Saturday, August 18

"अपेक्षा"18अगस्त 2018


करें अपेक्षाऐं पूरी सबकी प्रभु जी,

करते विनती बारंम्बार।
नहीं किसी को दुखी रखना भगवन,
हम करते विनय हजार।
सभी रहें संसारी जनमानस सुखमय,
हमें सदा प्रफुल्लित दिखें,
यही अपेक्षा करें बस पूरी परमेश्वर,
हो बडा आपका उपकार।
करें पुरूषार्थ परोपकार हम ,नहीं कोई,
किसी से अपेक्षाऐं पालें।
कोई बडा छोटा नहीं समझें आपस में,
सदा प्रेम परस्पर बांटें।
कर्मवीर बने रहें हम सबही परमेश्वर,
कर्तव्यनिष्ठ बन जीलें।
नहीं रहे कोई वैर मनमुटाव आपस में,
सुखदुख संगसंग में काटें।

स्वरचितः ः
इंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.

स्वालम्बन का पाठ पढ़ो 
इसकी महिमा अपार ।
अपेक्षायें न कभी रखो 
कभी न होगी हार ।।

अपेक्षाओं में ठेस मिली 
रोये आँसू डार ।
रंग बदलती दुनिया से 
कोई न पाया पार ।।

चीटी को देखिये
कैसा है किरदार ।
पहाड़ पर चढ़ जाये
जाने स्वालम्बन का सार ।।

नही आश्रित बैठे वो 
न करे सोच विचार ।
हर मुश्किलों को करे
हर दम दरकिनार ।।

अपेक्षा में उजागर न हो 
शक्ति का भण्डार ।
अदभुत शक्ति सब में है
जाना ये संसार ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"




अपेक्षा,स्वयं अंतर्मन के कमजोर भाव,
दर्शाती हमारी शिथिल पीड़ा को,
अपंग बनाती स्व मनोबल को।
पथ पर बिखरे काँटों से
पुष्प की अपेक्षाएं बेकार,
राह देख,कांटे चुन
असहनीय पीड़ा चुनते काँटों की
सहन कर
स्व भुजबल पर विश्वास कर
राह नई बुन
आत्ममंथन कर।
अपेक्षाएं अंनत सागर समान
न स्वयं की नाव,न ही पतवार
निश्चित ही लहरों में बहना
नही कहीं बचाव।
हौसले बुलंद कर
अपेक्षाएं स्वयं से कर
लड़खड़ाते कदमों से ही सही
स्व जीवन चरितार्थ कर।

वीणा शर्मा।


II अपेक्षा II 

आशा.....

ज़िन्दगी में कितनी ज़रूरी है...

प्राण हैं ये....
बिना इसके जीवन निरर्थक सा है...
मृत्यूतुल्य......
जैसे कुछ है ही नहीं सब कुछ होते हुए भी....
बीमार शरीर तो अच्छा हो सकता है...पर मन...
जो आशा ही छोड़ दे...उसके लिए जीना मरने जैसा....

सब जानते हैं कि हर इच्छा पूरी नहीं होती...
फिर भी परेशान....
कुछ मौत का आलिंगन करते हैं...
बिना सोचे कि ज़िंदगी तो यही रहनी है...
कभी सुख...तो कभी दुःख और फिर...
किसने जाना कि दोबारा ऐसी ज़िन्दगी नहीं मिलेगी...
तो अभी की ज़िन्दगी जीने की जगह...
उसका अंत क्यूँ....
सिर्फ भावावेश में....
नहीं देखते की द्वन्द में भी आशा जीवित है...
दरअसल मरती है ही नहीं आशा...
बस हम देख नहीं पाते...पहचान नहीं पाते...
क्यूंकि हम खुद की अपेक्षा नहीं देख रहे...

शायद ऐसा हो...इसी द्वन्द में वो जीवित है...
पर हम आशा को बल ना देकर...
दूसरों की हमसे क्या अपेक्षा उनको सोच रहे...
अपनी कुंठाओं को बल दे रहे हैं...
अपने आप को न पहचान कर...
दूसरों को देख रहे हैं....
सिर्फ और सिर्फ दोष देने..लेने पे लगे हैं...
आशा भीतर ही भीतर दब के रह गयी है...
उसकी आवाज़ महीन सी आ तो रही पर...
हम ही नहीं सुन रहे हैं...
तभी जी नहीं पा रहे हैं....

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II


हे ईश, नमन तुम्हें
करो कृपा

करुणा भरो मुझमें
अहं हटाओ मेरी
उलझन में हूँ मैं
पाश काटोँ प्रभु मेरा

तुम हो नेति
उपकार करो मुझ पर
जरा,मरण गुण मेरा
हरो आधि,ब्याधि 

राग द्वेष से भरा मन 
स्तुति करूँ मैं तुम्हारी
नही मैं त्याज्य
अपनाओ मुझे
शरणागत वत्सला
हैं अपेक्षा तुमसे
हे प्रभु करो कृपा
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।




आज के परिवेश में करते 
किसी से हम अपेक्षा 
कौन है ऐसा हमें देगा 
नहीं बढ़ कर उपेक्षा ,,,,,,,1

हर किसी का आज जीवन 
व्यस्ततम होता यहाँ 
और सबकी आवश्यकता
है अपूर्ण अभी यहाँ,,,,,,,,,,,,,,,,2

फिर कहाँ किसकी सुनेगा 
कौन ऐसा है यहां 
जब स्वयं की अंतरात्मा
गुम हुई सबकी यहाँ,,,,,,,3

क्योंकि धन पीछे यहाँ 
सब भागने में व्यस्त हैं 
और सब इस व्यस्तता
से भी स्वयम ही त्रस्त हैं ,,,,,,,,4

आज जब रिश्ते यहां 
अपने पराये हो गए 
कह रही रेखा अरे 
किससे अपेक्षा तू करे ,,,,,5

इसलिये होगी अपेक्षा बस 
उसी से ही हमारी 
पूर्णता से पूर्ण जो प्रभु 
से अपेक्षा ही हमारी,,,,,,,6

स्वरचित ,,,,रेखा तिवारी



जिंदगी तुझसे क्या अपेक्षा करुँ
जन्म -मृत्यु के तटबंधों में
बहता है मेरा जीवन

कालिंदि सी लहरों सा 
कभी इठलाता बलखाता
बहता है
कभी उफान पर आजाए तो
तटबंध त़ोड़ सैलाब बन सब तहस-नहस कर जाता

बोल जिंदगी तुझसे क्या अपेक्षा रखूं
धरती -आकाश के मध्य
पंचतत्व से सज्जित जिंद मेरी है

अग्नि सी दहकती है,
हवा सी बहकती है
जल की रवानी है
धैर्य धरा का सा लेकर
शून्य सी मेरी जीवनी है ।।

डा.नीलम.अजमेर
स्वरचित




अपेक्षाओं से भरी है
जीवन की बगियां यहां 
कभी खुशी की अपेक्षा
तो कभी पाने की लालसा 

जीवन में छायी है मोह माया 
कोई भी इनसे बच नहीं पाया 
क्यों करते हैं अपेक्षा हम औरों से
जब हमें है स्वयं का साथ निभाना

दर्द खुद के जब सहना सीख लेंगे
हम महफिल में मुस्कुराना सीख लेंगे
क्यों डरें किसी की रुसवाई से हम 
करें हौसला आफजाई स्वयं का हम

#दीपमाला_पाण्डेय 
रायपुर छ.ग.
स्वरचित 19.08.2018



ह्रदय में समाई हैं विशाल अपेक्षायें
गोते लगा रही हैं ह्रदय के भवसागर में .


बूँद-बूँद बनकर मचल रही हैं ह्रदय की अपेक्षायें
मन के द्वार पर बनकर सायें की तरह .

छोटा सा ह्रदय हैं पर विशाल हैं अपेक्षायें
कभी तो पूर्ण होगी मन की अभिलाषायें .

दिनकर की राह चली हूँ पूरी करने ह्रदय की अपेक्षायें
पूनम के चाँद की तरह मन मस्तिष्क में समाई हैं अनन्त कामनायें.

गगन को छूने की कभी हैं अपेक्षायें
कभी तितली बनकर उडने की .

प्रकृति की हरियाली में खो जाने की 
कभी पंछी बनकर उड़ने की .

दिल में समाई हैं अनन्त अपेक्षायें
अनंत अभिलाषाये.
स्वरचित:- रीता बिष्ट

बहुत कम होता हैं रिश्तों में 
किसी को किसी से कोई अपेक्षा न हो,
माता-पिता को संतान से,
गुरू को शिष्य से,
पति को पत्नी से,
और इसके उलट भी,
सभी को एक दूसरे से
अपेक्षाएँ रहती है ,
अपेक्षा पर खरे उतरना ही
किसी रिश्ते की मजबूती 
का आधार है,
समझ लो रिश्ते या संबंध 
भावनाओं का व्यापार हैं,
जब तक लेन-देन बराबर हैं
संबंधों में प्रेम की बहार है,
वरना एक इस पार है, 
एक उस पार हैं,
इसीलिए कहते हैं ,
वो रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं
जिनमें बेइंतेहां प्यार हैं..
-मनोज नन्दवाना


अपेक्षा अपनों से परायों से मित्रों से
अपेक्षायें हैं कितने कितनों से

अपेक्षा भाग्य से सपनों से आशाओं से
अपेक्षायें हैं जीवन की राहों से

अपेक्षा धरा से गगन से हवाओं से
अपेक्षायें हैं उषा की लाली से

अपेक्षा मिट्टी से धूप से बरसातों से 
अपेक्षायें किसानों के श्रम से

अपेक्षा दिन से निशा से संध्या बेला से
अपेक्षायें हैं जलते चरागों से

अपेक्षा नौनिहालों से शिक्षकों से ज्ञान से
अपेक्षायें हैं ज्ञान और प्रतिभा से

अपेक्षा ललना से वीरों से नौजवानों से 
अपेक्षायें हैं माता के आँचल से 

अपेक्षा परिवार से समाज से स्वराष्ट्र से
अपेक्षायें हैं प्रेम और विश्वास से

स्वरचित पूर्णिमा साह बांग्ला




१-
वर्ण पिरामिड -

है
सही
प्रतीक्षा
दो परीक्षा 
आगे बढ़ जाओ
मत करो अपेक्षा 
#
२-
ताँका-
बनो सक्षम 
छोड़ो सभी बैशाखी
अपेक्षा स्वयं
बना देती अपंग
न लो इसका संग
#
- मेधा (मेधा नारायण).




"अपेक्षा"

क्यूँ करूँ अपेक्षा किसी से,
है मन में हिम्मत भरपूर,
क्यूँ घबराऊँ बाधाओं से,
पा लूँगी लक्ष्य हो चाहे कितनी दूर,

अपेक्षाएँ बनाती हैं कमजोर,
ढूँढेंगी निगाहें सहारा चहुँ ओर,
कर हिम्मत बढ़ा कदम तू,
अंधियारे के बाद आएगी भोर,

अपेक्षा की लेकर ढ़ाल,
हो जाएगा जीवन बेकार,
चमकेगा किस्मत का तारा,
जलने को रहो तैयार।

स्वरचित-रेखा रविदत्त
18/8/18
शनिवार


(1)
मुरझे फूल 
दबता बचपन 

अपेक्षा शूल


 (2)
कहते गुरु 
अपेक्षाओं की मृत्यु 

जीवन शुरू

 (3)
मन को बाँध 
अपेक्षाओं ने ठोकी 

दुःख की कीलें

(4)
तैरता क्रोध
अपेक्षा के सागर 
डूबता मन





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