दर्द हजारों दिल में और दर्द न भर देना ।।
बोलो या न बोलो कोई गम नही मगर
''शिवम्" आना जाना बन्द न कर देना ।।
हकीकत नही तो ख्वाबों में
मेरी जिन्दगी की किताबों में ।।
हर एक पन्ना तुम्ही से है
यूँ बसीं हो मन के भावों में ।।
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
उत्कंठा वहीं जो सभी के काम आऐ आऐ।
आजीविका कमाता सिर्फ़ परिवार के लिए,
जिजीविषा वही जो मेरे वतन के काम आऐ।
केवल जीवन जीना ही उद्देश्य नहीं मेरा।
सिर्फ जीना मरना ही ये लक्ष्य नहीं मेरा।
जिंंन्दगी जिऊँ तो कुछ सदभाव से जिऊँ,
कभी कोई वैरभाव और दुर्लक्ष्य नहीं मेरा।
जिंंन्दगी की हर तमन्ना मेरी पूरी कराओगे।
क्या सदभावनाऐ शुभकामनाऐं कराओगे।
इससे ज्यादा क्या चाहता तुमसे हे भगवन,
पता है सभी तमन्नाऐं निश्चित पूरी कराओगे।
जीने की लालसा सभी के मन में भरी होती।
हर जीव में ही जीने की उत्कंठा भरी होती।
मायावी दुनिया में घुटता ही रहता है प्राणी,
फिर भी उसकी जिजीविषा सदा हरी होती।
स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना, गुना, म.प्र.
तु सर्वज्ञ
हूँ आस्तिक
रहूँ कृतज्ञ
हे सूत्रधार
हैं जिज्ञासा
जीवन का
नही मुमूर्षा
जगा दो जिजीविषा
जीना दुष्कर
फिर भी जिजीविषा
चाहूँ लक्ष्य-भेद
मैं रागी
नही विरागी
तु ईश्वर
अनुनय तुमसे
जगा दो जिजीविषा
तु उदार
अनाथो के नाथ।
स्वरचित -आरती श्रीवास्तव।
दिन बुधवार
विषय जिजीविषा
रचयिता पूनम गोयल
जिजीविषा नहीं मेरी
कि मैं दीर्घायु रहूँ !
परन्तु इतना अवश्य है ,
कि जब तक जीऊँ , स्वस्थ जीऊँ !!
नहीं ऊँचे-ऊँचे स्वप्न मेरे ,
नहीं कोई विशेष अभिलाषा !
परस्पर स्नेह का वातावरण हो ,
बस इतनी छोटी-सी , मेरी आशा !!
कभी थी , मेरी भी जिजीविषा ,
चाहा था कि आयु लम्बी बिताऊँ मैं !
परन्तु समझा जबसे , स्वास्थ्य का महत्व ,
तो इसी को मूल-मन्त्र बनाऊँ मैं !!
कैसी है ये मृग तृष्णा,
सृष्टि को तू मिटा रहा,
हरियाली तू खा रहा l
हे मानव....
स्त्री व सृष्टि दोनों है नारी,
चला दी तूने दोनों पर आरी,
बन जा अब तू बन माली,
कर दोनों की तू रखवाली l
हे मानव...
ज़ब नहीं रहेंगी दोनों ही,
सोच जरा हे जाहिल प्राणी ,
कौन जन्म देगा नवअंकुर,
चाहे मानव हो या अन्य प्राणी l
हे मानव कैसी है.......
कुसुम पंत
स्वरचित
नवजात शिशु से ले कर...
दुनिया से प्रयाण करने के समय तक....
और फिर जन्म जन्म तक...
साथ रहती हो....
हर जीव की हर सांस में तुम...
बेशक वो मर रहा हो...
नृत्य करती हो....
उमंग पैदा करती हो...
लालसा पैदा करती हो...
जीने की....
जिजीविषा...तुम नहीं मरती हो....
त्याग की प्रतिमूर्तियों....
संतो में तुम....
योगी की चेतना अवचेतना...
मूलाधार से सहस्त्रार की यात्रा में...
तुम ही तुम...
कहाँ है तुम बिन कुछ भी...
जिजीविषा....
हर फूल पत्ती में हो तुम...
हर गंध में हो तुम...
सड़े हुए फल फूल जीव....
और....
राख में भी हो तुम...
कण कण में हो तुम....
हे जिजीविषा....
कहाँ नहीं हो तुम...
II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
जिजीविषा सपनों को देती बहुआयाम
दुःखों में भी सपने दिखाती हजार
अपाहिजों को भी चलना सिखलाती
देती अपने हाथों को थाम
चंचलता की सहेली बनती
मस्त मगन हो झूमती रंगीन शाम
हवाई किला भी बनवाती
जीने के हैं इनसे
अपने अपने अंदाज़
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
ढूँढ रही हूँ कहीं उसे मन के आशियाने में.
हर पल इंतजार हैं मुझे इसका
ह्रदय के तहखाने में .
गीत गजल गाती हूँ जिजीविषा के हर दिन
कभी तो मिलेगी मुझे जिजीविषा एक दिन .
मैंने ख्वाब देखे हैं जिजीविषा भरे मन के दर्पण में
कभी तो पूरे होंगे दिल के अंतर्मन में.
नैनों में ख्वाब सजाये हैं जिसके
लौट कर एक वापस तो आएंगे .
स्वरचित:- रीता बिष्ट
जिजीविषा प्रबल हर पल हो
निःस्वार्थ भाव,कर्म आतुर हो
विश्वास कहीं न कमतर हो
सेवार्थ,धर्मार्थ सदा तत्तपर हो।
प्रबल वेग उमड़ती आंधी हो
दुःख ताप लिए कितनी भी हो
पराक्रम लिए 'अंगद' सा डटना
मर्त्य देह हेतु स्नेह न रखना।
ता उम्र जिजीविषा से न मुखरना
नश्वर देह में इच्छाएं प्रबल रखना
अपंग,मूर्त-अमूर्त पर दृष्टि डाल
जिजीविषा को 'गंगामय करना।
हिय ऋतु वसंत या पतझड़ हो
जिजीविषा समभाव बरकरार हो
परस्पर सहायतार्थ 'वंशी'रहना
मानव रूप में सदा प्रसन्न रहना।
धनलोलुपता का परित्याग कर
अद्वेत रूप अपनाकर,अपंक बन
उच्चाकांशा तरु,मेघ से सीख
जिजीविषा का तू अवलोकन कर।
वीणा शर्मा
स्वरचित
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