगन की तुलसी हूं 
बस तेरी ही छाँव पाउँ
तुझको दिल मे बिठाकर 
तेरी पलकों मे बस जाऊ 

थोड़ा सा संसार अलग है, 
संस्कारो का मा न बहुत है 
सबको दूंगी प्यार दुलार, 
बसाउंगी अपना घर संसारl
कुसुम पंत 
स्वरचित



" बालिका से वधु"
गुड्डा -गुड्डी का ब्याह रचाती मेरी गुड़ियारानी,
ना मानती थी कहना करती थी मनमानी,
वक्त बितते न लगी देर हो गई आज सयानी,
पिया के घर की शोभा बनी मेरी लाड़ो रानी,
समझाने पर जो आक्रोश दिखाती करती नादानी,
हर मुश्किल में रोती वो और आँखों मे लाती पानी,
अपनी जिद के आगे किसी की ना उसने मानी,
छोड़ बचपन रखा कदम यौवन की दहलीज पर,
बनकर वधु बेटी हो गई मेरी पराई,
करना आदर सत्कार सभी का यही बात सिखाई,
अपनाकर आज वो सहनशीलता,
निर्णय अपने वो खुद लेती है,
दोनों घरों की लाज वो रखती,
बेटी और वधु का फर्ज निभाती,
बालिका से वधु बनने का समय,
रहा बहुत ही सुखमय तेरा,
है दुआ यही सबकी,
स्वर्णिम किरणें लेकर आए नया सवेरा।

स्वरचित-रेखा रविदत्त
22/8/18
बुधवार




निच
ोड़ लिया मुझसे मधु
बालिका से बना वधू
मेरी आॅख भी थी अलसाई 
मैं ले न सकी पूरी अंगड़ाई 
वह कलम भी नहीं थी शर्माई
जिसने तकदीर में स्याही मेरे बिख़राई
और लिख दिया मुझको पराई
लो हो गई मेरी विदाई। 

खिलौने छूटे सहेलियां छूटीं बाबुल छूटा
बालिका होने का वो सुनहरा पन्ना रुठा
अल्प समय में ही जग मुझे लगा झूठा
जब वैधव्य को प्राप्त हुई और मेरा दाम्पत्य टूटा। 

मैं हर ज़गह अनजान हुई
मेरी ज़िन्दगी वीरान हुई
मैं अभागिन की पहचान हुई 
और जीते जी निष्प्राण हुई। 

लम्बी उम्र और वैधव्य रुप
पूरा जीवन जलती धूप
ईश्वर बना देता चाहे मुझे कुरुप
पर नहीं देता यह अन्धा कूप।

इस पुरुष प्रधान जग में 
इस पुरुष के दोनों दृग में 
क्या नारी के लिए जागेगा कोई मान
जिसकी नारी को भी होगी पहचान।

यह जीवन तो सबके ही लिए नश्वर 
पर बसना चाहिए विधवा का भी अवश्य घर
आदमी तो हो जाता अपने लिए तत्पर 
लेकिन नारी के लिए क्यों जाता डर।


बचपन में सपनों का घर 
गुड़िया में जीती अपना कल 
साथ चलते यादों के पल 
बालिका से वधू का सफर... 

लाखों की वो माँ की सीख 
गठरी बाँधी बाबुल प्रीत 
चल दी अपने मीत के घर 
बालिका से वधू का सफर....

उम्र का नया गृह प्रवेश 
ना जाने वो कौनसा देश 
विदा हुई विश्वास के संग 
बालिका से वधू का सफर...

सिमटे सब बचपन के रंग 
जिम्मेदारियों को लेकर संग 
निकली है अनजान डगर 
बालिका से वधू का सफर 

सिंदूर खिलता माथे पर 
सपनों की मंज़िल पिया का दर 
मेहँदी हँसती उसके कर 
बालिका से वधू का सफर...

ऋतुराज दवे







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