निडर खड़े,प्रकृति उपहार लिए
उन्मुक्त पंछी और उन्मुक्त पवन
प्रकृति का उन्मुक्त यौवन दिखा रहे।।
धरा के सौंदर्य को चकनाचूर हम सब कर रहे
उन्मुक्तता के नाम पर,उच्श्रृंखल हम हो रहे
संस्कारों की तोड़ लड़िया,वहशी हम सब हो गए
उन्मुक्तता के नाम पर,यौवन से हम खेल रहे।।
उन्मुक्त रहो सुविचारों से
दुर्भावना तुम त्याग दो
स्वछंद विचारों के नाम पर न
उपहास के पात्र बनो।।
वीणा शर्मा
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मन के मीत
हर पल ढूंढा प्यारे
दिशा - दिशा कोना कोना
तुझ सा कहीं न मिला
मेरा मन मीत रे।
किया रोशन जहां मेरा
तो , तिमिर का डर भी
दिखाया तुने कभी- कभी
है कैसी तेरी रीत रे।
जीवन के झंझावातों से
झंकृत-विकृत जिंदगी
फिर भी साहस मिलता
जब गाऊं तेरी गीत रे।
खुशबू का दामन थामे,
बदबू के कुछ झोंके भी आए
सब पर तेरी महक भारी
ये कैसी तेरी जीत रे।
थकती हारती जब जिंदगी
आ जाता हंसाने तू
करतब तेरी ऐसी प्रभु
मन होता शीत रे।
मन के अंतःस्थल में
झलक तेरी ही मिलती
एक पल ओझल न होते
है तुझसे मेरी प्रीत रे।
हर पल ढूंढा प्यारे
दिशा - दिशा कोना कोना
तुझ सा कहीं न मिला
मेरा मन मीत रे।
रेणु रंजन
शिक्षिका, राप्रावि नरगी जगदीश
पत्रालय : सरैया, मुजफ्फरपुर
कुछ खिले कुछ अधखिले
फूल हमने सँजोये हैं
पूछा उनसे हाल तो
दोनों ही रोये हैं
साथ रहकर भी
न समझे दूसरे का दर्द
ये कैसे हालात
दुनिया के होये हैं
कोई रोटी के लिये रोये है
कोई कोठी के लिये
रोटी वाले एक दिन
भूखों सोये हैं
मगर इतने नही रोये हैं
उन्होने तो आत्मा से
तार बिंधोये हैं
परमात्मा की भक्ति
में खोये हैं
कोठी वाले के तो
यम से भी पंगे होये हैं
महीनों लड़े यम के दूत
तब जाकर सफल होये हैं
दूसरा वाला तो बेचारा
खुद ही यम के साथ
जाने को तैयार था
घर की टूटी चारपाई पर
हल्का सा आया बुखार था
यम दूत आया उसको
उसका नमस्कार था
दो दवाई का पैसा भी
उधार था
नही चाहता था वो
बच्चों को कर्ज में डुबोना
वो तो स्वयं चाहता था
''शिवम्" चिर निद्रा में सोना
हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
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हर किसी के लिये सावन
अच्छा नहीं होता
हर किसी का मकान
पक्का नहीं होता
सावन की बूंदों के साथ
अंगड़ाई भरती है जवानी
गरीबों की बस्ती में
भरता है पानी
सावन की हरियाली में
लहलहाते हैं फसल
नदियों की लहरें झूमती
करती हैं कलकल
जहां अमीरों के मकान
बारीश में हैं पकते
वहां मिट्टी के घरौंदे
इसी सावन में है ढहते
किसी के सपने जुड़ते हैं
किसी के अपने बिछडते हैं
न खा पाते हैं पेटभर
न चैन की नींद सोते हैं
क्यों आता है ये सावन उनके घर
#दीप*जो पल पल डर से जीते हैं
बारीश की बूंदों से हर
कोई खुश नहीं होता
हर किसी के लिये सावन
अच्छा नहीं होता
छीना है अपनों को मुझसे
उनकी यादों में दिल रोता
हर किसी के लिये सावन
अच्छा नहीं होता ।।।।
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#दीपमाला_पाण्डेय*
*रायपुर छ.ग.*
20.08.2018
अब न छूटे रंग पिया का
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अब न पूछो हाल जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का ।।
जब छूती है पूर्वा तन से,
सिहरन सी दौड़ जाती है।
जब छाती है बदली नभ में,
उनका नेह बरसाती है।
हुआ अजब सा हाल जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का।।
बरसता है जब रिमझिम सावन,
घुँघरू यादों की बजती है।
मन चंचल हिरनी सा होता,
जब साँझ सुहानी ढलती है।
सुरभित उपवन लगे जिया का।
अब न छूटे रंग पिया का।।
मन रेतीला सागर तट सा,
लहरें जैसे अंक पिया का।
पल-पल होता आलिंगन पर,
बुझ न पाती प्यास मिलन की।
ऐसा हुआ कुछ हाल जिया का ।
अब न छूटे रंग पिया का ।।
उषा किरण
छंद मुक्त कविता
बेटियों के अनेक हैं नाम
नहीं होता चंबल है नाम
बेटी का अस्तित्व
इसी तरह कुछ
रह गया अनाम,गुमनाम;
पर,"चंबल"के बेटियां हैं
गुल्लन बेडिन,कुसुमा नाइन,फूलन देवी
गुल,फूल,कुसुम सब
अस्तित्व के लिये लडी
दागी गयी,सुलगती बीडियों से
पीटी,घसी टी गयीं
दया छि:,अस्तित्व निर्दयी
यहां पैशाची साम्राज्य
बाजार ,भोक्तावाद
प्रदर्शन,विज्ञापन,विक्रय में
बिक रहा अस्तित्व
गंदैली निगाहें औ सोच ने
समाज के डैनो ने परकटी कर दिया
कहानी काफी पुरानी है
द्रोपदी से निर्भ या औ आज तक
मारी गयी कोख में
छली,नोची गयी
कचडे,रसायन
लाश बन गयी
जलती,तैरती
हो जाती बेशर्म,बेहया
अस्तित्व!मौन,मूक
प्रश्न चिन्ह??बना
कल,आज और कल ।
रंजना सिन्हा सैराहा...
........
आंगन की क्यारी में,
कर रोपित एक,
पाटलपुष्प,
निरंतर, दिवस-मास,
सिंचित भू-जल से,
पोषित उर्वरकों से,
हो विकसित,
फैली डाली,
नव- पत्र हरित,
छठा मतवाली,
कर अवलोकन,
बारम्बार-लगातार,
रुककर कुछ देर,
अपलक लेता निहार,
मैं आसक्त उसपर,
उसका प्रीत,
मुझपर अपार,
जब मैं हँसता,
कुछ कहता,
तब झुककर,
करता अभिवादन,
स्वीकार.....
.........
फिर आया,
उसपर यौवन अपार,
कर वसन्त अपना,
सबकुछ न्योछार,
कुछ कली-कुछ फूल,
लगकर रहे थे झूल,
मदमाता अपने में,
इतराता अपने में,
लहराता अपने में,
उन्मुक्त मन,सिहर,
अपने में कहाँ ठहर?
......
पड़ी दृस्टि उसपर,
हुआ मन प्रफुल्लित,
हरे पत्र के संग,
रक्ताभ पुष्प पल्लवित,
मैने कहा,
सुन रे सखा,
तेरे रूप लावण्य की,
अनुपम छठा,
........
पर वो निर्लज्ज,
अपने में मगन,
कहाँ अब सुनेगा,
मेरा अभिवादन,
एक स्नेह उमड़ा,
हृदय से मेरे,
दो बूंद मोती,
पत्रों पर गिरे,
सही बात कहता,
है ये जहाँ,
छिछिले पत्र में,
जल रुकता कहाँ,,,
रुकता कहाँ.....
.....राकेश
" मिट्टी की खुशबू "
कृष्णा गरमी में पानी पीने के लिए एक मिट्टी का घड़़ा ले आई। क्योंकि फ्रिज का पानी पीना बच्चों के लिए ठीक नहीं। मन में सोचा पानी ठंडा भी हो जाएगा और बच्चे भी स्वस्थ रहेंगे।
तभी कृष्णा का छोटा बेटा संजू मटके को देखते ही बोला "मम्मी आप भी क्या दादी के जैसे ही हमें फ्रिज का पानी नहीं पीने देती। मुझे मटके का पानी नहीं पीना"
कृष्णा बेटे को प्यार से समझाते हुए बोली " बेटा फ्रिज के पानी से तुम्हें सर्दी हो सकती है ओर तुम बिमार हो सकते हो " पर संजू मानने को तैयार ही नहीं था। हट लगाकर बैठे हुए था। तभी कृष्णा की बड़ी बहन संजू की मौसी उषा, जो थोड़ी दूर ही रहती थी वहाँ आ गई। तब कृष्णा ने सारी बात उन्हें बताई और मटके के कारण संजू नाराज है ये भी बताया। तब वो कहने लगी "कोई बात नहीं, संजू को तू फ्रिज का पानी ही देना, पर मुझे तू मटके का पानी पीला, बहुत प्यास लगी है"
कृष्णा ने उषा को मटके का एक ग्लास पानी पीने को दिया, जिसे पीने के बाद वो संजू को सुनाकर कहने लगी " कृष्णा ये पानी तो बहुत मीठा लग रहा है और इसमें से तो मिट्टी की खुशबू भी आ रही है तुम्हें पता है जब सिपाही अपने देश की रक्षा के लिए सेना में अपनी मातृभूमि से दूर लड़ाई में जाते हैं तो वहाँ उन्हें मटके का पानी ही पिलाते हैं। क्योंकी मिट्टी के मटके से सोंधी सोंधी मिट्टी की खुशबू आती है और ऐसा पानी पीने से सिपाही को अपने वतन की मिट्टी याद आती है "ये सुनकर संजू बीच में बोल पड़ा " मौसी सिपाही भी मटके का पानी पीते हैं और इसमें से कैसी खुशबू आती है मैं पीकर देखूं " मौसी ने कहा "हाँ पीकर देखो" संजू ने पानी पिकर खुश होते हुए कहा " वाह मौसी इसमें तो पहली बार बारीश में आती मिट्टी की खुशबू है साथ ही मातृभूमि की खुशबू व सिपाही को याद दिलाती वतन की खुशबू भी है, आज से मैं यही पानी पीना शुरू करता हूँ "
ये सुन कृष्णा को अपनी बहन उष्मा की "बच्चों को कैसे समझाया जाय चतुराई पर गर्व हुआ। साथ ही दिल में खुशी भी हुई की स्वयं को भी कुछ सिखने को मिला।
स्वरचित कुसुम त्रिवेदी
एक तुम ही नहीं जवां और भी हैं।
जिससे मैं मिला वो रोता ही मिला।
तुम ही तन्हा नहीं परेशां और भी हैं।
मुश्किलों से हौसला बडी चीज है।
न डर ए दिल किश्तियां और भी हैं।
अब क्यों आईने से डरने लगे तुम।
दूर हो जायेंगे जो गुमां और भी हैं।
कर आजमाइश हवा के पैतरों की।
सितारों के आगे जहां और भी हैं।
तरक्की की कोई हद हो तो बता दो।
तय करने अभी आसमां और भी हैं।
रुका तेरे दर पर तो तेरी ही खातिर।
वरना इस शहर में मकां और भी हैं।
विपिन सोहल
लघुकथा-दबंगई
🐘🐘🐘🐘🐘
आज कितनी कमाई की कम्मो..
बा बा बा पू...100 रूपया...बस...इतनी सी...
इधर दे...
और तेरी माँ नहीं आयी...कहाँ मर गयी वो.. 6 बज गये ...
इतने में शीला आ जाती है।
वो आज काम ज्यादा था..
तो कमाई भी ज्यादा हुई होगी...
ला दे...आज इंगलिश पिऊँगा..बहुत हो गया कच्ची पीते पीते..
घर में पानी चू रहा है..कम्मो के बापू..इसलिए मैंने रूककर काम किया...और तुम्हें पीने की पड़ी है...
ज्यादा जुबान चलने लगी, तेरी..
सटाक से भीखू ने शीला के गाल पर चाँटा रसीद किया।
कम्मो बचाने आयी तो उसे भी ,धक्का दे दिया।रोज का यही हाल था।
भीखू न कुछ कमाता और दोनों माँ -बेटी जो भी मजदूरी कर लाती उसे अपनी दबंगई से छीन लेता और खूब अय्याशी करता।
बहुत परेशान थी दोनों,मगर घर की इज्जत को बचाने के चक्कर में किसी से कुछ नहीं कहती...
उस दिन तो बड़ा ही बुरा हाल किया भीखू ने पूरे नशे में धूत जैसे ही माँ -बेटी घर आयी ,"
इतनी देर से काहे?बहुत रूकने लगी।कोई चक्कर तो है,माँ-बेटी का उस साहब के साथ ।अब उस साहब के घर ही रहो दोनों।घर में घुसने की हिम्मत मत करना ।दहली चढ़ी तो टाँग तोड़ दूँगा दोनों की।
गंदी-गंदी गाली देने लगा.।
शीला गिड़गिड़ायी ,"क्यूँ तमाशा बना रहे हो.कम्मो के बापू"
लोग इकट्ठा हो जाऐंगे। अच्छा लगेगा क्या...
"हो जाने दे होंगे तो पर तुम दोनों घुसकर तो बताओ अंदर..
कम्मो ने आव देख न ताव
आज जाने कहाँ से उसके भीतर ताकत आ गयी...
हो जाने दे ,तो ..हो ही जाने दे बापू आज...कम्मो पूरे जोश में थी
आखिर इतनी मेहनत करने के बाद भी..बाप..माँ -बेटी की इज्जत पर लाँछन लगा रहा था..
क्रोध आना तो स्वाभाविक था..
कम्मो ने पास में पड़ा डंडा उठाया..."घुसने दे रहा कि नहीं"
"क्या करेगी ?बापू को मारेगी"
भीखू ने जैसे ही कम्मो पर हाथ उठाया..कम्मों ने डंडे की खींचकर दी..और माँ का हाथ पकड़ अंदर ले गयी..बहुत हो गयी तेरी #दबंगई..आज देख मेरी #दंबगई..
आज के बाद चुपचाप कमाने जायगा तो रोटी मिलेगी।नहीं तो पुलिस में रपट लिखा आऊँगी।खूब सुतेगा वहाँ तो अक्ल ठिकाने लग जाएगी समझे ।
बहुत कर लिया हम पर अत्याचार ।अब न सहूँगी न माँ को सहने दूँगी ,एक और खींचकर कर रखते हुए,"बोल बापू. कमायेगा की नहीं"....
स्वरचित
गीता लकवाल
पांच तत्वों से बना उस ईश का मकान हूं
अस्तित्व की अभिव्यक्ति को नाम से पहचान हूं।
देह के देहाधी अदृष्य रूप के प्रारुप है
देह मे देही मैं अपने इष्ट का सम्मान हूं।
क्यों नहो अभिमान सुसंस्कृती दान पाने का मुझे,
हिंद की पावन धरा पर भारती का मान हूं।
वंद्य नियति कि धरोहर संहिताऐं वेद की
क्षम्य मुझको अद्य अज्ञानी क्वचित नादान हूं।
है ऋचाएं वेद की श्रुति नाद की संवेदनाऐं
भिन्न भिन्न उन विधाओं से अभी अंजान हूं।
साध्य,साधक, साधना, साधन नहीं मैं जानता
स्पर्श भारत भू की माटी से बना महान हूं।
स्वरचित:-रागिनी शास्त्री
दाहोद(गुजरात)
तनाव भरा है जीवन में
मिल बैठ कर कम कर ले हम
साथ बैठकर हँसगें ,तो धुल जायेगें गम
जब सताये दुखों की रेखा
हास्य के रबर से मिटते देखा
जब सताये अपनो का धोखा
किसी अजनबी को अपनाते देखा
जब आये दुखों का रेला
प्रभु पर बिश्वास करके देखा
हुआ जब पुरुषार्थ पर भरोसा
दुःख को स्वयं भागते देखा
हँसने से जब मन प्रसन्न हो
भूल जायें हम गमो का टीला
सुख दुःख तो आये जीवन में
पर भूल न जायें हम हँसना जीवन में।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
**अब तो आजा पिया **
ये धड़के मेरा, यह नाजुक जिया
आया सावन यह आया ,आया मस्ती भरा ।
ओ रे पिया ,आजा रे पिया , अब तो आ जा ,
आया सावन यह आया अाया मस्ती भरा
बादल सलोने से छाने लगे हैं ,
छम छम के बूँदे ,बरसनेंलगे हैं ,
नगाड़े ये बिजली के ,दमकनेंलगे हैं
उपवन भी फिर से महकने लगे हैं
ओ रे पिया ..आ जा रे पिया ...
नदियाँ भी बलखाए,पूर्वा भी बौराए
कलियाँ भी इठलाए ,पंछी भी है गाए
बनके दुल्हन ,धरा भी शर्माऐ हैं
ओ रे पिया ...आजा रे पिया
हाथों में कंगना है ,बालों में गजरा है
माथे पे बिंदिया है ,राहों में तेरे ये अखियाँ है ,
ओठो में समाया ,तेरा ही अफसाना है
ओ रे पिया ...आ जा रे पिया ...
दिल में जो अरमां हैं ,तुझ पे ही मचलना है ,
पलकों में बसाया ,तेरा ही सपना है ।
रह न जाए अधूरा ,मन मेरा,
प्रेम पावस में है भीगा।
ओ रे पिया .... आ जा रे पिया ..
आया सावन .......मस्ती भरा ।
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प्रीति राठी ,बेरडी
#जख्म #
जिंदगी में कैसे कैसे
जख्म मिलें हैं मुझे
कुछ हालातों ने दिये
कुछ लफ्ज़ है सीये मेरे
जख्म ही शायद
जीवन को तराशते हैं
बनके कोहिनूर
चमकने हैं मुझे
आयी हर मुश्किलों को
काटने हैं मुझे
दुःखों को टुकड़ों में
बाँटने हैं मुझे
कठिन परिस्थितियों को
झेलने हैं मुझे
जिंदगी में तपिश भी
सहने हैं मुझे
टूटते रूठते हर रिश्तों को
निभाने हैं मुझे
गर्म प्रहार को झेल
बन कुंदन चमकने हैं मुझे
पड़ी मन की गंदगी
पौंछने हैं मुझे
दर्पन सा सत्य
बताने हैं मुझे
बिखरी हुई जिन्दगी को
समेटने हैं मुझे
दुर्गम इन राहों को
सजाने हैं मुझे
स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला
चंद हाइकु
विषय -"कुर्सी"
(1)
पद की होड़
राजनीति का खेल
"कुर्सी"की रेस
(2)
दृढ़ गरिमा
रिश्वत खिसियाई
बिकी न "कुर्सी"
(3)
"कुर्सी" का नशा
लड़खड़ाई जीभ
ज़मीर गिरा
(4)
पसरे भ्रष्ट
लोकतंत्र की "कुर्सी"
लगी दीमक
(5)
कुर्सी" का धर्म
सेवा व समर्पण
ईश है जन
ऋतुराज दवे
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