Sunday, February 2

स्वतंत्र लेखन "02फरवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-644
2/2/20

बहा दो ज्ञान की गंगा
शरण मे तेरी माँ आये है।

तुम्ही से ज्ञान की महिमा।
तुम्ही से संगीत की दुनिया।
मेरे मन मे ज्ञान भर दो.।
शरण मे तेरी माँ आये है।

पुस्तक में वास है तेरा।
कंठो में वास है तेरा।
मिटा तम उजाला कर दो।
शरण मे तेरी माँ आये है।

कृपा जिसपर तेरी होती।
नही उससा कोई व्यक्ति।
छोटा सा ही दीप जला दो माँ।
शरण मे तेरी माँ आये है।

तुम्ही स्वर और व्यंजन हो।
तुम्ही से व्याकरण अलंकृत।
कलम की साधना हो तुम।
शरण मे तेरी माँ आये है।

स्वरचित
मीना तिवारी
विधा काव्य
02 फरवरी 2020,रविवार

खेतों मध्य कुटिया शौभित
घांस फूस की बनी झोपड़ी।
सनन सनन सन चले हवाएँ
दांत बोले कंप रही खोपड़ी।

जय किसान प्रिय भारत के
खून पसीना सदा बहाता।
लाख मुसीबत आने पर भी
भूमि पुत्र कभी न कराहता।

मिट्टी उसका प्रिय है गहना
मिट्टी को नित स्वर्ण बनावे।
मिट्टी वास निवास सदा से
मिट्टी में नित सुमन खिलावे।

मोटा खावे मोटा नित पहने
वाह किसान तेरे क्या कहने।
है भारत प्रिय भाग्य विधाता
तुझे देख लगे आँख बहने।

जय जवान हिम खण्डो पर
करे सुरक्षा मातृभूमि की।
क्या न सहता वह देश हित
लोह वज्र छाती सैनिक की।

हाड़ कंपाती सर्दी सहकर
सदा उबलता रक्त सिपाही।
पर हित जीना पर हित मरना
मतलब नहीं क्या वाहवाही?

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

#सत्य पारखी बनना होगा#
#वरना हमें सर धुनना होगा #


असली हीरो देखो यारो
पर्वत की कंदराओं में।।

दुश्मन पर वो निगाह रखें
जब रहवें हम निद्राओं में।।

फूल भी खुद पर गर्व करे
जो वीरों के गजराओं में।।

हम हैं कि डूबे हैं अपनी
मस्ती अपनी मदिराओं में।।

घर में हम झगड़ा करें जवान-
मरें सियासती राहों में।।

घटिया राजनीतियाँ करके
जीत जायँ हम चुनावों में।।

कदर करो कुछ वीरों की तुम
क्या जज़्बा उन माताओं में।।

हँसते हँसते भेज दिया है
निज लाल को सीमाओं में।।

सुहागनियों का सिंदूर बख़्शो
न जाओ ऐसे गुनाहों में।।

जिनसे निर्दोष शहीद होयँ
फिजुल निष्ठा उन आक़ाओं में।।

कुर्सी का बस लोभ जिन्हें है
मत पड़ो उनकी रज़ाओं में।।

सत्य के पारखी बनो 'शिवम'
छा जाओ तुम चर्चाओं में।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 02/02/2020
2 /2/2020
बिषय स्वतंत्र लेखन

आज हमने भावों के शब्दों को तराशा है
कलम हमारी चलती रहेगी मन में यही आशा है
नित नव शीर्षक से उठती नई उमंग है
लहरा लहराकर चलती मेरी कलम है
कभी हैं भावुक कभी दर्द तो हँसी की बारी है
मोतियों की माला जैसी सजाई काव्य क्यारी है
चुन चुन अक्षर कविता थाल सजाई है
होता हृदय आल्हादित गूंज रही शहनाई है
करती हूं मंथन कविता में गोते लगाती हूं
शुशोभित कर शब्द माल को भावों के मोती को पहनाती हूं
स्वरचित, सुषमा, ब्यौहार

मनपसंद विषय लेखन
दिनांकः-2-2-2020

वारः-मंगलवार
विधा छन्द मुक्त

शीर्षक सब के दाता राम फिर क्यों करे कोई काम (हास्य वंग्य)

एक चाचाजी अपने सिर को धुन रहे थे।
अपने लड़के की शिकायत कर रहे थे।।

बहुत देर तक है वह तो सोता ही रहता ।
रत्ती भर भी काम,वह है ही नहीं करता।।

शान से तो वह, नबाबों की ही है रहता।
कानी कौड़ी भी कमा कर नहीं है लाता।।

कहा मैने उनसे, चाचा जी हमारी सुनिये।
सिर अपना हुजूर आप किंचित न धुनिये।।

चलता पीछे सरकार के लेता राम का नाम।
करने से काम, नहीं उनका कोई भी काम।।

अजगर तथा पंछी भी, करते नहीं है काम।
समस्त जग है जानता सब के दाता राम।।

पागल नहीं पुत्र आपका करे जो कोई काम।
सबको देते , देंगे उसको भी भगवान राम।।

छोड़ दो सब कुछ आप अब राम के नाम ।
उसे देंगे एक दिन सदबुध्दि,भगवान राम।।

चिंता न करो चाचाजी बन जायेगा यह नेता।
नेता को तो भगवान भी सब कुछ ही तो देता।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी
स्वरचित
भावों के मोती।
मनपसंद विषय सृजन।
शीर्षक-आत्मसम्मान।
स्वरचित।
आत्मसम्मान से ज्यादा कुछ नहीं मेरे लिए!!
छोड़ना पड़े तो सारी सुविधाएं छोड़ दुंगी।
तोड़ना पड़े तो सारे बंधन तोड़ दुंगीं।
समझौता आत्मा का कभी नहीं!

चाहे जग से हार भी जाऊं मैं।
जंग जिंदगी की ना लड़ पाऊं मैं पर
अन्त:करण पर बोझ कभी नहीं,कभी नहीं!
हो सकता है कि अपने भी साथ छोड़ दें लेकिन
आत्मसम्मान से ज्यादा मेरे लिए कुछ नहीं,कुछ नहीं!!

प्यार में स्वयं आत्मसमर्पण तो कर सकती हूं।
अपनों के लिए मर-मर कर जी सकती हूं।
ठोकरें दर-दर की भी खा सकती हूं मैं।
मन पर ठेस पहुंचाये कोई,सहन नहीं।

नारी हूं ,कमजोर नहीं समझो तुम मुझको।
करूणा,दया,ममता,धैर्य,नम्रता सब गुण हैं मेरे।
तुम समझते कमजोरी जो,वो मेरे मन की मजबूती हैं।
पर सबसे बढ़कर आत्मसम्मान मेरा,मुझको प्यारा।
इससे बढ़कर कुछ नहीं,कुछ नहीं,कुछ भी नहीं।।

*******
प्रीति शर्मा "पूर्णिमा

दिनांक : 2 फरवरी 2020
विषय : न्याय

विधा : पद (छंदबद्ध कविता)

निर्भया की माँ रोती देखी

भारत माता भी भावुक होकर आज धैर्य खोती देखी ।
फुटपाथ पर फूट-फूटकर, निर्भया की माँ रोती देखी।।

वकील विपक्षी चैलेंज करें कि फाँसी नहीं होने देंगे ।
कोट , पैंट और टाई की हम हाँसी नहीं होने देंगे ।।
असहाय अकेली लज्जित माँ,आँसू से मुँह धोती देखी।
फुटपाथ पर फूट-फूटकर ,निर्भया की माँ रोती देखी ।।

बिना कुसूर पंख कटते हैं , उड़ते आकाश परिंदों के ।
जमीर जजों के बिके हुए, जो लेते पक्ष दरिंदों के ।।
गद्दार गोद में न्याय व्यवस्था सरेआम सोती देखी ।
फुटपाथ पर फूट-फूटकर निर्भया की माँ रोती देखी।।

घायल बीच सड़क पर बेटी, रोयी खूब राजधानी में।
सात साल तक न्याय मिला ना,कसर नहीं हैरानी में ।।
"आग लगा दी पानी में"वो ही बात सफल होती देखी।
फुटपाथ पर फूट-फूटकर निर्भया की माँ रोती देखी।।

बेटी बचाओ व पढ़ाओ , न्याय नारे की चीख माँगती ।
निर्भया की माँ झोली फैला,रो न्याय की भीख मांगती।।
भारत माता पोट पाप की ,सिर पर रखकर ढोती देखी ।
फुटपाथ पर फूट -फूटकर , निर्भया की माँ रोती देखी ।।

नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना
मौलिक"
दिनांक-02/02/2020
स्वतंत्र सृजन


एक पुरुष ने प्रेम लिखा
रची रिश्तो की नयी परिभाषा।
एक स्त्री ने ख्वाब लिखा
दर्द शयनकक्ष की अभिलाषा।।
एक पुरुष ने तन का भूगोल लिखा
स्वप्नों की अनोखी जिज्ञासा।
एक स्त्री ने बैरन स्मृतियां लिखी
तब बदल गई स्याह अंधेरा की भाषा।।
एक पुरुष ने इतिहास लिखा
सांद्र मादकता की आशा।
एक स्त्री ने चित्कार ,करुण पुकार लिखा
दर्द खंडहरों की घोर निराशा ।।
एक पुरुष ने प्रेरणा लिखी
विकल्पों की नई-नई जिज्ञासा।
एक ही स्त्री के कैद हुए सपने
जैसे चौसर की बिसात पर पासा।।
रिश्तो की जंग हार गई......... स्त्री
बस रह गई नक्शे की एक सांचा।।
एक स्त्री ने यातना लिखी
बिस्तर सिलवट पे तन भूगोल का।
जब उसको महसूस हुआ
रक्त लिखा ब्रह्मांड के खगोल का।।

स्वरचित
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज
2_2_2020
विषय स्वतंत्र


जानता है मेरा जिद्दी मन
कि तुम न आओगे
फिर भी न जाने क्यूँ
करता है इन्तज़ार तुम्हारा
आँखों में नमी
और मुस्कुराते से ये अधर
देखता है बेचैन मेरा मन
तुम्हे इधर उधर
महसूस होती है महक
हवाओं में तुम्हारी
हर आहट में आती है
सदा ही तुम्हारी
तुम्हारे जाने का गम
नही हुआ है अभी कम
फिर भी खुशफहमी की
बाँध आँखों में पट्टी
ढूंढती हूँ तुम्हें
पेड़ो के पीछे
नदिया किनारे
मगर नही कहीं भी
ना महक न सदा तुम्हारी
फिर भी न जाने क्यूँ
इन्तज़ार करता है
मेरा जिद्दी मन
पाने को एक झलक तुम्हारी

स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
2.2.2020
रविवार

विषय -
मन पसंद विषय लेखन

ऋतु बसंत
🌹🌹🌹

बसंत है तरंग है
बहार है उमंग है
जीत ज़िन्दगी की है
मन बना मलंग है ।।

लहर ख़ुशी की छा गई
दिशा भी गुनगुना गई
फ़िज़ाँ में गुल खिले-खिले
नित नई उमंग है।।

नई हैं कोपलें खिली
कली-कली खिली -खिली
भ्रमर हैं गुनगुना रहे
कि मौसम-ए-अनंग है ।।

धुला -धुला गगन भी है
महक रहा अँगन भी है
निशा में चाँदनी सजी
ख़ुमार है उमंग है ।।

खिली-खिली सी धूप है
इन्द्रधनुषी रूप है
धरा है लहलहा रही
लहर -लहर तरंग है ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘
उनके चेहरे से पहचान होती नहीं।
....... जिनके दिल में कुटिलता का वास हो।
मीठी मीठी बातें करते रहते हैं।
.......मिश्री बातों में घोलते रहते हैं।
पर जिनके भी पीछे पड़ जाते हैं वो।
........कर देते हैं उनका सत्यानाश वो।
उनके चेहरे से पहचान होती नहीं।
........ जिनके दिल में कुटिलता का वास हो।

कैसे कैसे लोग हैं इस जहां में।
........ गंदगी भरी हुई है उनके दिलों में।
उस गंदगी को निकाल सकते नहीं।
........ चाहे जीवन में उनका सर्वनाश हो।
उनके चेहरे से पहचान होती नहीं।
......... जिनके दिल में कुटिलता का वास हो।

....... वीणा झा.......
बोकारो स्टील सिटी
....... स्वरचित.......
विषय- स्वतंत्र
दिनांक २२-२०२०
शांति तलाश में,दर-दर क्यूं भटक रहा आदमी।
अति पाने की लालसा,सुख चैन खो रहा आदमी।

अपनी ही शक्ति को,नहीं पहचान रहा आदमी।
कांख छोरा गाँव ढिंढोरा,यथार्थ कर रहा आदमी।

शांति का संदेश लेकर,घर घर घूम रहा आदमी।
मन व्याप्त अशांति,कोरा उपदेश दे रहा आदमी।

कथनी करनी में फर्क,अब मन रख रहा आदमी।
शांति सद्भावना की कोरी बातें, कर रहा आदमी।

द्वैष के दलदल से बाहर,नहीं आ पा रहा आदमी।
अपने ही कर्मों की सजा,वो देखो पा रहा आदमी।

लग रही हर कदम ठोकर,नहीं संभल रहा आदमी।
लोगों की बातों में आ,आज भी बहक रहा आदमी।

एक इंच जगह के लिए,भाई से लड़ रहा आदमी।
खून रिश्ते भूला,आंगन दीवार बना रहा आदमी।

कहती वीणा प्रभु सोचे, मैंने क्या बनाया आदमी।
आदमी को अपनी ही औकात,दिखा रहा आदमी।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
दिवस - रविवारआयोजन - स्वतंत्र
----------------------*-
शीर्षक - पतंग
लघुकथा
~•~
मन विचलित था हृदय द्रवित पलकें भींगी ह़ोठ भींचे हुए लड़खड़ाता मैं चला जा रहा था अपनी जवान बेटी के अचानक देहांत पर घनघोर अंतर्मुखी हो गया था आँखों के सामने चलचित्र सी छवि में लाडली कहती है पापा मै बि. ए. पास कर ली अभी-अभी नेट पर देख कर आरही हूँ मैं
पापा आप देखना एक दिन मैं आपके बेटे की कमी पुरा करके ये साबित कर दुंगी की बेटीयाँ बेटे से कम नहीं होती हैं ।
लेकिन तभी वो चलचित्र गायब हो गया क्योंकि मेरे कानों में किसी बच्चे के रोने की आवाज जो आगयी थी जिस वजह से - मेरी तंद्रा टूटी तो खुदको गाँव के बाहर प्रथमिक पाठशाला के नजदीक पाया जहां मेरे पड़ोसी शर्मा जी अपने लड़के को पतंग उड़ाने को प्रेरित कर रहे थे किन्तु उनका लड़का रो-रो कर कहे जा रहा था कि-
पापा मुझे क्यों नहीं बताते माँ कहाँ चली गयीं यह सुन कर मैं भी जिग्यासु हो उठा यह जानने को कि देखें तो शर्मा जी क्या बताते हैं बच्चे को जबकि कुछ ही हप्ते पहले तो शर्माईन जी सिधार गयी थीं
और हमें देखिए खुद अपना दुख कुछ क्षण भूल गया सायद इसे ही कहते हैं लोहा लोहे को काटता है
उधर शर्मा जी बच्चे को समझा रहे थे -
बेटा यह पतंग तो पहले उड़ाओ फिर इस पतंग के माध्यम से ही मैं तुम्हें बताऊंगा कि तुम्हारी मां कहां गई बेटे ने कहा ठीक है पापा मैं पतंग उड़ा लूंगा लेकिन आपको भी बताना पड़ेगा कि मां कहां गयीं
ये क्या शर्मा जी ने चुपके से पतंग की डोर काट दी और बच्चा रोने लगा पापा मेरी पतंग तो कट गई देखिए ना पतंग उड़े चली जा रही है कितनी दूर जाकर गिरेगी मैं उसे कैसे वापस लेकर आ सकता हूं शर्मा जी ने कहा बेटा ठीक ऐसी ही तुम्हारी मां भी भगवान द्वारा उड़ाई गई पतंग थी लेकिन तुम्हारी मां दो डोरियों में बधी थी एक यहां के हमारे तुम्हारे रिश्ते की डोर थी और एक जो भगवान के हाथ में थी भगवान यहां की डोर काट दिए और अपने पास उस पतंग को वापस खींच दी अब हम तुम भगवान के घर जाकर तो उनको वापस ला नहीं सकते इसलिए बेटा अब संतोष करो
पिता पुत्र की वार्तालाप सुनकर मुझे भी बड़ा ढाढस मिला कि ठीक ही तो कहते हैं शर्मा जी जब सब की डोर भगवान के हाथ में है और एक दिन सभी को भगवान के पास चले ही जाना हैं तो सिवाय संतोष के और किया भी क्या जा सकता है
सन्तोष परदेशी
भावों के मोती
दिनांक - ०२/०९/२०२०

विषय - मनपसंद लेखन

अल्हड़ उम्र के सपनीले दौर
से गुजर रहीं थी
माँ पापा ने संसार की रीत को निभा कलेजे के टुकड़े को
अंजान हाथ में थमाया
शिक्षा व सीख की कडवी दवा
का घूंट मुझको साथ में पिलाया
वहां भी अपने है सब तुझे सबको दिल से होगा अपनाना निभाना है
हर हाल में तुझको
ये सात फेरों का गठबंधन ये
समझाया
मंत्रोच्चार के साथ अग्नि के समक्ष अंजान के हाथ में अपना हाथ रख सप्तपदी की शुभ रस्म को निभाया
सिंदूर से मांग भरी तो घूंघट की आड़ में कनखियों से देखा कि ये पिया है सात जन्मों के लिये ईश्वर नें मेरा साथी इन्हें है बनाया... जिया मंद मंद मुस्काया
नये जीवन की उमंगों झौंका सा लहराया
कदम रखा साथ उनके संसार में तो मानों सब कुछ था ऊनी गोले सा कोई छोर समझ नहीं आया
सीख समझ व धैर्य से
नये परिवेश के
इन उलझे ऊनी गोले के धागों को सुलझाया
सयंम की सिलाईयो से
एहसास व जज्बात के फंदों से नीवं
का पत्थर लगाया
कहीं कोई फंदा छूट या खुल ना जाये इस डर ने बहुत सताया
एहतियात से
विश्वास व शिद्दत से
इमारत को तैयार कर
प्यार से घर बनाया
हमारी हमारे अपनो की
रंग बिरंगी ख्वाहिशों
से इसको सजाया....
अपनी हर जिम्मेदारी को
को निभाया
स्नेह मान सम्मान सबसे पाया
ये सब पाया तो साथ तंज व दर्द का नजराना भी संग हिस्से में आया
जीस्त के हर सर्द मुश्किलों से
निबाह करते करते ये तन- मन मेरा बहुत ठिठुराया
गर्माहट रूपी सुकून सा तेरे आँचल का स्वेटर "माँ"
याद बहुत मुझको आया

आशा पंवार
विषय--स्वतंत्र लेखन
विधा--कहमुकरी
----------------------------
सुन बातें नैना मटकाए
मेरी बातों को दोहराए
संग मेरे वो हँसता रोता
का सखि साजन... ‌? ना सखि तोता।

मन को मेरे अति हर्षाता
प्यासे तन की प्यास बुझाता
जिसका रूप लगे मनभावन
का सखि साजन...?ना सखि सावन।

बगिया में वो फूल खिलाता
चुन-चुन कलियाँ हार बनाता
देख जिसे झूमे हर डाली
का सखि साजन...?ना सखि माली।

मन की गहराई में जाता
जो सच है बाहर ले आता
झूठे मनका करता तर्पण
का सखि साजन...?ना सखि दर्पण।

सुबह-सुबह से मुझको छेड़े
घर की छत पर मुझको घेरे
छूने से जुल्फें लहराई
का सखि साजन...?ना सखि पुरवाई।

मेरे आगे-पीछे डोले
लगता है मुझसे कुछ बोले
मेरे मन को है अति भाया
का सखि साजन...?ना सखि साया।

***अनुराधा चौहान***स्वरचित
स्वपसंद
छंदमुक्त कविता


एक हकीकत

है जिन्दगी से
मौत सुहानी
न रूठने का
गम
न मनाने का
झंझट

मुकाम तलक
पहुंचाने
चार ही चाहिए
नहीं है
शौक हमें
भीड़ बढ़ाने का

बड़ा सुकून
देती है मौत
न गरमी की
चुभन
न सरदी की
ठुठरन

बस करता हूँ
मैं इबादत
मौला की
चिंता नहीं मुझे
दुनियां की

रहना चाहता हूँ
मैं
बन कर फकीर
शानौ-शौकत की
नहीं चाह मुझे

खुला रखना
चाहता हूँ
हर पन्ना
मैं किताब का
कर सके
मुआयना
हर कोई अपना

अपने में मस्त
रहता है
"संतोष"
बहुत नहीं
बस रखता है
दोस्ती मौत से

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
दिन :- रविवार
दिनांक :- 02/02/2020

विषय :- स्वतंत्र
विधा :- मुक्तक

1)
धर्मनिरपेक्षता का हर पैमाना समान रहने दो,
अकबर व महाराणा दोनों को महान रहने दो।
मत करो तुष्टिकरण तुम हम हिंदू मुस्लिम का,
गीता को गीता और कुरान को कुरान रहने दो।

2)
तिरंगे के तीनों रंगों का सम्मान रहने दो,
लहराये खुलकर ऐसा आसमान रहने दो।
मत घोलो जहर दिलों में अवाम के तुम,
हर दिल में जगमगाता हिंदुस्तान रहने दो।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश
दिनांक : 02/02/2020

यह आग

मिट रहा आपस में प्यार ,
हिंदू मुस्लिम में तकरार ।
सदभाव का रूप दिखे ना ,
कौन लाया मजहबी दीवार ।
विविधता थी शान देश की
किसने आज घटाई है,
जल रहा है देश सारा ,
यह आग कहाँ से आईं है ।
क्यूँ सत्ता के हाथों बिक गए ,
अल्लाह ओर राम ।
क्यूँ देश को लगे डुबोने ,
अब नेता बेईमान ।
क्यूँ नहीं कहते मुस्लिम भी तो
अपने ही सब भाई हैं ,
जल रहा है देश सारा ,
यह आग कहाँ से आईं है ।
काम करो ओर वोट मांगों ,
धर्मों को आगे मत लाओ ।
जल उठेगा वतन हमारा ,
दंगों को मत भड़काओ ।
अमन शांति लापता क्यूँ ,
घृणा की बदरी छाई है ,
जल रहा है देश सारा ,
यह आग कहाँ से आईं है ।
मैं हिंदू हूँ जन्म से लेकिन,
मुझे किसी से वैर नहीं ।
हिंदुस्तानी है हर नागरिक ,
कोई भी तो गैर नहीं ।
फूट डालो ओर राज करो ,
क्यूँ नीति अपनाई है ,
जल रहा है देश सारा ,
यह आग कहाँ से आईं है ।
अब ना बांटो देश को मेरे ,
मजहबों के नाम पर ।
सब धर्मों ने दी कुर्बानी ,
आज़ादी के नाम पर ।
वीर भगत कभी मंगल पांडे
कहीं मदनी ने जान गंवाई है ,
जल रहा है देश सारा ,
यह आग कहाँ से आईं है ।
जल रहा है देश सारा ,
यह आग कहाँ से आईं है ।

जय हिंद
स्वरचित : राम किशोर " राम " ।
🌹सूखे रिश्ते,गीत🌹
02.02.2020
***
************
ढूंढ रहे सम्बन्धों को
जिन पर हाय नजर लगी
प्रेम कली जो महकी रहती
सूख न जाने कहाँ गिरी?

चली हवा थी सर सर सर
भटक गया पत्तियों का झुंड
ढूंढ न पाए अपनी पत्ती
भूल गया क्या खुद का मन?

प्रेम किया गर पत्ती से तो
स्नेह निशानी दी होगी
सूख गई पत्ती तो क्या
अमर निशानी तो होगी?

जाँच परख ले अपने मन को
नमी कहीं क्या है बाकी
ले ले सारी सूखी पत्तियां
बना खाद फिर महके क्यारी।

सदा कहाँ रहता है सावन
पतझड़ जीवन का हिस्सा
निर्वाहन हो प्रेम अगर तो
फलीभूत जीवन का रिश्ता।।

स्वरचित,
वीणा शर्मा वशिष्ठ, पंचकूला।
विषय-स्वतंत्र लेखन

विधा-कह मुकरी

कह मुकरी

(1)

उसके सँग मैं हँसती रोती
चैन जिया का पल पल खोती।
छुपा है मन में वह अपना
क्या सखि साजन? ना सखि, सपना

(2)

काली निशि में छुप कर आया
उस आहट से मन घबराया
आया वह कमरे की ओर
क्या सखि साजन ?ना सखि , चोर!

(3)

जलद -नाद सुन गीत सुनाए !
नाचे थिरके ह्र्दय लुभाये!
सजीले रूप का चितचोर!
क्या सखि साजन? ना सखि, मोर

(4)

सिगरी रात ठंड अति लागी!
उसके बिना रात भर जागी!
लगे नहीं जरा अब सम्बल!
क्या सखि साजन?ना सखि,कम्बल!

(5)

नैनों में अति मद बिखराया!
मदिर हिया में प्रेम जगाया!
उसके लिए अनुराग अनंत!
क्या सखि साजन?ना सखि ,वसंत

आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश
झूठे-सच्चे ख्वाब सजाना छोड़ दिया।
अरमानों के बाग लगाना छोड़ दिया।


जब से इन हाथों में आया मोबाइल है।
सब लोगों ने आवाज़ लगाना छोड़ दिया।

इतनी सीलन है रिश्तों में आज कहूं।
माचिस ने भी आग जलाना छोड़ दिया।

भूख बनीं दुश्मन क्यों पेट नहीं भरता।
जबसे अपने घर का खाना छोड़ दिया।

पूछा जो दिया क्यों जवाब हाथ पैरों ने।
तुमने जो सुबह घूमने जाना छोड़ दिया।

जबसे हमको दी दाद तुम्हारी आंखों ने।
हमने भी महफिल में गाना छोड़ दिया।

रुसवा ना हो जाओ तुम दुनिया में सोहल।
बस नाम तेरा होंठों पर लाना छोड़ दिया।

विपिन सोहल

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"अंदाज"05मई2020

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