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ब्लॉग संख्या :-657
नमन-भावो के मोती
दिनांक15/02/2020
विषय- सुप्त
मेरे मन की मरुस्थली पर
श्यामल बदली कब बरसेगी..........
हृदय फूल की पंखुड़ियों पर
ओंस बिंदु बनकर कब छलकेगी।
मूक हृदय के स्पंदन में
तन की ज्वाला कब धधकेगी।
युगो-युगो की सुप्त वेदना
अधरों की लहरों पर कब थिरकेगी।
अनुभूति व्यक्त हुई स्नेहिल
गीली आंखों से ,आंसू कब ढलकेगी।
सारे स्नेहिल सत्य हुए यदि
उल्का बनकर टूट- टूट कर कब चमकेगी।।
आशाओं का धवल श्रृंगार बनकर
निर्मोही पाषाणी छाती पर
गंगा बनकर कब निकलेगी।
पीकर सब आनंद मौन हूँ
रजनी के अंगों पर.........मैं
स्वरचित
सत्य प्रकाश सिंह प्रयाग राज
दिनांक15/02/2020
विषय- सुप्त
मेरे मन की मरुस्थली पर
श्यामल बदली कब बरसेगी..........
हृदय फूल की पंखुड़ियों पर
ओंस बिंदु बनकर कब छलकेगी।
मूक हृदय के स्पंदन में
तन की ज्वाला कब धधकेगी।
युगो-युगो की सुप्त वेदना
अधरों की लहरों पर कब थिरकेगी।
अनुभूति व्यक्त हुई स्नेहिल
गीली आंखों से ,आंसू कब ढलकेगी।
सारे स्नेहिल सत्य हुए यदि
उल्का बनकर टूट- टूट कर कब चमकेगी।।
आशाओं का धवल श्रृंगार बनकर
निर्मोही पाषाणी छाती पर
गंगा बनकर कब निकलेगी।
पीकर सब आनंद मौन हूँ
रजनी के अंगों पर.........मैं
स्वरचित
सत्य प्रकाश सिंह प्रयाग राज
विषय सुप्त
विधा काव्य
15 फरवरी 2020,शनिवार
ऊपर से तो सब जाग रहे हैं
उत्साह जज्बा सबका सुप्त।
सब स्वार्थ रत घूम रहे नित
परोपकार हो रहा है लुप्त।
गहरी निन्द्रा स्वप्न देख रहे
अंधकार अज्ञान में लिपटे।
स्व हित खातिर जीते सारे
निज स्वार्थ में सारे सिमटे।
भौतिक सुख में सुप्त सभी
मकड़जाल में सारे उलझे।
हाथ पकड़के इन्हें जगाओ
अंधकार अज्ञान में भटके।
खानपान सुख सुविधाएं
यह जीवन उद्देश्य नहीं है।
स्वहित हेतु सभी जी रहे
समझे पीड़ा मनुज वही है।
यह मायावी है जग जीवन
कुम्भकर्ण सी नींद सुप्त हैं।
मानवता हो रही नदारत
सत्य आज हो रहा गुप्त है।
उठो जागो ऊपर निरखो
अब सुप्तमय समय नहीं है।
दीनबन्धु तुम बनकर जीओ
सोलह आना मार्ग सही है।
स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विधा काव्य
15 फरवरी 2020,शनिवार
ऊपर से तो सब जाग रहे हैं
उत्साह जज्बा सबका सुप्त।
सब स्वार्थ रत घूम रहे नित
परोपकार हो रहा है लुप्त।
गहरी निन्द्रा स्वप्न देख रहे
अंधकार अज्ञान में लिपटे।
स्व हित खातिर जीते सारे
निज स्वार्थ में सारे सिमटे।
भौतिक सुख में सुप्त सभी
मकड़जाल में सारे उलझे।
हाथ पकड़के इन्हें जगाओ
अंधकार अज्ञान में भटके।
खानपान सुख सुविधाएं
यह जीवन उद्देश्य नहीं है।
स्वहित हेतु सभी जी रहे
समझे पीड़ा मनुज वही है।
यह मायावी है जग जीवन
कुम्भकर्ण सी नींद सुप्त हैं।
मानवता हो रही नदारत
सत्य आज हो रहा गुप्त है।
उठो जागो ऊपर निरखो
अब सुप्तमय समय नहीं है।
दीनबन्धु तुम बनकर जीओ
सोलह आना मार्ग सही है।
स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विषय- सुप्त
प्रथम प्रस्तुति
कभी कभी लगे खोयी सी
कभी कभी लगे सोयी सी!!
जाने क्यों तकदीर मेरी
रही हरदम ये रोयी सी!!
जो भी पाया खुश हूँ मैं
कोई कहे नाखुश हूँ मैं!!
जैसे सभी होते आखिर
वैसे पात्र अमुक हूँ मैं!!
कभी खुद पर मैं हँसता हूँ
कभी खुद से मैं किलषता हूँ!!
होए जो भी खुदा जाने
इससे ही छंद रचता हूँ!!
धूप जिसे हम कहते घाम
जाड़ों में वो दे आराम!!
सुप्त शीत जो रूलाय 'शिवम'
गर्मियों में बन जाय बाम!!
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 15/02/2020
प्रथम प्रस्तुति
कभी कभी लगे खोयी सी
कभी कभी लगे सोयी सी!!
जाने क्यों तकदीर मेरी
रही हरदम ये रोयी सी!!
जो भी पाया खुश हूँ मैं
कोई कहे नाखुश हूँ मैं!!
जैसे सभी होते आखिर
वैसे पात्र अमुक हूँ मैं!!
कभी खुद पर मैं हँसता हूँ
कभी खुद से मैं किलषता हूँ!!
होए जो भी खुदा जाने
इससे ही छंद रचता हूँ!!
धूप जिसे हम कहते घाम
जाड़ों में वो दे आराम!!
सुप्त शीत जो रूलाय 'शिवम'
गर्मियों में बन जाय बाम!!
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 15/02/2020
विषय, सुप्त
दिनांक, १ ५,२,२०२०.
वार , शनिवार .
हो गईं सुप्त संवेदनाएं, पतन मानवता का होने लगा।
क्रूरता की बलि बेदी पे, भावो का संसार चढ़ने लगा।।
हो रहे सुप्त संस्कार सभी, साम्राज्य फैला दुराचार का।
दीप अज्ञान के बने सूर्य , घटने लगा अस्तित्व सूरज का।
घटने लगी प्रकृति की कोमलता , आदत जो सृजन की सुप्त हुई।
स्वीकार हमें हो गए काँटे भी, मेहनत की आदत सुप्त हुई।
बहुत ही मीठी लगी हवा आजादी की , चेतना पूर्णतः सुप्त हुई ।
मतलब नहीं रहा किसी से है, व्यावहारिकता हमारी सुप्त हुई।
हम आदत जब छोडें सोने की ,अपनी संस्कृति तभी बच पायेगी।
हमारे आर्यावर्त की शान तभी, जग में कायम रह पायेगी।
स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
दिनांक, १ ५,२,२०२०.
वार , शनिवार .
हो गईं सुप्त संवेदनाएं, पतन मानवता का होने लगा।
क्रूरता की बलि बेदी पे, भावो का संसार चढ़ने लगा।।
हो रहे सुप्त संस्कार सभी, साम्राज्य फैला दुराचार का।
दीप अज्ञान के बने सूर्य , घटने लगा अस्तित्व सूरज का।
घटने लगी प्रकृति की कोमलता , आदत जो सृजन की सुप्त हुई।
स्वीकार हमें हो गए काँटे भी, मेहनत की आदत सुप्त हुई।
बहुत ही मीठी लगी हवा आजादी की , चेतना पूर्णतः सुप्त हुई ।
मतलब नहीं रहा किसी से है, व्यावहारिकता हमारी सुप्त हुई।
हम आदत जब छोडें सोने की ,अपनी संस्कृति तभी बच पायेगी।
हमारे आर्यावर्त की शान तभी, जग में कायम रह पायेगी।
स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
15/2/2020/शनिवार
विषय-*सुप्त*काव्य
अभी नहीं जागेंगे कोई
नशा बहुत ही चढा हुआ है।
सुप्तावस्था कुंभकर्ण जैसा,
हिंदू सचमुच सोया हुआ है।
वही हाल होना है सबका,
जो इतिहासों में अंकित है।
काटें मारे जाओ सारे,
लक्षण सभी परिलक्षित हैं।
नहीं बचो तुम न ये संस्कृति,
हम सबके सब मिट जाएंगे।
भूलें अपना भारत साथी,
सब सोते ही रह जाएंगे।
बंटे हुऐ हम जात-पात में,
हम आपस में ही लडते है।
और देश भी नहीं तुम्हारा,
फिर भी एका नहीं करते हैं।
सपने सुहाने नहीं देखो,
मानें बर्बादी है हमारी।
जयचंदो की बड़ी भूमिका,
सुप्त रहो ये मर्जी तुम्हारी।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
जय-जय श्री राम राम जी
भा,*सुप्त*काव्य
15/2/2020/शनिवार
विषय-*सुप्त*काव्य
अभी नहीं जागेंगे कोई
नशा बहुत ही चढा हुआ है।
सुप्तावस्था कुंभकर्ण जैसा,
हिंदू सचमुच सोया हुआ है।
वही हाल होना है सबका,
जो इतिहासों में अंकित है।
काटें मारे जाओ सारे,
लक्षण सभी परिलक्षित हैं।
नहीं बचो तुम न ये संस्कृति,
हम सबके सब मिट जाएंगे।
भूलें अपना भारत साथी,
सब सोते ही रह जाएंगे।
बंटे हुऐ हम जात-पात में,
हम आपस में ही लडते है।
और देश भी नहीं तुम्हारा,
फिर भी एका नहीं करते हैं।
सपने सुहाने नहीं देखो,
मानें बर्बादी है हमारी।
जयचंदो की बड़ी भूमिका,
सुप्त रहो ये मर्जी तुम्हारी।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र
जय-जय श्री राम राम जी
भा,*सुप्त*काव्य
15/2/2020/शनिवार
दिनांक-15-2-2020
विषय-सुप्त
सुप्त
घन-गर्जन से
सजग सुप्त अंकुर
धरिन के उर में,
नवजीवन पाते हैं
प्रस्फुटित होने को
ऊंचा सिर करके
बादलों को ताकते हैं
नदी की जलधारा
अमृत बन कर आती
प्यासी धरती को
सीली सी नमी मिलती
अजन्में प्रसुप्त बीज को
बाहर आने की राह मिलती
जो अन्दर ही अन्दर
गहन तिमिर से जूझ रहा था
व्याकुल दमित तहों के अंदर
प्राणदान की भीख मांग रहा था
कब बसरेगी अमृत वर्षा
बीत गये दिन वर्ष मास
बस हुआ खत्म इंतज़ार
मिला जब सुंदर अहसास
विविध क्षमताएं सबके अंदर
प्रक्षिप्त हैं सुप्त अवस्था मे
कोई सच मे सोया रहता है
कोई सजग है नियम व्यवस्था में
पर इतना सबको ध्यान रहे
सुप्त शांत ज्वालामुखी को
अधिक न भड़काना
कहीं विध्वंस कर दे रौद्र रूप में...!!
*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
विषय-सुप्त
सुप्त
घन-गर्जन से
सजग सुप्त अंकुर
धरिन के उर में,
नवजीवन पाते हैं
प्रस्फुटित होने को
ऊंचा सिर करके
बादलों को ताकते हैं
नदी की जलधारा
अमृत बन कर आती
प्यासी धरती को
सीली सी नमी मिलती
अजन्में प्रसुप्त बीज को
बाहर आने की राह मिलती
जो अन्दर ही अन्दर
गहन तिमिर से जूझ रहा था
व्याकुल दमित तहों के अंदर
प्राणदान की भीख मांग रहा था
कब बसरेगी अमृत वर्षा
बीत गये दिन वर्ष मास
बस हुआ खत्म इंतज़ार
मिला जब सुंदर अहसास
विविध क्षमताएं सबके अंदर
प्रक्षिप्त हैं सुप्त अवस्था मे
कोई सच मे सोया रहता है
कोई सजग है नियम व्यवस्था में
पर इतना सबको ध्यान रहे
सुप्त शांत ज्वालामुखी को
अधिक न भड़काना
कहीं विध्वंस कर दे रौद्र रूप में...!!
*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
स्वर्णिम भोर
सुप्त मन को जगा
मिले आलोक !!
संघर्ष पथ
सुप्त मन को जगा
मिले मंजिल !!
मन मंदिर
सुप्त भावों को जगा
फैले आलोक !!
© रामेश्वर बंग
सुप्त मन को जगा
मिले आलोक !!
संघर्ष पथ
सुप्त मन को जगा
मिले मंजिल !!
मन मंदिर
सुप्त भावों को जगा
फैले आलोक !!
© रामेश्वर बंग
दिनांक - 14/02/2020विषय - सुप्त
सुप्त
सुप्त भावों को मेरे झंकृत कर,
राग मृदुल छेड़ते तुम कौन हो ?
ढल रहे नव छंद में मनभाव मेरे,
कर उद्वेलित प्राण फिर क्यों मौन हो ?
टांक आँचल में तेरे हर भाव को,
गूँजती दिशा - दिशा होती मराली।
कूकती कोयल रसीले बोल में,
अंतर कुछ शरबती सी होती आली।
छिड़क रही है चाँदनी नभ से उतर,
मन धरा कर पान पयोधि मुग्ध होती।
निरभ्र सुधा में भींगती सी आत्ममुग्धा,
मैं किंचित सी डूबती स्व प्राण खोती।
स्व रचित
डॉ उषा किरण
सुप्त
सुप्त भावों को मेरे झंकृत कर,
राग मृदुल छेड़ते तुम कौन हो ?
ढल रहे नव छंद में मनभाव मेरे,
कर उद्वेलित प्राण फिर क्यों मौन हो ?
टांक आँचल में तेरे हर भाव को,
गूँजती दिशा - दिशा होती मराली।
कूकती कोयल रसीले बोल में,
अंतर कुछ शरबती सी होती आली।
छिड़क रही है चाँदनी नभ से उतर,
मन धरा कर पान पयोधि मुग्ध होती।
निरभ्र सुधा में भींगती सी आत्ममुग्धा,
मैं किंचित सी डूबती स्व प्राण खोती।
स्व रचित
डॉ उषा किरण
विषय -सुप्त
दिनांक -15.2.2020
विधा -- दोहा मुक्तक
1.
इधर वासना सुप्त हो ,उधर बढ़ता ओज
धन दौलत की वासना , चिन्त बढाती रोज ।
सुप्त अगर अपराध हों , बढ़े शांति का दौर --
दुर्भावना सुप्त अगर, मिले खुशी का भोज।
2.
काम वासना जब बढ़े ,होता हृदय अशांत
दुष्कर्म की भावना, करती मन को क्लांत।
दुष्कर्मी सब भूलकर, करे अनचहा कृत्य-
अगर वासना सुप्त नहिं, होय व्यक्ति दिग्भ्रान्त ।
******स्वरचित ********
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी (म.प्र .)451551
दिनांक -15.2.2020
विधा -- दोहा मुक्तक
1.
इधर वासना सुप्त हो ,उधर बढ़ता ओज
धन दौलत की वासना , चिन्त बढाती रोज ।
सुप्त अगर अपराध हों , बढ़े शांति का दौर --
दुर्भावना सुप्त अगर, मिले खुशी का भोज।
2.
काम वासना जब बढ़े ,होता हृदय अशांत
दुष्कर्म की भावना, करती मन को क्लांत।
दुष्कर्मी सब भूलकर, करे अनचहा कृत्य-
अगर वासना सुप्त नहिं, होय व्यक्ति दिग्भ्रान्त ।
******स्वरचित ********
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी (म.प्र .)451551
विषय - सुप्त
द्वितीय प्रस्तुति
सुप्त पड़े हुए विचार
कभी ये जागे हैं!
जन्म जन्म के जुड़े
इनसे ये धागे हैं!
कुछ एक हैं जो हम
यहाँ ग्रहण करते हैं!
वरना वो विचार ही
हमारे निकरते हैं!
वैसी ही संगत को
हम यहाँ मुड़ते हैं!
कभी हँसते हैं तो
कभी खुद कुढ़ते हैं!
जागो नित सूर्य देव
हमको जगाए हैं!
क्यों नही तूने तिमिर
अब तक हटाए हैं!
खरपतवार की तरह
ये फसल को नष्ट करें!
जाने अन्जाने यह
निज पथ को भ्रष्ट करें!
सतसंग रूपी दवा
ही यहाँ काम आयी!
वरना कितनों कि नहीं
नाँव भँवर में पायी!
सजग रहो इक पल भी
न तुम यहाँ सुस्त रहो!
अंतस से 'शिवम' जुड़ो
औ उसमें संलिप्त रहो!
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 15/02/2020
द्वितीय प्रस्तुति
सुप्त पड़े हुए विचार
कभी ये जागे हैं!
जन्म जन्म के जुड़े
इनसे ये धागे हैं!
कुछ एक हैं जो हम
यहाँ ग्रहण करते हैं!
वरना वो विचार ही
हमारे निकरते हैं!
वैसी ही संगत को
हम यहाँ मुड़ते हैं!
कभी हँसते हैं तो
कभी खुद कुढ़ते हैं!
जागो नित सूर्य देव
हमको जगाए हैं!
क्यों नही तूने तिमिर
अब तक हटाए हैं!
खरपतवार की तरह
ये फसल को नष्ट करें!
जाने अन्जाने यह
निज पथ को भ्रष्ट करें!
सतसंग रूपी दवा
ही यहाँ काम आयी!
वरना कितनों कि नहीं
नाँव भँवर में पायी!
सजग रहो इक पल भी
न तुम यहाँ सुस्त रहो!
अंतस से 'शिवम' जुड़ो
औ उसमें संलिप्त रहो!
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 15/02/2020
भावों के मोती।
विषय-सुप्त।स्वरचित।
जग गये सुप्त ख्वाब जो थे दिल में
उनके आ जाने से,छा जाने से।।
खिल गया मन का उपवन,
खुशियों के आ जाने से,छा जाने से।।
ख्वाब जो देखे थे जीवन के
मधुरिम,मृदु-मधुरपल में।
छोड़ गये जब छोड़ वो हमें
मुश्किल के बीच भंवर में।।
आज प्रतीक्षा पूर्ण हुई मन की
दिल में बसी एक कसक सी थी।
आज हुआ वो मेरा जो था मेरा
मिट गई दूरियां सच-सपने में थीं।।
छा गई हवा अब मन में प्रेम-प्यार के
सतरंगी रागों की,साजों की।
मन-वीणा के तार बजे,हृदय मिले
धड़कनें बढ़ीं सुप्त पड़े ख्वाबों की।।
*****
प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
15/02/2020
विषय-सुप्त।स्वरचित।
जग गये सुप्त ख्वाब जो थे दिल में
उनके आ जाने से,छा जाने से।।
खिल गया मन का उपवन,
खुशियों के आ जाने से,छा जाने से।।
ख्वाब जो देखे थे जीवन के
मधुरिम,मृदु-मधुरपल में।
छोड़ गये जब छोड़ वो हमें
मुश्किल के बीच भंवर में।।
आज प्रतीक्षा पूर्ण हुई मन की
दिल में बसी एक कसक सी थी।
आज हुआ वो मेरा जो था मेरा
मिट गई दूरियां सच-सपने में थीं।।
छा गई हवा अब मन में प्रेम-प्यार के
सतरंगी रागों की,साजों की।
मन-वीणा के तार बजे,हृदय मिले
धड़कनें बढ़ीं सुप्त पड़े ख्वाबों की।।
*****
प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
15/02/2020
विषय ' सुप्त
विधा - काव्य
तिथि-15/02/2020
दिन - शनिवार
स्वप्न सारे सुप्त हुए,
शहीदों की बलिदानी पर।
प्रेम भाव सारे लुप्त हुए ,
अपनों के गद्दारी पर ।।
कहो देश में अब ,
शांति कैसे लाना है ।
पत्थर खातें सैनिकों का,
अब कहाँ ठिकना है ।।
कलुषित राजनीति पर,
दांव कैसे लगाना है ।
निहत्थे पे वार किया,
गीदड़ों को निशाना बनाना है।।
सुप्त भाव जग उठे हैं,
शत्रु को मार भगाना है।
तम का दीपक स्वयं हरेगा
देश में दीवाली मनाना है।
रत्ना वर्मा
स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार-सुरक्षित
धनबाद -झारखंड
विधा - काव्य
तिथि-15/02/2020
दिन - शनिवार
स्वप्न सारे सुप्त हुए,
शहीदों की बलिदानी पर।
प्रेम भाव सारे लुप्त हुए ,
अपनों के गद्दारी पर ।।
कहो देश में अब ,
शांति कैसे लाना है ।
पत्थर खातें सैनिकों का,
अब कहाँ ठिकना है ।।
कलुषित राजनीति पर,
दांव कैसे लगाना है ।
निहत्थे पे वार किया,
गीदड़ों को निशाना बनाना है।।
सुप्त भाव जग उठे हैं,
शत्रु को मार भगाना है।
तम का दीपक स्वयं हरेगा
देश में दीवाली मनाना है।
रत्ना वर्मा
स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार-सुरक्षित
धनबाद -झारखंड
विषय : सुप्त
विधा : लघु कविता
तिथि : 15.2.2020
सतयुग सुप्त,,कलयुग चुस्त
सरकार सुप्त, मंहगाई चुस्त
संस्कार सुप्त, फैशन चुस्त
अपनापन सुप्त, आधुनिकता चुस्त
ईमानदारी सुप्त,भ्रष्टाचार चुस्त
इसी को तो कहते हैं--
मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त
सुप्त कहो या सुस्त
अर्थ एक, द्वि शब्द युक्त।
--रीता ग्रोवर
--स्वरचित
विधा : लघु कविता
तिथि : 15.2.2020
सतयुग सुप्त,,कलयुग चुस्त
सरकार सुप्त, मंहगाई चुस्त
संस्कार सुप्त, फैशन चुस्त
अपनापन सुप्त, आधुनिकता चुस्त
ईमानदारी सुप्त,भ्रष्टाचार चुस्त
इसी को तो कहते हैं--
मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त
सुप्त कहो या सुस्त
अर्थ एक, द्वि शब्द युक्त।
--रीता ग्रोवर
--स्वरचित
"सुप्त"
*****************
🌹भावों के मोती🌹
*****************
सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
हर-मन मे कुंठा भरी, आँखियां ढूंढे चैन।।
मीरा-राधा देखती
कहाँ छिपे श्री आप
बिन दर्शन तन-मन जले
बढ़ता तन में ताप।।
सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
लहरों में कुंठा भरी, नदियाँ ढूंढे चैन।।
सागर तो मदहोश है
करता रहे गुमान
नदियों को लेकर जिए
बढ़ा रहा है शान।।
सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
मतभेदों से रुष्ठ हो,सखियाँ ढूंढे चैन।।
भावों को जो त्याग दे
करे सदा अपमान
सखियाँ वो झूठी रही
नहीं मिले सम्मान।।
सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
हर मन में कुंठा भरी,आँखियाँ ढूंढे चैन।।
स्वरचित,मौलिक,वीणा शर्मा वशिष्ठ, पंचकूला।
*****************
🌹भावों के मोती🌹
*****************
सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
हर-मन मे कुंठा भरी, आँखियां ढूंढे चैन।।
मीरा-राधा देखती
कहाँ छिपे श्री आप
बिन दर्शन तन-मन जले
बढ़ता तन में ताप।।
सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
लहरों में कुंठा भरी, नदियाँ ढूंढे चैन।।
सागर तो मदहोश है
करता रहे गुमान
नदियों को लेकर जिए
बढ़ा रहा है शान।।
सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
मतभेदों से रुष्ठ हो,सखियाँ ढूंढे चैन।।
भावों को जो त्याग दे
करे सदा अपमान
सखियाँ वो झूठी रही
नहीं मिले सम्मान।।
सुप्त चित्त सा हो गया,प्रेम गली बैचैन।
हर मन में कुंठा भरी,आँखियाँ ढूंढे चैन।।
स्वरचित,मौलिक,वीणा शर्मा वशिष्ठ, पंचकूला।
विषय - सुप्त
15 /02/2020 न
ना जाने क्यों, तेरा शहर
सोया -सोया सा दिखता है।
हर सुबह- शाम कुछ - कुछ ,
हुआ -हुआ सा लगता है ।
भले ही आसमान तलक,
तेरे भवन बनते हैं।
मुझे दिखा दो ,कहां
आदमी इसमें रहते हैं ।
मुझे तो पत्थरों का'
सोया- सोया सा शहर दिखता है।
छोड़कर गांव तूने, आशियाना बनाएं यहां ।
तोड़कर प्रेम -वफा किसको बसाए यहां।
यहां हर ईंट में ,दिल रुवा - रुवा सा लगता है।
स्वरचित, रंजना सिंह
15 /02/2020 न
ना जाने क्यों, तेरा शहर
सोया -सोया सा दिखता है।
हर सुबह- शाम कुछ - कुछ ,
हुआ -हुआ सा लगता है ।
भले ही आसमान तलक,
तेरे भवन बनते हैं।
मुझे दिखा दो ,कहां
आदमी इसमें रहते हैं ।
मुझे तो पत्थरों का'
सोया- सोया सा शहर दिखता है।
छोड़कर गांव तूने, आशियाना बनाएं यहां ।
तोड़कर प्रेम -वफा किसको बसाए यहां।
यहां हर ईंट में ,दिल रुवा - रुवा सा लगता है।
स्वरचित, रंजना सिंह
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