Thursday, August 30

"इंसानियत"30अगस्त 2018




गीता और कुरान को चुप रहते देखा है
हिंदू और मुस्लिम को झगड़ते देखा है


कैसे कह दूं इंसानियत अभी बाकी है
इंसानों को ही इसका पतन करते देखा है

अभी बिक रहे थे झण्डे यहां बहुत मंहगे
फिर अब उन्हें मिट्टी में मिलते देखा है

उठ गया विश्वास मेरा अब इस दुनिया से
जहां मां को बच्चों का सौदा करते देखा है

बंद हो गई थी जिनके नसीब की किताबें
आज इति से ही फिर शुरू होते देखा है

इति शिवहरे



इंसानियत
इंसान की इंसानियत ना जाने कहां खो गई वह तो अपने आप में रो रही कहां से ऐसा फरिश्ता लाऊँ जो इंसान को इंसान से मिला दे उसके अंदर की मरी हुई आत्मा को जगा दे आज तो भगवान भी इंसान की इंसानियत पर रो पड़ा मैं अवतारी रावण के लिए इतने राम कहां से लाऊं क
ैसी इन इंसानो की इंसानियत को जगाऊंहर तरफ नजरें उठा कर देखूं तो बस यही अत्याचार छह छह

महीनों की बच्चों के साथ हो रहा बलात्कार औरत नहीं आज सुरक्षित वह तो हो रही इंसानों की शिकार मात-पिता का हो रहा तिरस्कार इंसान की इंसानियत ना जाने कहां खो गई 
आज की औरत भी कोई कम नहीं वह तो बिन ब्याही मां हो रही उसकी मर जाती है इंसानियत वह तो भ्रूण हत्या कर जाती उसकी नहीं बदलती नियत इंसान की इंसानियत कहां मर गई इंसान की इंसानियत तो शर्मसार हो गई इंसान ना जाने कहां खो गई हर आदमी यहां पर मुखोटे लगाए
बैठा है वह तो सच को ही नीलाम करें बैठा है
इंसान की इंसानियत ना जाने कहां खो गई इतने राम कहां से लाऊं कैसे इन इंसानों को इंसानियत से जगाऊं
स्वरचित हेमा जोशी मोदीनगर गाजियाबाद





हे भगवान कुछ तो इंसानियत दिखा दो।

जो कहीं सो गई वो मानवीयता उठा दो।
यहाँ तो पूरी जमात ही सो रही है हमारी,
इन सुप्त संस्कृति संस्कारों को जगा दो।

क्या इंसानियत तुम्हें जिंदा दिख रही है।
मुझे लगता रोज चौराहों पर मर रही है।
जहाँ सरेआम लुट रही हों बेटियाँ हमारी,
शायद सारी इंसानियत हीअब मर रही है।

आँखें होते हुए भी हम सब अंधे बने हैं।
क्यों दुष्टों के आगे हम हाथ बांधे खडे हैं।
नपुंसक से क्या हम इनके सामने हो गये ,
जो इन दरिंन्दों के आगे नतमस्तक खडे हैं।

लांघ रही ये सीमाऐं सारी निर्लज्जता की।
बात होती नहीं कहीं अब सहिष्णुता की।
आत्मा तो कभी की मर ही गई है हमारी,
वरना कहीं तो बात होती आत्मीयता की।

मर गया ईमान मेरा कहीं बिकी ईमानदारी।
लुट रही हमारी सरेबाज़ार ये बेटियाँ बेचारी।
निरीह मूक प्राणी से खडे हैं हम जानवर से,
तभी तो फैल रही ये दरिंदगी ज्यों महामारी।

स्वरचितः ः
इंंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.



..
अधनंगी चिथडो मे लिपटी,
वहाँ लाश पडी है कोई।
जाने किस निर्दयी ने लूटा,
बेटी पडी है कोई ।
....
छोटे से मासूम से मुख पे,
दर्द अनेको होय।
बचपन भी न बीता न,
अस्मित न जीवन होय।
....
जाने किस पापी के मन मे,
पाप जगा था भाई।
नन्ही सी मासूम कली को,
रौदा लाज ना आई।
....
शेर कहे '' इति शिव हरे सुन लो,
इन्सान नही वो दानव ।
छोटी सी बच्ची के दुख से,
इन्सानियत जगा, न वो मानव ॥


लघुकथा-इंसानियत 

आज एक बूढ़ा कबूतर,जिसे सारे पक्षी सरदार दादा कहते थे , कहने लगा"मैं इस गर्मी में देख रहा हूँ, तुम सब पक्षियों के चेहरे पर रौनक सी आ गई है।जबकि हर गर्मी हैरान परेशान साँझ पड़े घर आते थे।पूरी गर्मी बुझे-बुझे दिखते थे और रोज़ एक ही बात कहते थे"नदियों, नालों में पानी नहीं, पेड़ो पर फल नहीं।भूख प्यास से मर जाएं क्या?
इस बार ऐसा क्या खाने-पीने का पिटारा मिल गया तुम लोगो को?
मेरे लिए भी, रोज़ खाने को ले आते हो।
छुटकू सा तोता मुस्कुराते हुए बोला,"दादा हम एक बड़े से चबूतरे पर जाकर दाना चुगते है, वहाँ पर बहुत सा दाना रोज़ पड़ा मिलता है कहते है इस शहर के एक अमीर इंसान ने हम जानवरों के लिए पूरी गर्मी ये सुविधा करवाई है।"
तभी छोटी चिड़िया फुदक कर बोली "इतना ही नहीं दादा, उन्होंने पानी के लिए भी छोटे- छोटे मिट्टी के बर्तन रखवाये है, जिसमें हम खूब मजे से नहाते है, पानी पीते है।पास हीएक छोटे से कुंड में ,पानी हमेशा भरा होता है।
सच दादा बहुत मज़ा आता है वहाँ।

"अच्छी बात है ये तो" सरदार दादा ने कहा।मगर मेरे बच्चों ये इंसान नाम का प्राणी है।
इंसानियत तो है इसमें, मगर मिलावटी।
कल जब तुम सब चले गए थे तब इस पेड़ के नीचे दो इंसान बैठ बातें कर रहे थे"एक कह रहा था, पता है यार ,वो माधवसिंह सेठ है ना, उसने रमिया के कैंसर की खबर लगते ही ,अपने पैसों से उसका पूरा इलाज कराया था ।इंसानियत की बहुत बड़ी मिसाल दी, सेठ जी ने ऐसा कर।
तभी दूसरा इंसान बोल पड़ा,बस रहने भी दे,"वो सेठ और इंसानियत!वो भी निस्वार्थ।
तुझे पता है रमिया अपनी बेटी को ले, गांव छोड़कर चली गई है?

हाँ, सेठ जी की इंसानियत का ये बदला चुकाया, दोनों माँ बेटी ने।

ऐसा नहीं है यार,रमिया के ईलाज के बदले ,उसने रमिया की बेटी की इज़्ज़त पर हाथ डालना चाहा।
वो तो भगवान का भला हो जो वो बच निकली।
सारे पक्षी एक साथ बोले"ऐसा क्या!"
हाँ बच्चों भरोसा नहीं तुम्हे भी कहीं.….
तभी गुरैया बोली,"हाँ, दादा एक जाल तो रखा देखा है मैंने पास की कोठरी में.....

स्वरचित
गीता लकवाल



इन्सानियत से आदमी दूर कितना हो रहा है। 
खामखाँ में देखिये मजबूर कितना हो रहा है।


तोलती है आदमी को आदमी की हैसियत ।
मालो जर के नशे में चूर कितना हो रहा है। 

खुद को समझे है खुदा नादानियत देखिए। 
हैरान हूँ देखकर मगरूर कितना हो रहा है। 

बे - अदब माहौल है मगरबी सिलसिलो का। 
मुआशरा इन दिनों बेशऊर कितना हो रहा है। 

जुल्मी है जितना पापी है उतना बड़ा नाम है। 
देखिए तो आप भी मशहूर कितना हो रहा है। 

विपिन सोहल




चलो आज मिलकर एक नया मजहब बनाये...... 
इंसानियत का शहद उसमें मिलायें,
जाति धर्म के झगड़े से ऊपर उसे उठाये.. 
चलो आज मिलकर एक नया मजहब बनायें....... 
गीता, कुरान, बाईबिल, गुरू ग्रन्थ साहिब, 
इन सब पवित्र ग्रन्थों की गरिमा बताये.... 
इंसानियत का धर्म सबसे ऊपर है इनमें.. 
बस इसी को अपनाकर एकता दिखायें...
और सच्चे हिन्दुस्तानी कहलाये 
चलो आज मिलकर एक नया मजहब बनायें.. !
स्वरचित *संगीता कुकरेती*

इन्सानियत,
हाइकु गीत,

जग जीवन,
फैला है अनाचार,
जब देखती,
माली फूलों की डाली,
मरोड़ रहा,
बेच रहा है बाप,
बेटी की लाज,
ममता रोती रही,
चिल्लाती रही,
दुशासन लूटता,
चौराहे पर,
आबरु लूट जाती,
बाला षोडशी,
कलियां डरी हुई,
उपवन में,
तिल तिल भर्ती, 
फूलों जिंदगी,
लड़की को,आ घेरे,
चंद लुटेरे,
देख भीड़ में रोती
इसांनियत,
पाण्डव सारे चुप,
मूर्ति बनाती,
उन्हेंरंग भर्ती,
जान डालती,
मैंने रुप दिये है,
रौंदा दरिंदों,
जीना मुश्किल होता,
सोचो संभालो,
नारी लूट जाती है,
कैसा शासन,
संसद में बैठे हैं,
कौरव भाई,६२६६२७८७९१!!।



भारत माता करती क्रंदन 
मै अपने घर मै ठगी खड़ी हु 

मार के रावण जश्न मनाते 
इंसानियत का मानो पाठ पढ़ाते 
करती रुदन मै सिसकियाँ भर भर 
बेबस हो सब झेल रही हु 
जिस देश मै नारी वंदन होता 
वो आज,बेआबरू हुई पडी है 
गाँधी जी का सत्य अहिंसा 
वो मेरे घर मै खो ही गया है 
जातिवाद की जड़ों ने मुझको 
पूरा बंजर कर ही दिया है 
श्वेत धवल वस्त्रो मै नेता 
भ्रष्टाचार का पर्याय बने है 
आपस की रस्सा कस्सी से 
मेरी जड़े कमजोर पड़ी है 
दहेज नाम की छींटा कसी 
नारी ही नारी पर भारी पड़ती 
भूख और अराजकता ने 
मेरे आभूषण सब है उतारे 
सत्य पथ पर झूठ खड़ा है 
मेरे गले को घोंट रहा है 
कर जोड मै विनती करती 
बालपन से ही बच्चों में
संस्कारो की खाद तुम डालो 
अच्छे गुणों के मोती भर दो 
नन्ही सी कलम ने विनती की है 
सिर माँ का तुम सब ऊँचा कर दो 
इंसानियत का सुन्दर उपवन 
चहु और दिशा मै विकसित कर दो 
मेरी पड़ी इस मृत अवस्था को 
वापस से तुम जीवन दे दो 
वापस से तुम जीवन दे दो 
स्वरचित सीमा गुप्ता 
अजमेर 
30.8.18



कौन कहता है इंसानियत खो रही हैं
कौन कहता है इंसानियत ख़त्म हों चुकी हैं
अरे सुनो!

जाकर देखो उन जग़हो पर
जहाँ मौत खड़ी दरवाज़े पर
लोग जुटे है बचाने में
अपनो को खो दिया है
पर लगे है मदद करने में

कही दंगे कही आतंकी हमले
कही सुख कही बाढ़ में फँसें लोग हैं

कोई पास से मदद कर रहा है
तो कई फ़ंड जुटा कर पैसे से

फिर भी लोग कह रहे है
इंसानियत खो रही है
चंद लोगों की हैवानियत का शिकार
सारा समाज हों रहा हैं

पर नहि भूलना चाहिए कि
रात हैं तो सुबह भी है
अंधकार है तो उजाला भी है
हार है तो जीत भी है
हैवानियत है तो 
अभी भी इंसानियत भी है

इस बाढ़ में कितनो के घर टूट गये
पर लगे है दूसरों का घर बचाने में
कितनो ने अपनो को खो दिया है
पर दूसरों की जान बचाने में लगे है
इस प्रकृति ने सब कुछ डूबा दिया है
इंसान की इंसानियत को जगा दिया है
इंसान की इंसानियत को जगा दिया हैं

स्वरचित 
दीपिका मिश्रा

इंसान की नियत इंसानियत तो अभी भी है,
ये अलग बात है कि अब साफ नही।
झूठ,फरेब,दंगा,फसाद,छल-प्रपंच

और भी बहुत कुछ अब यही है इंसानियत।
सिर्फ अपना स्वार्थ, दूसरे को रौंदना,
अरमानों को कुचलना अब ये है इंसानियत।
ऊपरी प्यार, झूठा दिखावा, लूटमार,
जलना-भुनना अब ये है इंसानियत।
इंसानियत तो है परिभाषा बदल गई,
लोग बदल गये इंसान की नियत बदल गई।।

श्वेता (स्वरचित)




इन्सान में इंसानियत मिट गई हैं 
साये हैं इन्सान के पर इंसानियत की आत्मा मर गई हैं .


चंद सिक्कों में इंसानियत बिक रही हैं भरी महफ़िल में बेगैरत होकर 
फिर भी सीना तानकर अपने आप को इन्सान बता रहे हैं.

इन्सान का वजूद जीते जी कब्र में दफन हो गया हैं 
आदमी की इंसानियत जीने से पहले ही मर गई हैं .

इस दुनियाँ में इंसानियत शर्मसार हैं 
यहाँ तो अपनों को छोड़कर सबको गैरों पर ऐतबार हैं .

अपनों से नहीं रुतबे शोहरत दौलत से रिश्ते निभते हैं 
ऐसे यहाँ दुनियाँदारी चलाई जाती हैं .

प्रेम अपनापन का कोई मोल नहीं 
बस शर्तों पर हर रिश्ते निभाये जाते हैं.

यहाँ दूसरों को नीचे गिराकर इंसानियत निभाई जाती हैं 
ऐसे ही दुनियाँ को एक नई रीत समझाई जाती हैं .

स्वरचित:- रीता बिष्ट


लघु कथा 
शीर्षक: " इंसानियत "

मैं अपने बेटे और बेटी के साथ ट्रेन में सफर कर रही थी।बेटे की उम्र 3साल और बिटिया 5साल की थी।
हमारे ही कम्पार्टमेंट में एक गुब्बारा वाला आया।शाम हो चली थी घर लौट रहा था अतः6-7 ही गुब्बारे थे
बच्चे गुब्बारे के लिए ज़िद करने लगे तो दोनों के लिये एक- एक गुब्बारे खरीद दी।बेटी खुश हुई और अपनी गोद में संभाल कर रख ली पर बेटा गुब्बारा हाथ में लेते ही हाथों से दबाकर फ़ोड़ डाला।उसे मैंने दूसरा दिया फिर तीसरे चौथे औरपाँच ........ बारी-बारी से ......इसे उसने अपना खेल समझ लिया।अब तो गुब्बारा भी नहीं बचा था फिर तो वह दीदी का गुब्बारा लेने के लिए ज़िद करने लगा।बेटी ने मना किया तो रोने लगा। यह देखकर गुब्बारा वाला थैले से पैकेट निकाल हवा भरकर बेटे को दे दिया। लेकिन बेटे के लिए तो यह खेल बन चूका था उसने फिर........इसी तरह3-6 ..... फिर मैं देने से मना कर दी सुनकर बेटी भी बोल पड़ी-मुझे तो सिर्फ एक गुब्बारा मिला मैंने संभाल कर रखा, भाई ने तो सारे फोड़ डाले सुनकर गुब्बारावाला बोला- "बेटा तू तो घर की लक्ष्मी है तेरा भाई नासमझ है इसे भी तूझे ही संभालना पड़ेगा। " कहकर 2-4 और गुब्बारे दे डाले।
सभी यात्री भी इसी खेल में मशगूल थे
तबतक गुब्बारे वाले की मंजिल आ चुकी थी। मैं उसके गुब्बारे की कीमत देने लगी तो लेने से इंकार कर दिया और बोलकर चला गया- इस नादान बच्चे में मैने ईश्वर का दर्शन किया है मैंने आज ईश्वर को भेंट चढ़ाई है।मैं देखती रह गई।उस इंसान की इंसानियत को मैं आज भी याद करती हूँ ।
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला 
(यह घटना बिल्कुल सत्य है)


"इंसानियत"
इंसानियत तो है इंसान की पहचान
क्यों इसे ताक पर रख दिये है हम आज

भूला नही सकते हम बुरी आदतों को
तो क्यों भुला दे हम अपनी इंसानियत को

है गर इंसान तो इंसानियत जिंदा रखिये
चाहते है भलाई अपने साथ तो
बुराई तो किसी का मत कीजिये
है गर इंसान तो इंसानियत जिंदा रखिये।

प्रेम नही कर सकते किसी से तो
घृणा तो मत कीजिए
निर्माण नही कर सकते गर
विध्वंस तो मत कीजिये

उतम इंसान नही बन सकते तो
अधम इंसान तो मत बनिये
सभी इंसान हैं एक समान
भेद-भाव तो मत कीजिये

इंसान गर है तो इंसानियत
का फर्ज तो अदा कीजिए
ईश ने बनाया हमें विवेकशील
विवेक तो मत खोइये
विवेक तो मत खोइये
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।



इंसानियत


रो रही इंसानियत,
हो खड़ी बीच बाजार।
बहरे हुए सब लोग,
फिर कैसे सुने पुकार।

सहमा - सहमा बचपन,
रोता है बेजार।
रक्षक हो गए भक्षक,
गूँज रहा चीत्कार।

घूमते छुट्टे भेड़िये,
करते अत्याचार।
पट्टी बांध कानून खड़ी,
कौन रोके यह व्यापार।

देख संतान की दुर्दशा,
धरा होती शर्मसार।
पाप हुआ अति भारी,
कब होगा अवतार ?

स्व रचित
उषा किरण



इंसानियत'
इंसानियत की प्रकाश किरणें फैलें जग में
हर विद्यालय की कक्षा में पढें, इंसानियत का पाठ,

जब-जब हम अखबारों की खब़रे देखें,
दिल में दर्द और खौब़ अक्सर भर देती है,..२
तब -तब हैवानियत का तमस हमारे समाज में,
दानवता,बेमानी,लूट,हिंसा,आंतक से,
भारत माँ को अक्सर ये पीड़ा देता,
हम सब इंसानियत की शिक्षा से,
मिटा दे, समाज से ये हिंसा,..२
इंसानियत से हम दर्द हर गरीब का समझे,
खुशियों से भर दे उसकी झोली, ..२
इंसानियत की प्रकाश किरणों से सीचें,
संस्कार भारत मां के बच्चों के,
जो नव उत्कर्ष भारत के है, सृजनहार,
आधुनिक तकनीक ग्यान के संग,
कुछ मानवता के मूल्य भी भर दें,
सत्य अहिंसा का काव्य पाठ हो हर घर में,
मनुष्य में पद प्रतिष्ठा का ना हो कभी घंमड,
ऐसी इंसानियत की शिक्षा हम समाज को दें,..२
समाज की हर नारी का नर करें सदा सम्मान,
दहेज़ हिंसा,कन्या भ्रूण हत्या का समाज से करें हम दमन,
काव्यकलरव से गूंजे जग में इंसानियत की शिक्षा,
कलम की तलवार से कटे,समाज की हैवानित की जड़े,
न्याय की इंसानियत से मिटें, समाज का अन्याय का अंधेरा,
इंसानियत की शिक्षा से मिटें ,समाज का यह भष्ट्राचार,
इंसानियत का एहसास हो, हरराज नेता को,
जो जनता को समझें, युवाओं को दें,उनका अधिकार,
ऐसी इंसानियत की शिक्षा हम समाज को दें,
'सुनीता पंवार' 'देवभूमि उत्तराखण्ड' (३०/०८/२०१८)




सूरत ए दुनिया बदल जाती है
उम्मीदें वफ़ा मचल जाती है 

क्यों आश रखे जमाने से ,
पल में सिरते इंसा बदल जाती है।
गमगीन नजरों में मेरी,
खुशी के आंसू मोती है 
वेदना के बीच पलकें सदा 
जीवन में बो जाती है 
चंद रोज खुदा ने दी 
जिंदगी की घड़ियां
जिंदगी की डोर
हाथों से फिसलती जाती है।
दबी दबी सी आहें
हौसला दे जाती है लेकिन
बदली बदली से नजरें देख" रश्मि" 
उम्मीदें रश्मि खो जाती है ।
देखती है जब अपने कौम की,
पतन और बर्बादी जहां में ,
सिसकती ,बिलखती दशा देख
गमगीन नजरें रो जाती है।।
नाम -रश्मि अग्निहोत्री 
जिला -कोंडागांव




इस दहर में इंसान की नीयत बदल गई है,

ये कैसा दौर आया इंसानियत बदल गई है,

बदस्तूर जारी है दुआ सलाम तो आज भी,
मगर दिलों से मेल की लज्जत बदल गई है,

कुछ इस तरह चली हैं आंधियां नफरतों की,
बशर के दिलों की अब मोहब्बत बदल गई है,

पत्थरों का शहर लोग भी बसे हैं पत्थरों से,
जिंदगी की इस बिसात पर इशरत बदल गई है,

"विजय" बीमार हो गया इंसान ज़हनी तौर पर ,
सोचने समझने की अब हकीकत बदल गई है।
©"विजय"
स्वरचित



आधी रात थी बस तेज रफ्तार में थी।एक मासूम सी कमसीन सी लड़की बस के पीछे वाली स्लीपर में सोयी हुई थी।
नंवबर का महीना ठंड धीरे-धीरे बढ़ रही थी।बस के स्लीपर और चेयर सभी सीट भरे हुए थे।बस पटना से सिलीगुड़ी आ रही थी। 
रात्रि के एक बजे होंगे अचानक स्लीपर से ल
ड़की नीचे गिर गई।
कुछ लोगो ने उठाकर उसे पुनः स्लीपर में भेज दिया।
लेकिन कुछ देर के बाद वह लडक़ी पुनः नीचे गिर पड़ी।
बार बार यह होना किसी हादसा की चेतावनी थी।
आगे तीन नंबर की सीट पर एक लडक़ा (शाको) बैठा हुआ था 
वह दौड़कर उस लडकी के पास गया। लेकिन लडक़ी बेहोश थी।
उसके मुँह से झाग निकल रहा था।
एक खलासी और ड्राइवर भी पीछे दौड़कर आया।
किसी ने कहा लड़की को नीचे उतारकर सड़क के किनारे छोड़ दो 
किसी ने लड़की को गंदा स्वभाव का है कहा तो किसी ने कहा
इसे बस से बाहर फेंक दो।

लेकिन एक लड़का(शाको) बहुत खामोश होकर लड़की को देख रहा था।
उसने अपने जेब से रूमाल निकाला और उस लड़की के मुँह से निकलते झाग को साफ करने लगा।
बस अपने रफ्तार में थी।
ड्राइवर बार बार कह रहा था कि लड़की को नीचे उतार देते हैं।
लेकिन सड़क वीरान थी 
काली रात थी 
सड़क पर अगर उस लड़की को उतार दिया जाता तो निश्चित उस लड़की के साथ कोई न कोई हादसा हो जाता।
लड़का(शाको) डटा रहा और उसने कहा लड़की को किसी भी हालत में सिलीगुड़ी ले जाना होगा।
जहाँ डाॅक्टर के पास भर्ती कराकर इसकी जान बचाई जाए।
लडका ने जिद कर दिया।सब खामोश हो गये।
लडक़ा ने लडक़ी को सिलीगुड़ी लाकर चाइल्ड केयर में फोन किया 
चाइल्ड केयर वाले आये और लड़की को ले जाकर हास्पिटल में भर्ती कराया।
लड़की की जान बच गयी।
वो अबोध लड़की आज भी मुझे बहुत याद आती थी।वह लडक़ी इंजीनियरिंग की छात्रा थी।
नोयडा में पढ़ाई कर रही थी।
जो नोयडा जाना था गलती से बस में आकर बैठ गयी थी और वह बस की टिकट भी ले ली थी। उस लड़की का नाम सोनम गुप्ता था।शायद वह सहरसा या मोतिहारी की रहनेवाली थी।अगले दिन उनकी माँ और मामा जी आये उससे हास्पीटल में मिलने तब वह लडक़ी अपने माता-मामा को देखकर खूब रोने लगी।
ईश्वर उसे सलामत रखे 
शाको आज भी उसकी सलामती का दुआ करता है ।
@शाको
स्वरचित





इंसानियत


दर्प के हुंकार तम में
मिट रही नित-नित सदायेँ 
क्षोभ के मद से लिपटकर
नित रची हैं व्यन्जनाएँ 
कालिमाँ छाई है घट-घट 
प्रात भी मिटता दिखा है
रे अनुज इस भीड़ में
इंसानियत बिकता दिखा है ।।

मान मानव का मिटा अब
जख्म के फैले सबेरे
बस लहू की प्यास छाई
सतत वासना के फेरे
शब्द के इस वार से
आसार कुछ जगता दिखा है
रे अनुज इस भीड़ में
इंसानियत बिकता दिखा है ।।

रे प्रिये कुछ पत्र अब तो
उर्वी तक बिखरा ही देना
हैं हम इन्सा सत्य है ये
कर्ण में बतला भी देना
गर है ऊलझा सत्य तो
एक पल उसे सुलझा भी देना
कहना उनसे, वक्त कैसा?
प्राण क्यूं मिटता दिखा है
क्या हुआ रे मीत मेरे 
इंसानियत बिकता दिखा है ।।

अशोक सिंह अलक 
आजमगढ़
स्वरचित,अप्रकाशित




बदलता परिवेश

बदलने को कुछ
न बचा शेष ।
जहाँ देखो तहाँ
नफरत क्षोभ घृणा
राग और द्वेश ।
बड़ा भीवत्स है
समाज का स्वरूप
इंसानियत बची
है लवलेश ।
वो भी दम तोड़ रही
हाथ जोड़ रही
रोज झेलती है
द्वेश और आवेश ।
कैसे बचे समाज
की डूबती नैया
कैसे हों दूर क्लेश ।
कोई किसी को
पहचानता नही
सबने बना रखे
अपने उदेश्य ।
रिश्ते सब रख
दिये दाव पर
द्रोपदी ने खोल
लिये अपने केश ।
महाभारत अब निश्चित
बचायें श्री कृष्ण
दुर्योधनों के हैं
सेकड़ों भेष ।
व्यर्थ ही लगे
अब वो गीता
के उपदेश ।
इंसान की इंसानियत
में बुरी आत्मा
कर गई प्रवेश ।
बचायें ''शिवम"
आकर श्री गणेश ।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
30/08/2018







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