Wednesday, August 8

"सागर "7अगस्त 2018



सागर

एहसासों की

छोटी बड़ी
कई नदियों
से मिलकर
जीवन रूपी
सागर बनता हैं
जो गंभीर
नजर तो
आता है
पर उसमे
भी कई
लहरों
हिलोरें लेती है
जो कभी हमें
अच्छी लगती है
औऱ
कभी हमे परेशान
करती है फिर भी
जिंदगी चलती ही
रहती है
कभी
रुकती नही

गरिमा

जन-जन में ज्ञान का ऐसी जोत जलाना 
----------------------------------------------------------

मां शारदे कुछ देना या नहीं देना
पर जन-जन में ज्ञान का ऐसी जोत जलाना।

ताकि मिट सके हमारे देश से
भ्रष्टाचार की फैली विसंगतियां,
और मिट सके देश समाज से
अश्लीलता,व्याभिचार की कुसंस्कृतियां।

मां शारदे कुछ देना या नहीं देना
पर जन-जन में ज्ञान का ऐसी जोत जलाना।

ताकि बदल सके हमारा समाज 
छोड़ सके संकीर्ण मानसिकता 
और समझ सके हर रिश्तों की भूमिका 
निभा सके अपने हिस्से की व्यवहारिकता।

मां शारदे कुछ देना या नहीं देना
पर जन-जन में ज्ञान का ऐसी जोत जलाना।

ताकि सबों का दिल सागर हो 
जो विलय कर सके मन मैलों को
और हर दिल प्रकाशमान सूर्य हो
जो मोम-सा पिघला दे दिल शैलों को।

मां शारदे कुछ देना या नहीं देना
पर जन-जन में ज्ञान का ऐसी जोत जलाना।

ताकि मानसिकता हो सबका विशुद्ध 
जो कर सके सदा ही अच्छे कर्म 
और मन हो सबका बिल्कुल पावन
जो समझ सके सभी धर्म का मर्म।

मां शारदे कुछ देना या नहीं देना
पर जन-जन में ज्ञान का ऐसी जोत जलाना।

--रेणु रंजन


जीवन बहता सागर है,
शांत,उफनता,उथला-पुथला
विपद सुनामी रूप दिखाता
जीवन उथला सागर है।
इस सागर के हम ही नाविक,
पतवार हमी बन जाते हैं।
लहरों के सँग बहना सीखा
फिर लक्ष्य स्वयं पा जाते है।
सागर अंत ,अनन्त है,
जीवन लक्ष्य सीमित।
आडंबरों में बहकर लक्ष्य
हो गए असीमित।
सागर लहरों की ध्वनि,
जीवन विपदाओं की गूंज सुना रही
जीवन की कटुता को विष समान
गरल करने की सलाह दे रही।
जीवन सागर मंथन से
सुधा ,स्नेह भी बरसेगा
कोरी ये बाते नही, पुराण कथाएं बता रही।
सागर कुटिल अधम तो,
सुर,कच्छप रूप समाहित भी
प्रगतिशीलता दर्शाता सागर
अनवरत बहना सिखलाता
जीवन रुकने का नाम नहीं
कर्तव्य पथ है समझाता।।

वीणा शर्मा

*******************
प्यास मिलन की जगी है। 
क्यूँ कशमकश सी लगी है।। 
कल-कल नदिया मै बन जाती, 
और सागर बन जाते तुम। 
मै तेरी लहरें बन जाती, 
पूनम का चाँद बन आते तुम। 
जबसे मन में प्रीत ये जगी है। 
क्यूँ कशमकश सी लगी है।
तुम अगर बन आते अंबर, 
और अवनि बन जाती मै। 
तेरा नेह बन जाती शबनम, 
तन मन सरस भिगोती मैं। 
ये रात भी प्रेम में पगी है। 
क्यूँ कशमकश सी लगी है।
राहों में दीपक बनकर, 
तम को सहज भगाते तुम। 
आँखों में तुम्हें बसा लेती, 
ख्वाब अगर बन जाते तुम। 
आँखें भी कब से जगी हैं। 
क्यूँ कशमकश सी लगी है।
स्वरचित 
उषा किरण


कितना प्रखर?
कितना उज्जवर?
तेजवान,

बेगवान,
सागर महान,
.....
अपने ही मद में-
चूर कहीं,
चूमता है नभ,
दूर कहीं,
लहराता,
बलखाता,
अपने पर,
इतराता,
उमड़-घुमड़,
लहर-लहर,
आता है,
तट तक,
टकरा कर,
पाषाणो से,
जाता है,
विखर-विखर,
......

पर इसके इतर,
एक रूप और,
है सागर का,
ऊपर से अशांत,
पर शांत है अन्तर में,
कितने ही रत्न,जीव,
पलते हैं अंदर में,
नदियों को,
नालों को,
खुद में समाया है,
तब जाकें सागर ये,
सागर कहाया है,
हां सागर कहाया है,,,

.....राकेश



सागर के प्रति सरिता क्यों दीवानी है
समझ से परे इनकी प्रेम कहानी है ।।

सागर में क्या उसने ऐसा है देखा 
किये जो उसकी हर कमी को अनदेखा ।।

प्यास बुझा न सकता जो इंसान की
उसके प्रति आकर्षण है दीवानगी ।।

माना दिल बड़ा कितनों को समाया
समरसता की मिसाल भी कहलाया ।।

ये ही गुण शायद सरिता को है भाये 
इसीलिये सरिता का मन खिचा आये ।।

जो अपने में नही उसी को ढूड़े मन 
मन ही मन बनी रहे उसकी लगन ।।

शांत चित गम्भीर मुद्रा सागर है
नदी मीठी मगर छलकती गागर है ।।

सागर में मिलकर बजूद वो खो गयी 
पर अपनी मंजिल पाकर खुश हो गयी ।।

दीवानगी ही कहते हैं इसे ''शिवम"
सागर की भी शान है अपना अहम ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"

 क्षणभंगुर है जीवन जिसका 
है मंजिल साहिल तक की 
खत्म न होगी दौड़ जीवन की 

लहरें हो या मानव की

ये पल का उठना 
पल का गिरना 
यूँ.... 
गिर-गिर कर संभलना 
हो मगन दीवानगी की हद तक 

महत्वाकांक्षा के सागर में 
सफलता के मोती चूमना
है दुष्कर.. असाध्य नहीं 
निरंतर प्रयास और आराध्य वही 

सागर में है जीवन 
और 
जीवन में भी सागर है 
रत्न पड़े दोनों में 
कहीं मन की 
कहीं भौगोलिक गहराइयों में 
जिन्हें हम ढूंढ नहीं पाते हैं 
और...
डूब रहे छिछले पानी में 
उन गहराइयों में उतर कर 
हम तैर नहीं पाते हैं 
गहरे हैं सागर जीवन में भी 
ये हम जान नहीं पाते हैं 
और लिए ललक आसमान छूने की 
तय करने मंजिल साहिल तक की 
हम लहरें बने चले जाते हैं



II छंद घनाक्षरी - मनहरण II (३१ वर्ण , चरणान्त तुकांत एवं गुरु)


सागर से गहरा प्यार मेरा दिल में ठाठे मार मार बेचैन मुझे अब कर रहा....
कब आओगे तुम साजन देख देख बादल सावन का, तन मन मेरा जल रहा.... 

बादल बरस कर चले गए सावन के झूले भी उतर गए पर न आये तुम...... 
राह ताकती आँखों से है सागर छलके छम छम छम, कब आओगे साजन तुम... 

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II


दरिया, सागर देख कर,आंख लिए है मूंद

मुझ चातक को चाहिए,स्वाति की एक बूंद

चलो मैकदे के शरम अब छोड़ा जाये
कल की तरह फिर कसम तोड़ा जाये
ऐसे पिये के एक बूंद ना रहे पैमाने में
इस तरह सागर को निचोड़ा जाये

थी जरूरत तो इधर आया था
बडा बेचारा सा नजर आया था
सूखी आंखें और होंठों पे प्यास लिए
कल रात फिर समन्दर मेरे घर आया था

बैठकर साहिल पे, पहरों यही देखता हूं
सागर की बेचैनी, लहरों की खुदकुशी देखता हूं


पीड़ा का सागर है , 
मेरे हृदय का आंगन !
दुख से तप्त है ,
मेरा समस्त तन-मन !!
सागर की लहरों जैसी ,
मन में दुख की अनगिनत हिलोरें हैं !
वहाँ अनेक असहनीय , 
पीड़ा ही पीड़ाएं हैं !!
फिर भी , यही यत्न होता है
कि हंस के व्यतीत करें जीवन !
ताकि हंसते हुए हमें देखकर ,
बदल जाए , किसी और का जीवन !!


1
मन सागर

गहराई अन्नंत
समझे कौन
2
सागर तीरे
दिखे तैरती आशा
छूटी निराशा
3
इच्छा सागर
कर्म है पतवार
लक्ष्य है साहिल
4
नदी का प्यार
सागर से मिलन
कैसी लगन
5
हृदय माँ का
सागर सा विशाल
बरसे दुआ
6
नैन दरिया
मन इच्छा सागर
मारे उच्छाल

स्वरचित-रेखा रविदत्त
7/8/18
मंगलवार


सागर सी है ये दुनिया 
जीवन है सरिता की धारा 
जीवन के राहों से रेत मिट्टी 
समेटते बटोरते
सागर तक है जाना
सागर से मिलकर
विलुप्त हुई नदियाँ 
नदियों के उफान को
जीवों के अहंकार को
गहराइयों में विलीन कर
सागर करता उच्छास
जैसे हो परिहास 
भाटाओं में कभी सिमटता
दुःखों को दर्शाता
बाहर जब शांत दिखता
गहराइयों में मोती बनाता
तटों तक आता रेत बहा ले जाता 
रत्नों को फिर तटों पर बिखराता
सागर देता बहूमूल्य नज़राना 

स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला



जीवन है संघर्षों का सागर।
सुख दुःख इसमें आते हैं।
जीवन की आपाधापी में,
हम कुछ समझ न पाते हैं।
कौन अपना है कौन पराया
जीवन भर गिनती होती है।
कितना भी धन अर्जित कर लो,
पर दौड़ खत्म न होती है।
जीवन का अंत समय आता,
तब पछतावा होता है।
पर सबको वो ही मिलता है,
जो जीवन भर बोता है।

स्वरचित
शिवेन्द्र सिंह चौहान (सरल)
ग्वालियर म.प्र.


सागर की लहरें देख
मन मोरा हरषे

एक एक लहर संघर्ष करते 
मचल मचल आगे बढ़ते

इन लहरों को एक दूसरे से
आगे निकल जाने की है चाह
छूकर वे अपनी मंजिल
लौट चले पयोधि की ओर

सागर की लहरें करें न प्रतीक्षा
ज्यों समय न करें हमारी प्रतीक्षा
समय पहचान हम बढ़े आगे
मंजिल हो जाये आसान

सागर में हैं रत्न भरा
जैसे हम मे हैं सदगुण भरा
सागर को स्वीकार नही जैसे
किसी और का सामान

हम मानव भी छोड़ दे
अपनी लालच पयोधि समान
और हम भी बन जाये 
विशाल हृदय पयोधि समान।
स्वरचित-आरती श्रीवास्तव।





No comments:

Post a Comment

"अंदाज"05मई2020

ब्लॉग की रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नही करें   ब्लॉग संख्या :-727 Hari S...