Sunday, February 9

स्वतंत्र लेखन "09फरवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-651
दिनांक- 09/02/2020
स्वतंत्र लेखन के तहत*

ग़ज़ल
मापनी-1222 1222. 1222. 1222
क़ाफ़िया- अत स्वर
रदीफ़-ही नहीं होती।
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तुम्हें दिल थामकर मेरा मसर्रत ही नहीं होती ।
दिया है दिल तुम्हें मैंने मुहब्बत ही नहीं होती ।।
**********************************
तुम्हारी ज़ुल्फ़ को ख़शबू चुरा लाया चमन से मैं,
करूँ अब क्या तुम्हें दे दूँ सहूलत ही नहीं होती ।।
************************************
हमारी आशनाई का इजारा तुमको जाता है,
मगर दिल में तुम्हारे क्यूँ मुरव्वत ही नहीं होती ?
************************************
तुम्हारा नाम ले लेकर गुज़ारी हैं कई घड़ियाँ,
तुम्हें लेकिन सदा सुनने तबीअ़त ही नहीं होती।।
*************************************
जहाँ रहते हैं हम यारो! न दीवारें न छत ही है,
मज़ा तो यह किसी घर की ज़रूरत ही नहीं होती।।
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'अ़क्स' दौनेरिया
विषय मन पसंद विषय लेखन
विधा काव्य

09 फरवरी 2020,रविवार

जीवन जीना बड़ी कला है
लक्ष्य नसीब से नहीं मिलते।
कीचड़ की बदबू सहकर ही
सर सरोज सरोवर खिलते।

दैहिक दैविक भौतिक विपदा
आती जाती रहती जीवन में।
बीज सदा भूमि तल जाकर
हरियाली भरता उपवन में।

शिल्पकार चोट को सहकर
पाहन टुकड़ा मूरत बनता ।
छीनी और हतौड़ा खाकर
प्रभु मूरत बन पीड़ा हरता ।

जग जीवन संघर्ष है मित्रो
संघर्षी नर सब कुछ पाता ।
खून पसीना सदा बहाकर
मङ्गल गीतों को नित गाता ।

कर्म शक्ति है कर्म भक्ति है
कर्म करो जीवन सुख लाना।
परोपकार से जीवन जी लो
ये जीवन बस आना जाना ।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

दिनांक-09/02/2020
स्वतंत्र सृजन...


सजल हृदय पथ का साथी हूं......

तुम हो कुसुमित पुष्प प्रिये
मैं हूं तेरा निश्चल अनुरागी
हृदय द्वार पर खिल जाओ तुम
बना रहूंगा अविरल सहभागी
पायल की हर झुनझुन पर तेरे
प्राण न्योछावर है सारा
मलयलिन अलको पर ओढे़
नभ के चादर का हर तारा
नयनों के शीतल झरने में
गजगामिनी सी पलकें भारी
बांध लिया आगोशो के ओसों में
मेघो का मँडराना है जारी
कंगन की हर खनखन पर तेरे
रचूँ छंद मैं जग का सारा
जब -जब महके के आंचल तेरा
जगमग -जगमग चमके
नभ मंडल का हर तारा
हृदय ऐश्वर्य को स्फुरित करो तुम
पुष्प जग का प्रथम सुगंध होवे न्यारा
मिले रूप दर्शन लावण्य यह तेरा
चुम्बित बसंत के प्रथम तरंग से
पुलकित हो जाए विह्वल मन मेरा

स्वरचित

सत्य प्रकाश सिंह
इलाहाबाद
🙏!!औरों का गम अपना बना लो!!🙏
🙏
!!प्रभु से सच्ची प्रीति लगालो!!🙏

तीन किलो तेल लाया था
कब का वो खतम हो गया !

मंहगाई का आज ऐसा
सब पर जुल्मोसितम हो गया!

रामधनिया घर आया बनिया
देखकर दिल मिरा नम हो गया!

बेचारा वो गिड़गिड़ाया
धंधा अभी मिरा कम हो गया!

चुका देंगे सब सूद सहित
बनिया वो गरम हो गया!

बेटी सम्मुख बका अनर्गल
ज़माना बेशरम हो गया!

बूढ़ा बाप बैठा था वहीं
बेचारा वो बेदम हो गया!

देख कर वो दृश्य मेरा ये
दिल का धड़कना कम हो गया!

सोचूं मैं बनिया को पकड़ूँ
उसका गम मिरा गम हो गया!

ये दृश्य आँसू दिए और मैं
हरि शंकर से 'शिवम' हो गया!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 09/02/2020
।। तिरंगा लहराया ।।

इस देश का भाग्य विधाता

जिसने बुना यह ताना-बाना
आज़ादी का लहरा के परचम
नया जिसने पथ दिखलाया।

कोट-पैंट सब छोड़छाड़ कर
देह पर धोती मात्र लपेटकर
गुरु गोखले की सलाह मानकर
देश भ्रमण का मार्ग अपनाया।

लड़खड़ाते पैरों में जोश भरकर
हाथ मे अहिंसा की लाठी लेकर
गाँव-गाँव मे अलख जगाकर
हिंदुस्तान का गौरव बतलाया।

काँटो के पथ पर चलकर
घर-महलों को भी छोड़कर
हाथ मिलाने आज़ादी से
वह वीर महात्मा कहलाया।

पहले आंदोलन अवज्ञा अपनाया
फिर स्वदेश का चरखा चलाया
दांडी-मार्च की यात्रा करके
अंग्रेजों को अपना हाल बतलाया।

करो या मरो का नारा देकर
भारत छोड़ो का सहारा देकर
रोक न पाया देश को कोई
आसमान में तिरंगा लहराया।

भाविक भावी
Shriram Sahoo द्वि
🎂🎂🎂🎂🎂🎂
आदमी & बाज़ार
*****
**********
💐💐💐💐💐💐
आदमी ने खड़ा किया बाज़ार
अब आदमी खड़ा है बाज़ार में

मानव ने बनाई मशीनें
निगल रही मशीनें अब उसीको

आदमी ने दिखाए रस्ते; और
खड़ा है आदमी अब चौराहे पर

आदमी ने बनाये अपने लिए सुरक्षा घेरा
अब वो खड़ा है*बेख़ौफ़* कटघरे में

मनुष्य ने जुटाई अंतहीन सुविधाएँ
अब वो घिरा है अनंत असुविधाओं से

आदमी ने किया वक़्त को बर्बाद अब
काल कुतर रहा उसे दीमक की तरह
💐💐💐💐💐💐
श्रीराम साहू अकेला
अंकुर साहित्य मंच
बसना,36 गढ़
विषय मुक्त सृजन।शीर्षक- भारतीय नारी।
स्वरचित।

मां भारती के देश में जलती हैं नारियां।
अन्याय और शोषण में पिसतीं हैं नारियां।।
मां भारती के देश में जलती हैं नारियां।
अन्याय और शोषण से पिसती हैं नारियां।।

माता के रूप में वो ममता की खान हैं।
गृहणी के रूप में वो हर घर की शान हैं।
फिर भी पैरों की जूती कहलाती नारियां।
फिर भी पैरों की जूती कहलाती नारियां।।
मां भारती.....

बहना के रूप में वह स्नेह का मान हैं।
बेटी के रूप में लक्ष्मी का दान हैं।
फिर भी लांछना को ढोती हैं नारियां।
फिर भी लांछना को ढोती हैं नारियां।।
मां भारती.....

नारी की पहचान ही घर-भर की जान है।
नारी की अस्मत ही घर भर की आन है।।
फिर भी तो सरेआम लुटती हैं नारियां।
फिर भी तो सरेआम लुटती हैं नारियां।।
मां भारती ....

श्री राम से भी पहले सीता का नाम है।
श्री श्याम से भी पहले राधा का नाम है।
फिर भी पुरुष नाम जानी जाती नारियां।
फिर भी पुरुष नाम जानी जाती नारियां।।
मां भारती ...

घर हो, पड़ोस हो,या कि हो समाज।
सब जगह है जरूरत नारी की आज।
फिर भी धकेल पीछे की जातीं नारियां।
फिर भी धकेल पीछे की जातीं नारियां।।
मां भारती .....

है पुरुष की उन्नति में सदा नारी का ही हाथ।
दुख-सुख में हमेशा ही रहा नारी का ही साथ।
फिर भी यहां उपेक्षित की जातीं नारियां।
फिर भी यहां उपेक्षित ही जातीं नारियां।।
मां भारती ......

लक्ष्मी,सरस्वती और दुर्गा का हैं ये रूप।
संतोषी प्रकृति में वो संतोषी का स्वरूप।
जिम्मेदारियां निभाने में भी आगे हैं बहुत।
हैं हर घर की आन,बान,शान नारियां।।
मां भारती......

ऐ नारियों! उठो अपनी शक्ति को जानो।
है वेदों में जो महिमा तुम उसको उबारो।
हो समाज की मूल तुम व्रत ये मन धारो।
है राख में दबी हुई चिंगारी नारियां।।
हैं राख में दबी हुई चिंगारी नारियां।।

मां भारती के देश में जलतीं है नारियां।
अन्याय और शोषण में पिसतीं है नारियां।।
****
प्रीति शर्मा" पूर्णिमा"

9/2/2020
विषय-स्वतंत्र लेखन

अस्आर मेरे

न करते फ़रियाद ये चुपचाप यूंही बह जाते हैं,
दिल से दिल की बात होती सब्र ढ़ह जाते हैं।

बात कह दिया करो बस यूं न आँसू बहाया करो,
कुछ दरकता हो भीतर तो खुल के बताया करो।

दिल पर चोट कब खाई ये तो अब सवाल नही,
सह लिया हर दर्द कभी भी क्यों ज़ताया नही।

सोचते हो दर्द पी कर फ़ौलाद बन जावोगे,
नही! अपनी ही आँच से कभी पिघल जावोगे।

मलहम अपनो से कभी-कभी लगवाया करो,
ज़िंदगी जीने के लिये है यूं ही ना बिताया करो।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।
9 /2//2020
बिषय,, स्वतंत्र लेखन

चेहरा आदमी के मन की किताब है
फिर भी ओढ़े झूठ का नकाब
दिखावे का जीवन जीने को लाचार हैं
झूठी शान की छाई खुमार है
सच्चाई को बहुत पीछे छोड़ दिया है
दिल के दर्पण को तोड़ दिया है
भौतिक सुखों से नाता जोड़ लिया है
प्रकृति से हमने मुँह मोड़ लिया है
जानबूझकर ए समझौता किया है
सुविधाओं के दलदल में पांव जमा लिया है
भावी पीढ़ी को यही देकर जाऐंगे
संस्कृति सभ्यता को भूल जाऐंगे
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार
9.2.2020
रविवार

मन पसंद विषय लेखन

🌹संवाद से 🌹

संवाद से,सम्पर्क से सब कुछ सँवरता है
सहारे से सदा सुन्दर सपन
साकार होता है ,
अगर कुछ भी नहीं कहते, तो मन
में घुटते रहते हैं
सबल-संबल,सुखद-सार्थक
सदा संसार करता है ।।

खुला इकाश है उड़ जा परिंदे सोचता क्या है
है ये ख़ुदग़र्ज़ दुनियाँ, अब तेरा रखा यहाँ क्या है ,
नहीं मालूम तुझको, न कोई रहनुमाँ अब है
भरोसा ख़ुद पे रख,औरों की तरफ़ तू देखता क्या है ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘
#नन्हा सैनिक#

नन्हा मुन्ना देश का बच्चा |
कहता है मैं बनूँगा सच्चा |
मम्मी मुझको आशीष देदो -
सैनिक मैं बन जाऊँ अच्छा |

आतंकवादी मार भगाऊँ |
बहनों की मैं लाज बचाऊँ |
दरिंदो को सबक सिखाकर -
फाँसी के तख्ते चढ़ जाऊँ |

कुर्सी के मोह बंधन छोङू |
स्वयं समाज सेवा में दोङू |
ना किसीको रिश्वत लेने दूँ-
ना खूद को रिश्वत से जोङू |

सरहद पर जा दुश्मन मारूँ |
भारत माँ का क़र्ज़ उतारूँ |
शहीदों में नाम लिखा कर -
जय हिंद मैं तो अंत पुकारूँ |

स्वरचित कुसुम त्रिवेदी
०९/०२/२०२०
स्वतंत्र विषय
आजकल बच्चों पर माता पिता अनावश्यक दबाव डाल रहे हैं। अपने सपने थोप रहे हैं इसी संदर्भ में रचना प्रेषित है।

"बदलकर सोच तो देखो"

न थोपो अपने सपनों को, ये बचपन रुठ जाएगा।
न रोको बन के बाधा तुम, दिल कोमल टूट जाएगा।।

उगे हैं पर अभी इसके, ये उड़ना सीख जाएगा।
करो एतबार तुम इसपे, हर बाजी जीत जाएगा।।

ये जीवन है बड़ा मुश्किल, बनाओ न इसे बाजी।
घुटन चहुं ओर पसरी है, हवा मिलती नहीं ताजी।।

न डालो जोर नम्बर पर, यह केवल भ्रम है जीवन का।
बने इन्सान वह अच्छा, रहे यही मंत्र जीवन का।।

शिक्षा दें उसे ऐसी, निराशा मन में न आए।
परीक्षा है नहीं अंतिम, बस इतना सा समझ जाए।।

जीने दें उसे खुलकर, वो सपने देखे अपने से।
सहायक बन सको यदि तुम, सिखा दो जीना अपने से।।

बदलकर सोच तो देखो, हर मंजिल को वो पाएगा।
भरोसा रखो क्षमता पर, वह जीत कर दिखाएगा।।

(अशोक राय वत्स)©®
स्वरचित
रैनी, मऊ, उत्तरप्रदेश

आज मन पसन्द के अंतर्गत
काव्य रचना

हुई है जिंदगी बेबस यूँ खुलकर मुस्कुराने में |
स्वयं बदलो समय बदलो जुटो बेटी बचाने में |

अजब यह वक्त है इंसानियत जो छोड़ बैठा है-
नये नित यत्न करता है जमाने को सताने में |

मनुज के भेष में मनुजाद मुँह बाए विचरते हैं-
कदम क्यूँ लड़खड़ाते हैं इन्हें जड़ से मिटाने में |

किया करते हैं लाखों पाप अस्मत लूटते निशदिन -
शराफत के मुखौटे ओढ़ते खुद को छिपाने में |

खड़ा होना न आता था जिन्हें चलना सिखाया है -
नहीं वो हिचकिचाते हैं इन्हें तिल - तिल रुलाने में |

नहीं योन ही जमाने में सुकूँ का दौर आयेगा -
न छोड़ो अब कसर कोई सुकूँ का दौर लाने में |

मिटा हैवान को हैवानियत मिट जाएगी जड़ से -
हँसी होगी खुशी होगी सुकूँ होगा जमाने में |

'मृदुल' मन की व्यथाएँ खुद ब खुद मिट जाएगी सारी-
सुरक्षित बेटियाँ हों जब जहाँ के आशियाने में |
मंजूषा श्रीवास्तव'मृदुल'
लखनऊ(उत्तर प्रदे
रविवारीय आयोजन
विषय : मनपसंद

तिथि : 9.2.2020

पुनः आ गया प्यारा रविवार
करो जी भर इसका सत्कार।

पूरा सप्ताह प्रतीक्षा करवाता
कई प्रकार के सपने बुनवाता,
आ कर, जल्दी से बीत जाता
सारा मज़ा हो जाता ख्वार ।

रविवार की छुट्टी, गमों से कुट्टी
सप्ताह भर,जलाती कार्य चक्की
व्यस्तता सताती है बन कर भट्ठी
रविवार की छुट्टी, मस्ती की घुट्टी।

हर दिल चाहे, आ कर जाए न रविवार
एक बार न आए , आता रहे बारम्बार।
सप्ताह के सारे दिनों से, यूं तो है प्यार
पर सब से प्यारा लगता,प्यारा रविवार।
. --रीता ग्रोवर
--स्वरचित

***********ग़ज़ल***********

लगन तेरी दिल मे लगी है फ़क़त
मेरे दिल में तेरी कमी है फ़क़त।

नज़र में बसी है जो सूरत हसीं
वही तो मेरी ज़िन्दगी है फ़क़त।

पता है वो हमपे फ़िदा हैं बहुत
दिखावे की ही बेरूख़ी है फ़क़त।

उसे छोड़ के ज़िन्दगी में मेरे
सितम,बेबसी, बेकली है फ़क़त।

वो जाने-ग़ज़ल है,मेरी ज़िंदगी
वो मेरे लिए शायरी है फ़क़त।

【आकिब जावेद】

विषय-स्वतंत्र
दिनांक 9-2-2020


हर घर की देखो आज अब यही कहानी है।
बूढ़े माँ-बाप की आंखों में सिर्फ पानी है।

असहाय लाचार अब कितने वह बन बैठे,
यही दिन दिखाने के लिए जने चार बैटे हैं।

वह आएंगे इस उम्मीद पर बुजुर्ग बैठे हैं।
झूठी आस लगाए अब वो नादां क्यूं बैठे हैं।

दरवाजा खुला रहे यही सोच घर ना छोड़ा,
कब मरे घर बेचे इसी इंतजार में वो बैठे हैं।

क्या इसी दिन के लिए दर-दर माथा टेका है।
बांझ रहते तो शायद इतना दर्द ना होता है।

पढ़ा लिखाकर उसे मैंने बहुत बड़ा बनाया है।
मेरी खुशी को तो मैंने कब का ही गवायाँ है।

अब संभाल ले प्रभु और सहन नहीं होता है।
बेटे को बुरा कहे यह मुझसे सहा न जाता है।

वीणा वैष्णव
कांकरोली


विधा-ग़ज़ल (स्वच्छंद)
काफ़िया-आने की बंदिश
रदीफ़-लगा

शहर आया तो गाँव बुलाने लगा
बुजुर्गों की बातें याद दिलाने लगा

अब सबके सब समझदार हो गये
सबको यूँ ही अकेलापन खाने लगा

छोटी-छोटी बातों पे रूठने लगे हैं
खुद की गल्ती ग़ैरों की बताने लगा

लहू सस्ता हो गया चीजों के सामने
आदमी अपनों से पैसा कमाने लगा

जज़्बात दबे के दबे रह गये जहन में
अपनों को खुद ही ग़ैर बताने लगा

अब चौपालें बेवज़ह ओझल हो गयीं
सुबहो-शाम डर को डर सताने लगा

किसको कहें अपना 'निश्छल' यहाँ
आस्तीनों में सांप नज़र आने लगा

अनिल कुमार निश्छल
स्वरचित 9.2.2020
इस फागुनी बयार का अहसास चुभन है।

तन की है और मन व आँसुओं की छुवन है।।
आमों की डालियों में आया बौर देख के।
बौराई धरा है औ ये बौराया गगन है।।
ऋतुराज आ गया है संवेदना लिये।
छाया है जो बसन्त उसका मीत मदन है।।
तन ही व्यथित नहीं है मन हृदय विकल है।।
अन्तस् में तेरे स्मरण की ही तो तपन है ।।
तुम आते या न आते मुझको ये तो बताते।
मैं दौड़ी चली आती, मिलने की लगन है।।
इस ऋतु का असर ऐसा कुछ कह नहीं सकती।
मधुमास को, मदन को, गीता का नमन है।।

मन पसंद विषय लेखन
सादर मंच को समर्पित -


🌹🇮🇳 गीतिका 🇮🇳🌹
🏵 🇮🇳 उठो जाग जाओ 🇮🇳🏵
****************************
मात्रा भार = 20
मापनी - 122 , 122 , 122 , 122
समान्त - आने, पदान्त- बढ़ेंगे
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

नये राष्ट्र के राग गाने बढ़ेंगे ।
नयी सोच से दिल मिलाने बढ़ेंगे ।।

उठो जाग जाओ, नवल भोर आई ,
चलें राह नव लक्ष्य पाने बढ़ेंगे ।

नहीं गैर कोई मनुज, बन्धु अपने ,
सभी को मिला फिर हँसाने बढ़ेंगे ।

गया बीत जो वक्त आता नहीं है ,
समय को अभी जीत जाने बढ़ेंगे ।

हमें है भरोसा जवाँ हौसलों पर ,
अटल जोश हिम्मत दिखाने बढ़ेंगे ।

न हिंसा ,न अलगाव पनपे वतन में,
अमन , चैन गंगा बहाने बढ़ेंगे ।

यही है जरुरत , रहें प्यार से हम ,
अमर भारती को बढ़ाने बढ़ेंगे ।।

मनपसंद लेखन
लघुकथा

धारणा

मयंक की शादी हो गयी थी वह रीना के साथ पुणे आ गया था । दोनों विप्रो कम्पनी में इंजीनियर है । सब ठीक चल रहा था इसी बीच मयंक की माँ रमा भी इनके साथ रहने आ गयी ।

जब दोनों आफिस जाते और हँसते लौटते तो रमा को यह अच्छा नही लगता वह सोचती रीना , मयंक को मेरे बारे उल्टा-सीधा बोल कर मयंक हो मुझ से दूर कर देगी और मयंक मेरी तरफ ध्यान नहीं देगा । इसलिए रमा को जब भी मौका मिलता , रीना के बारे कान भरने लगी , इससे उनके जीवन में तनाव रहने लगा और लडाई झगड़े होने लगे ।

रीना समझदार लडकी थी और वह समस्या के तह में जाना चाहती थी । अब मयंक आफिस से जल्दी आने लगा और रीना अलग से आती थी ।

एक दिन जब रीना आफिस से आई तब रमा , मयंक को उसके बारे कुछ कह रही थी । रीना ने चुपचाप अपना मोबाइल रिकार्डिंग में कर करे टेबिल की ड्राअर पर डाल कर अंदर कमरे में

आ गयी ।

रात को उसने मयंक और रमा की बात सुनी और मयंक को भी सुनाई । इसके बाद बोली :

" अचानक क्या हो गया कि आप मुझे पराया समझने लगे जबकि मेरे व्यवहार में तो कोई अंतर नहीं आया । मैं माँ का जी पूरा ध्यान रखती हूँ इज्जत देती हूँ और आपका भी ।

फिर बोली :

" बेटे की माँ की यह बेबुनियाद अवधारणा होती है कि बहू के आने के बाद वह लडके को अपनी तरफ खींच लेगी इस कारण वह बहू के बारे में लडके को गुमराह करती है यही उसकी दबी उत्कंठा होती है और वह बहू बेटे के बीच जहर घोलती रहती है ।"

अब मयंक को सही स्थिति मालूम हो गयी थी , उसने माँ को विश्वास दिलाया आपके प्रति जो मेरे कर्तव्य हैं उन्हें मैं हमेशा पूरा करूँगा । रीना पढी लिखी समझदार लड़की है उसके बारे में आप कोई पूर्वाग्रह नहीं पाले । मेरी निगाह में आप दोनों के लिए कोई दुर्भावना नहीं दोनों बराबर हैं । आपको तो खुश होना चाहिए कि आपका बेटा बहू खुश हैं ।

रमा भी अपनी गलति समझ चुकी थी और अपने स्वाभाव में परिवर्तन कर लिया ।

रीना की समझदारी से एक घर टूटने और पति पत्नी बिखरने से

बच गये थे ।

स्वलिखित

लेखिका
संतोष श्रीवास्तव

विषय मनपसंद लेखन
बज्न पर गजल
1212,1212(12)
एक प्रयास मात्र

अभी अभी वही मिले।
सपन सजन हमें मिले।

प्यार नहीं झूठ कहें,
कहीं यार चलें मिलें।

सजा यही, वलम तुम्हें,
जन्म जनम, गले मिलें।

रहें सुखी सभी यहां,
इधर उधर फले मिलें।

सही कहें खरी-खरी,
खुशी तुम्हें चलो मिलें।

स्वरचित
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना, गुना म प्र
जय-जय श्री राम राम जी

गजल
बज्न,1212,1212,(6)

आज स्व पसंद में मेरी प्रस्तुति.....

वज़्न -2122 2122 212

ग़ज़ल

पल में दाँ हूँ पल में नादानी हूँ मैं,
तौर से दुनिया के अंजानी हूँ मैं ।

बचपना बचपन में छीना वक्त ने,
और वो कहता है बचकानी हूँ मैं

तू कमल बनके न मेरे पास आ,
सूखते तालाब का पानी हूँ मैं ।

शुक्र है इंसाँ का कुछ एहसाँ नहीं,
साथ रब का है तो आसानी हूँ मैं ।

जब से मुझको छू गया तेरा ख़याल,
सनदली ख़ुशबू हूँ लोबानी हूँ मैं ।

ज़िंदगी है तल्ख़ियों का तर्जुमा,
फिर भी शीरीं हूँ, के हैरानी हूँ मैं ।

ख़ुद को कमतर मान क्यों शिकवा करूँ,
'आरज़ू' हूँ माँ की, रहमानी हूँ मैं ।

-अंजुमन 'आरज़ू' ©
09/02/2020

फूल फूल मंडराते देखा।
भवरो को मैंने भटकते देखा।

बिन पराग के पुष्पो पर।
मैने उनको न जाते है देखा।

गगन चुम्भी इमारतों को।
निशदिन जगमग होते देखा।

बिना तेल के कारण मैंने।
झोपड़ियों को तम में देखा।

धनवानों को धन से मैंने।
सराबोर होते है देखा।

गम की काली चादर ओढ़े।
निर्धनों को है रोते देखा।

एक बूंद की खातिर पी को।
रात दिवस है मैंने रटते देखा।

चुपके चुपके मात पिता को।
तन्हाइयो में था रोते देखा।

बेटी जैसी प्यारी गुड़िया को।
अपनो से ही है लुटते देखा।

घूम रहे देखो भवरे बन कर
इंसानियत के दरिंदो को देखा।

स्वरचित
मीना तिवारी

भावों के मोती
विषय-- स्वतंत्र लेखन

विधा--नवगीत
_________________
आज दलदल में फँसे,
है प्राण भी।
खींचते पल-पल फँसे,
हैं पाँव भी।

डूबते तिनका दिखा,
जो पास है।
है अजब माया रचे,
भ्रम पास है।
आग में झुलसे फँसे।
है जान भी।
आज दलदल में फँसे,
है प्राण भी।।

रोकते कैसे भला।
गुबार उठा,
बहाने झूठे बने ,
उबार उठा।
टूटती आशा फँसी,
है नाव भी।
आज दलदल में फँसे,
है प्राण भी।।

मिटा न अँधेरा यहाँ,
कब भोर हो।
धोखाधड़ी का सदा,
ही शोर हो।
नेत्र ज्योति छीण हुई,
है आस भी।
आज दलदल में फँसे,
है प्राण भी।।

***अनुराधा चौहान***स्वरचित 
भावों के मोती
मनपसंद प्रस्तुति के तहत

एक कोशिश..
विधा छंद मुक्त

जीस्त के गर्म थपेड़े है जब झुलसाते माँ का आँचल याद आता बहुत है

उड़ने की कलाबाजियां नहीं आती हौंसले परवाज के बहुत है

अदना सी चोट पर घबराना कैसा दिल पे लगे जख्म बहुत है

हमने तो लुटाया बेहिसाब खुद को लोग यहाँ किफ़ायती बहुत है

मसर्रत मयस्सर ना सही तकदीर में लिखी अजाबे बहुत है

सुकून पाये दो घड़ी कैसे सितारें कमज़ोर बहुत है

गुल ना बिखरे हो राह में न सही अंगारों पे चलने का तजुर्बा बहुत है

तेरे लिए और भी खुशरंग नजारे मेरे लिये बस तु ही बहुत है

ए खुशियों तुम दूर ही रहना मेरे जीने के लिए ये पलकों में मोती बहुत है

बेशक रंज बेतहाशा है हमराह मेरे तु गम न कर तेरे सिवा भी दर्द देने वाले बहुत है
आशा पंवार
कविता- शोर से दूर

मचा भयानक कोलाहल है चहुँ ओर।
कान फोड़ते हैं ये कई सुरों के शोर।
कैसी कशमकश है यह जिंदगी की,
बुरी तरह से उलझी जीवन की डोर।

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

एक हड़बड़ी में दुनिया भाग रही है।
आधी रात तक बस्ती जाग रही है ।
कोई सुकून नहीं है शहरों में अब,
पर मजबूरी सलीबों पर टांँग रही है।

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चलो भाग चलें यहांँ से अब गांँव में।
झुलसती गर्मी से अमराई की छांँव में।
होगी शांति जहां , हरियाली भी होगी,
बरखा में थिरकन होगी चंचल पांँव में।
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

निस्तब्ध निशा जब धीरे-धीरे उतरेगी ।
ओढ़ के चूनर तारों की वह ख़ूब सजेगी।
चुनरी में झिलमिल जुगनू की होगी,
कंगन चंदा का, रात रानी से महकेगी।

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निःस्तब्ध चांदनी में बिखरा सम्मोहन।
पल पल मिलता है सपनों से मन ।
निःशब्द शांति के इस राग- रंग में,
मैं अर्पण कर दूं यह सारा जीवन।

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आशा शुक्ला- शाहजहांपुर
उत्तरप्रदेश

दिन :- रविवार
दिनांक :- 09/02/2020

विषय :- स्वतंत्र

नहीं किसी को यथार्थ से सारोकार,
हो गए सब पाश्चात्य के पैरोकार।
धूमिल कर रहें राष्ट्र की संस्कृति,
अपना रहे सब नित नवीन विकृति।
जन भावनाएँ कर रहे आहत,
हो रही अब पतन की आहट।
बढ़ रही स्वार्थसत्ता मानवता में,
हृदय विदिर्ण हो रहे संकीर्णता में।
स्वप्न ही रहेगा क्या अखंड भारत का,
कैसे होगा अब उत्थान नव भारत का।
उठो जागो सब प्रण करो,
अब अंतिम सब रण करो।
संस्कृतियों को बचाना होगा,
हम सबको आगे आना होगा।
तोड़ना होगा हर बांध अब नैतिकता का,
जोड़ना होगा हर बंध अब मानवता का।
बजेगा बिगुल जब वही क्रांति का,
छटेगा अंधकार तब हर भ्रांति का।
हैं षड़यंत्र सब ये देशद्रोहियों के,
रचे उन जयचंदी विद्रोहियों के।
जिनसे इतिहास बदनाम रहा,
सालों साल ये राष्ट्र गुलाम रहा।
होना होगा मुखर अब राष्ट्रहित में,
करना होगा सफर अब राष्ट्रपथ पर।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

हवाएं !

बारिशों से भीगकर

सर्दियों से ठिठुरकर
आ रही है खिलखिलाती,
बसंत की बिगड़ी हवाएं।
हवाएं!

पत्तों से बात करती
पेड़ों से मुलाकात करती
दिन में चलती, रात में बहती
पतझड़ का पैगाम देती
मुस्कुराती,गुनगुनाती
मेरे कान में बुदबुदाती
पता नहीं क्या कह जाती
किसके-किसके राज हवाएं।
हवाएं!

ये हवाएं खुली-खुली
खेलती- खिलाती है
बादलों को देकर छुट्टी
रंगो का त्योहार मनाती हैं,
रूतें बदलती-राग बदलती
भोर सुनहरी-सांझ सुनहरी
कर जाती मन बाग हवाएं।

हवाएं!

श्रीलाल जोशी'श्री'
तेजरासर, बीकानेर।
(मैसूर)
भावों के मोती
सादर नमन

विषय- मां

माँ को समर्पित कविता-
सृजन कर्ता ब्रम्ह तुम
पालन कर्ता विष्णु तुम
संहारकर्ता शिव तुम
संस्कारदायिनी,जीवनदायिनी तुम
भूत, वर्तमान,भविष्य तुम
अवनि का धैर्य तुम ,
गगन का प्रकाश तुम ,
अनल की ज्वाल तुम,
पवन का प्रवाह तुम,
वारि का नाद तुम,
ममतामयी,वंदना तुम,
जननी हो जन्मदायिनी तुम,
इन चरणों में नित -नत नमन,
मेरी प्यारी माँ,मेरी प्यारी माँ।

यह रचना मौलिक एवं स्वरचित है
रचनाकार - स्मृति श्रीवास्तव
एमएलबी नरसिंहपुर
दिनांक_८/२/२०२०
स्वतंत्र-रचना

सायली-छंद
शीर्षक-बेटी
१)
बिटिया
निभाये साथ
है सृष्टि उपहार
सदा संस्कारी
सदाचारी।

२)
बेटी
सदा महत्त्वकांक्षी
रहे ना अशिक्षित
बढ़े कदम
प्रयत्नशील।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

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