Wednesday, August 1

"व्यथा"31जुलाई 2018

'


माँ  भारती  को  समर्पित
31जुलाई  2018
कल  रात  मैने  सपना  देखा,
सपने  मे  मैने  अपना  देखा,
सोच  रही  थी  कौन  है  वो,
तभी  पास  मेरे  आ  गयी  वो

पूछा  मैने  कौन  हो  आप,
बोली  तेरी  हूं  भारत  माँ,
फटी  साडी  और  बिन  श्रृंगार,
थी  वो  मेरी  भारत माँ l

पूछा  मैने माँ  क्या  है  व्यथा?
जो  है  जर  जर  तेरी  अवस्था,
रुंधे  कंठ  से  बोला  उसने,
सीना  चीर  दिया  अपनों नेl

दुश्मन  क्या  मारेगा  उसको,
उसको  बेटो  ने  मारा  है,
बेटे  सीना  चीर रहे  है,
लहूलुहान कर  डाला  है

खड़ी  रही मै आहत मन  से,
अश्रु  धारा  मे  डूबी  रही,
बोला  मैने रुदन नहीं माँ,
अब  बेटी  करेगी  तेरी  रक्षा  माँ l

तेरे  लिए  मै  लक्ष्मी बनु
बन्दुक  अब  उठाउंगी,
घर  का  शत्रु  हो  या  बाहर का,
सबको धूल  चटाउँगी l
कुसुम  पंत
स्वरचित

सबकी अपनी राम कहानी
सबकी ही व्यथा न्यारी है ।।

सूझबूझ से काम लिया जो
भई उसकी दुनिया सारी है ।।

जीत उसी को मिली यहाँ पर
जिसने न हिम्मत हारी है ।।

व्यथा कहे जो व्यथित रहे वो
आँसू संग दो दिन की यारी है ।।

तीजे दिन न कोई साथी
परखी ये दुनियादारी है ।।

एक विधाता ही है सबका
जो करता सबकी रखवारी है ।।

उसने ही सबकी नैया की
यहाँ बागडोर  सँवारी है ।।

''शिवम्"उसी को सौंप दे सारी
जो कुछ भी तेरी लाचारी है ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"

Vina Jha    

व्यथा मेरे मन की।
     किसीसे कहा ना जय।
बिन कहे कैसे रहूँ।
     ये दर्द सहा ना जाय।
किसीसे कहूँगी।
       उड़ाएंगे परिहास।
मैं बनूँगी हँसी का पात्र।
मन हीं मन सहती हूँ व्यथा
         इसी तरह चुप रहती हूँ सदा।।
स्वरचित
बोकारो स्टील सिटी

जिन्दा कर दे जो लाश को
शक्ति न वह किसी पाक् कफन में,
जो ढ़क दे तन किसी गरीब का
वह लंबाई नहीं किसी वसन में।

किस कारण धरती
हलचल करती है ?
गिरे सूखे टूटे पत्ते पेड़ से
ढूँढ़े मेरी रचना उसकी खता
कैसे सूखी धरती बनती है धूल
और धूल से कैसे महकती है
मेरी रचना,
ढूँढ़े मेरी रचना, धरती की व्यथा।

रोती, बिलखती, सिसकती मेरी रचना
गगन में उड़ते धुँओं की कल्पना में,
चुपके से मेरी रचना अश्रु टपकाती  वीरानो में,
मूर्छित पड़ी है मेरी रचना वीरान खँडहर में।

रो उठती थी हवा प्रांगण में
जिस दिन रचना का अक्षर
कोरे कागज पर मैं,
हरी स्याही से लिखता था
दर्द अपना नहीं
जग की व्यथा लिखता था।

जब पतवार लहरों से खेलता था
तरंगो के उफनते समुन्दर में,
तब तूफाँ ज्ञात कराता था मांझी को रेगिस्तां।

अब पतवार चलायें कैसे रेगिस्तानी रेत पर
छोड़ो रेगिस्तां को समुन्दर की लहरें को संभालो ,
मांझी का दिल कहता है
लड़कर तूफानो से कश्ती को लाना है साहिल में, 
मांझी अपनी व्यथा किसे बताए
डूबी है उसकी कल्पना भँवर में ।

आया है बहुत दूर से जीवन के नगर में
चौखट,घर,गाँव,पगडंडी छोड़कर,
पर यहाँ वक्त हर वक्त परीक्षा लेता है
यह कठिन वक्त है मेरे जीवन का,
कैसे वक्त की चाल रोकें?
कैसे योगी नहीं विजयी बनें ?
कैसे अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करें ?
जीना है तो मरने से कैसे डरे?
मेरी रचना मेरे जीवन की व्यथा कैसे कहे?
@शाको
स्वरचित

दिल मेरा टूटा है,तु जबसे रूठा है,
होता नही एहतराम,

गैरों से उनकी व्यथा सुनने वाले,
हो इस तरफ भी करम,

तू ही बता दे तेरे बिना हम,
घुट-घुट के कैसे जियें,
पल-पल इन आंखों से बहते जो आँसू,
इनको भला क्यों पियें,
सावन की ऋतु भीगी मन को जलाये,
कैसे भला हम जियें,

तुमको मिली जो मुहब्बत में मंजिल,
हमको भी दे अब मुकाम....

गैरों से उनकी व्यथा सुनने वाले,
कर इस तरफ भी करम.....

मैंने तुझे प्यार जितना किया है,
उतना कोई क्या करे,
बन कर पतिंगा लव में तुम्हारे,
हम खुद ही जल लिए,

हमसे है मुमकिन वफ़ा का खजाना,
हमसे है शान-ए-जहाँ...
हम न रहेंगे तो फिर तुम हमें,
ढूंढोगे बोलो कहाँ....

मेरे लिये तुम तड़प कर रहोगे,
सारे सुबह सारे साम.....

गैरों से उनकी व्यथा सुनने वाले,
कर इस तरफ भी करम.....

दिल को हमारे खिलौना समझकर,
उसको दिया तुमने तोड़,
अनजाने राहों में मुझको अकेला,
तुमने दिया आज छोड़,

जैसे तड़पता विरह में 'राकेश',
तुमभी जलो मेरी जान....

गैरों से उनकी व्यथा सुनने वाले,
कर इस तरफ भी करम.....

दिल मेरा टूटा है,तु जबसे रूठा है,
होता नही एहतराम,

गैरों से उनकी व्यथा सुनने वाले,
हो इस तरफ भी करम,

.....राकेश



मासूम अपनी व्यथा किसको सुनाये  ,
मन की पीड़ा वह किसको कह पाए l
हर तरफ  है आदमखोर  यहाँ पर,
घर बाहर हर जगह  पर रावण पाए ll
     भेड़ियो से डर कर आये थे हम शरण तुम्हारे ,
     और तुम नंगा हुए शर्म हया के खाखी उतारे l
      तुम्हारी  हवस  जगी  और हैवान  हुए तुम ,
      गिद्धों सम नोच डाले तुमने कोमल अंग हमारे ll
मैं चीखती  और चिल्लाती रही  ,
हर शख्स  को दुखड़ा सुनाती रही  l
पर तुम्हारे रसूख  का जलवा  ,
हर शख्स का मुँह  बंद  कराती रही ll
      बेबस  हुयी मैं थकी  और हारी ,
      अभिसप्त  हुयी बनी  दुखियारी  l
      लाश  बन कर जीती  रही मैं ,
      और तुम हदे  पार करते रहे सारी ll
आखिर  तुम्हारे पाप का घड़ा  भर गया ,
और मेरा सब्र  भी यही पर ठहर  गया l
हिम्मत भर साहस  बटोर कर मैं जगी ,
फिर से लाशो  में नया प्राण  भर गया ll
      मेरे एक हुंकार  से तेरा चेहरा  बिगड़  गया है ,
      तुम्हारे खाखी का सब सपना बिखर  गया है l
      खाखी के बेशर्मी का हद  तो देखो नेता जी ,
      जेल जाते हुए चेहरे पर मुस्कान निखर गया है ll
कुछ बेशर्म  खाखी तुझे  बचाने में लगे हैं ,
कुछ मजबूरी में दुःख जताने  में लगे है l
पर मुझे मालूम  है खाखी की हर फितरत  ,
नफा नुकसान देख दोस्ती दुश्मनी निभाने लगे है ll
              स्वरचित  ©BP YADAV


व्यथित जीवन हर कहीं
क्यो न सभी,
व्यथा में भी मुस्कान,खुशियाँ ढूंढ लें
मुरझाए फूलों में भी,
उसकी अहमियत देख लें।
चलो सँग मेरे,
हर कदम,हर पहलू पर
व्यथा को कहीं झाड़ आएं।
गहन अंधकार में भी
चाँद सा कर्म करना सीख लें
खुद गहन व्यथा में रह कर भी
सभी को चाँदनी दे दें।
चाँदनी सभी को देकर
प्रसन्नता से खिले चेहरों में
स्वयं की मुस्कान देख लें
व्यथित जीवन की चादर हटा
चाँदनी को ओढ़ लें।

वीणा शर्मा
अपनी व्यथा कैसे वयान करेंहम
वो रूझान ही नहीं जीवन रस में
वो रास्ते पर चलने वाला समाज
भी नहीं है सही रास्ते पर चलने को
अपनी व्यथा कैसे वयान करें हम
व्यथित है मन व्यथित है जन
सुरखियों में बेईमानी छाई है
रास्ते पथरीले बना दिये गये
अगर कुछ बदला है तो झूठे
सपने झूठे बादे झूठी कहानी
अपनी व्यथा कैसे वयान करें हम

स्वरचित एस डी शर्मा

आह मन की व्यथा, एक सघन पीर है,
दर्द का व्याकरण नैन का नीर है।
वेदना व्यक्त होती सतत् आह में
पाँव कंटक चुभे ज्यों कहीँ राह में
आह दुःसह नियति का चला तीर है
आह पीड़ित व्यथित द्रोपदी चीर है
आह मन की व्यथा एक सघन पीर है
दर्द का व्याकरण नैन का नीर है।
वाह चहका हुआ सा चकित चाव है,
एक लहर सा खुशी का मृदुल भाव है
वाह जादू जगाता जगत राग है
वाह बहका हुआ सा मगन फाग है
आह और वाह दोनों जरूरी यहाँ,
गर बदलनी यहाँ अपनी तकदीर है।
आह मन की व्यथा एक सघन पीर है,
दर्द का व्याकरण नैन का नीर है।

अनुराग दीक्षित
1*भा,31/7/2018(मंगलवार)विषयःः व्यथा
कष्ट हरें श्री हनुमान यही सब लोग बताते हैं।
इसीलिये हनुमान को अपनी व्यथा सुनाते हैं।
विश्वास किस पर करें कुछ समझ में नहीं आता,
इसीलिये श्रीरामभक्त को हम कथा सुनाते हैं।

तुम्हें बताऐं वेदनाऐं तुम उपहास उडाओगे।
कुछ खट्टीमीठी जोडकर परिहास कराओगे।
जिंंन्दगी में कोई किसी का साथ कहाँ देता,
हम सुनाऐं कुछ तुम नकली खास बताओगे।

अब व्यथाऐं मेरी मुझे हनुमत को कहना है।
हनुमत हैं मातपिता मेरे और भाई बहना हैं।
यही इष्टदेव तो फिर किसी की क्या क्षमता,
अब ये हनुमान हाथ हमें सदा साथ गहना है।

व्यथाओं से हमें स्वयं ही निबटना होगा।           
पीडाओं से जैसे चाहें निपटना ही होगा।
कष्ट, पीडा कोई कभी बांट नहीं सकता,
संघर्षरत रहकर इनसे सुलटना ही होगा।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.


 🌏धरा की व्यथा🌏
धरा पर असंतुलन है अभी
कोशिशें बेकार हुईं हैं सभी
कोई दो जून रोटी को तरसता कहीं
तो गौदामों में अनाज सड़ता कहीं
कहीं पानी बहता सड़कों पर तो
दो बूंद पानी के लिए संघर्ष कहीं
धर्म संस्कृति का गुणगान कहीं
धर्मों की धज्जियाँ उड़ाते लोग कहीं
इतना ही नहीं
हद तो ये है
नहीं मिलता इंसान की शक्ल में
पूर्ण इंसान कहीं
पृकृति प्रेम जताते हैं लोग
निज स्वार्थ ने इसे भी नहीं बक्शा कभी
क्या होगा जब धरा मांगेगी हिसाब
फिर कैसे पूरे होंगे वो ख्वाब
जो देखे हमने अपने बच्चों के सुनहरे
भविष्य की अभिलाषा में कभी
जन्म से मृत्यु तक अनगिनत
अभिलाषाऐं
दो जून की रोटी से चाँद और तारों को
छूने की अभिलाषा
मगर नहीं है तो सिर्फ
इस धरा के लिए एक छोटी सी
अभिलाषा..
जो बदल दे ज़िन्दगी की परिभाषा
स्वरचित   -मनोज नन्दवाना

मन की व्यथा बड़ी ही विरल  हैं
कभी कुछ मुश्किल तो कुछ सरल  हैं .

सबकी की व्यथा एक दूसरे  से जुदा
कोई किसी पर फ़िदा  कोई किसी पर फ़िदा .

व्यथा किसी को बताई ना जाये
अपनी कथा हर किसी को कही ना जाये .

इसलिए हर इन्सान इस उधेड़बुन में जी रहा हैं
बस हर दिन जिंदगी की एक नई व्यथा सह रहा हैं .
स्वरचित:-  रीता बिष्ट
आज के शीर्षक " व्यथा " पर देखिये एक " गर्भिणी" की दुखद व्यथा ---         
 "गर्भिणी"                                                                                         
 वो तिल तिल, तन मन से हार दौङती,
गर्भिणी! चिंतातुर सी, बढता उदर लिये!
झेलती चुभते शूल भरे अपनों के ताने,
भोर प्रथम पहर उठती ढेरों फिकर लिये!!

एक बच्चा हाथ संभाले,एक कांख दबाये
कुदकती यूं अपनो की चिंता को लिये!
तरा उपर तीसरे पर रखती पूरी आंख,
जो चिंघता पीछे साङी का पल्लू लिये!
झिल्ली लिपटे मांस लोथङे की चेतना,
उदर को दुलारती सैकङो आशीषें दिये!!

दिन ब दिन फैली हुयी परिधि में संवरती,
विरूप गौलाई में क्षितिज का सूरज लिये!
नये जीवन को स्वयं रक्त से निर्माण करती,
फूले पेट की चौकसी में नींदे कुर्बान किये!
धमनियों शिराओं से जीवन रस पिलाती,
नवांग्तुक के लिये संस्कारों का लहू लिये!!

फुर्सत क्षणों मे ख्यालों के धागे को बुनती,
थकन से उनींदी सूजी आंखे हाथ लिये!
हदयस्पन्दन, ब्रह्माड से आकार को बढाती,
संशय के मकङजालों की जकङन लिये!
तीनों आत्माजाओं  के मासूम चेहरे देखती,
कहां जायेगी?गर फिर बेटी हुई,उसको लिये!!

--डा. निशा माथुर

"व्यथा"
मेरे मन में है एक व्यथा
किसे सुनाऊँ मैं अपनी कथा
मैं सुनु दुसरो की व्यथा
हँसी मे उड़ा दे वे मेरी व्यथा।

पर व्यथा सुनाना भी तो जरूरी है
वरना बढ़ जायेगी कुंठा
पर यह तो है शान के खिलाफ
हर किसी को सुनाऊँ मैं अपनी व्यथा

कृतज्ञ हूँ मैं उस ईश्वर का
जिसनें यह श्रृष्टि रचाई
और सभी जीवों में सिर्फ
उसनें मानव को है बुद्धिजीवि बनाई।

मैं बुद्धिजीवि हूँ ,यह सोच कर मैं सकुचाई
कह न सकी मैं अपनी व्यथा
चाहे सगा हो या पराई
बुद्धिजीवि हूँ मैं बस इसी मे मैं इतराई।
     स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।

मेरे मन की व्यथा कि कुछ साधारण सी पंक्तियां---
 किस-किस को दूर करें
कोई किसी से ना कहे
 मनके कहे सब सहे
इसी में धैर्य है अनुशासन है
राह की पीर है दुख की नीर है
सहारे सहारे चलते रहे
जीवन सुख का सागर है
 व्यथा इसका नीर है


सबकी बस एक ही कथा
सबने ही बस यही रटा
व्यथा व्यथा और व्यथा
यही बन गई अब प्रथा।

वो जो रहता पूरी सम्पदा सहित
वह भी देखता रहता अपना हित
वह भी नहीं है व्यथा रहित
दुखों को ही देख रोता नित।

 कड़वा है तो मीठा भी है
भरा है यदि तो रीता भी है
शूल हैं तो फूल भी हैं
यादों में  छिपी भूल भी हैं।

व्यथा को नेपथ्य में  रखो
सत्य को सत्य में  रखो
यदि भूख का डर है तो
कोई भी ना व्रत रखो।

जिंदगी एक सफर है सुहाना
दस्तुरे जिंगदी है आना जाना
ना कुछ साथ लाये थे
ना साथ लेकर है जाना ।

घमंड की बात क्यों करते हो
ऐ दोस्त , ये घमंड भी तुम्हारा,
यही है चूर चूर हो जाना
ये भी ना साथ है तुम्हारे जाना ।

सुख दुख हँसना रोना
जिंदगी के ये ही दो हमसफ़र है
कोशिश कर बस एक यही
हर व्यथा में है तुझको मुस्कुराना ।

दुनिया आती जाती माया है
ना कोई अपना है ना कोई पराया
ईश्वर के हाथ में तेरे कर्मो का है पैमाना
ये दुनिया क्या है ? बस एक मैखाना ।

सुनाओ अपने मन की व्यथा
साक्षात् होकर आईने को
क्योकि फितरत लोगो की
रोकर पूछना और हंस कर उड़ाना है ।

किससे जाकर कहूँ मैं,व्यथा अपने मन की,
शब्दों की चोट भरें नहीं, भर जाए तन की,

दूसरे से करूँ क्या मैं उम्मीद, जो जाए मुझे जान,
वो ही ना समझे किया जिन्होंने स्तनपान,

मेरी व्यथा मेरे मन में ही रह जाएगी दबकर,
किमत जब जानोगे , रह जाऊँगी जब यादें बनकर,

समझूँ मै तेरे मन की ,नैनों को तेरे पढ़ कर,
समझा दे हल कोई, व्यथा मेरी समझकर।

स्वरचित-रेखा रविदत्त


छवि ।









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