Sunday, February 23

"स्वतंत्र लेखन"23फ़रवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-665
तिथि _23_2_2020
वार _रविवार

स्वतंत्र आयोजन

देखती हूँ जब परिंदो को
भरते हुए उँची उड़ान
बिना किसी सहारे बेखौफ़
चहचहाते गुनगुनाते
तो सोचती हूँ
कि काश मैं भी परिदा होती
महकते हैं जो फूल रंग बिरंगे
करते हैं आकर्षित अपनी ओर
डाली से अलग हो कर भी
महकाते हैं घर का कोना कोना
तो सोचती हूँ
कि काश मैं भी फूल होती
वो एक बदरिया काली सी
खेले चंदा संग आँख मिचोली
बरस जाती फिर तो लगता ऐसा
दर्द अपना बहा दिया सारा
तो सोचती हूँ कि काश
मैं भी बदरिया होती
क्यूँ मैं भर नहीं सकती उड़ान
क्यूँ महका नही सकती ये जहान
क्यूँ सिमट कर रह गया दर्द मुझमे
पूछती हूँ सवाल अपने आप
क्या बेटी होना है अभिशाप

स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
विषय मन पसंद लेखन
विधा काव्य

23 फरवरी 2020,रविवार

उत्तर से दक्षिण तक फैला
प्यारा भारत देश हमारा।
प्रेरक संस्कृति सर्व समाई
यह विश्व का प्रिय सहारा।

हिन्द सागर अति विशाल
विश्व नदियां यँहा समाई।
सर्व विलीन समाहित इसमें
यश कीर्ति सिंधु की गाई।

मगर मच्छ पलते नित इसमें
इसकी तह में मोती माणक।
अति विशाल गंभीर सागर है
जो अपने में सर्व सुखदायक।

जो आता इसमें पलता है
गीत खुशी के इसके गाते।
अगर शत्रुता इससे करते
तूफानी सुनामी यँहा आते।

विश्व शांति यह प्रतीक नित
शांत प्रशांत बनकर ये रहता।
बढ़ते रहो निरन्तर पल पल
स्नेह सुधा बरसाओ कहता।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

वरिष्ट नागरिक
💘💘💘💘💘

दवा
ईयों से हमारी दशायें निर्दिष्ट हैं
हर दिन नया हमें देते हमारे ईष्ट हैं
रुखापन हो सकता है पर वैसे हम शिष्ट हैं
इस दौर में हमें समझने के प्रयास भी कुछ क्लिष्ट हैं
जी हाँ हम नागरिक वरिष्ट हैं।

हमें नहीं चाहिये ताव बल्कि चाहिये अच्छा बर्ताव
कोमल कोमल बोल कोमल कोमल भाव
इस दौर में न जाने कब डूब जाये जीवन नाव
फिर भी हम समेटते रहते अपना बिखराव
पिचपिचाये खोखले मुँह अब कहाँ बलिष्ट हैं
जी हाँ हम नागरिक वरिष्ट हैं।

रोग कभी भी बेखटके चले आते हैं
हर दिन हम उनसे छले जाते हैं
तीखी दवाईयों से मन जले जाते हैं
हम रोटी से नहीं दवाई से पले जाते हैं
हम नहीं ले सकते कोई भी व्यँजन गरिष्ट
जी हाँ हम हैं नागरिक वरिष्ट।

चाँदनी हमें आज भी प्यारी है
भले ही हमारे साथ कुछ लाचारी है
इन दिनों याद खूब आती महतारी है
हर बेटी पोती बच्चों की मुद्रा लगती न्यारी है
स्नेह से सराबोर जीवन के बचे पृष्ट हैं
जी हाँ हम नागरिक वरिष्ट हैं।

ऐसा नहीं कि हम मारते नहीं घिस्से
हमारे साथ बैठो हम सुनायेंगे अपने कुछ किस्से
सुख दुख तो आते रहते हैं सबके ही हिस्से
हम भी रहे संकटों से बहुत पिस्से
हम किसी का भी नहीं सोचते अनिष्ट हैं
जी हाँ हम नागरिक वरिष्ट हैं।
दिनांक-23/02/2020
स्वतंत्र लेखन

खामोशी.....

खामोश लब है
झुकी है पलके।
होठों की सरहद ओढे
मलयलिन अलके ।।

खामोशी की ज्वाला
सुर्ख होठों के तले।
डरी डरी सी है निगाहें
दर्द की चिता जले।।

प्रीति के बादल है घिनौने
घुंघट में सुहागन जले।
रिती के पनघट हैं सूने
मृग मरीचिका को चले।।

पछुआ ने भी दर्द दिया
पुरवा भी तूफान हो गए।
खामोशी का ऐसा मंजर
व्यथित भाव बेईमान हो गये।।

खामोशी के आलिंगन
जर्जर ठूँठ निरीह बन गए।
पंछी व्याकुल बिना नीड के
मानव भी निर्जीव बन गये।।

स्वरचित
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज।

# कलम की संजीदगी #

डर लगे हमें कलम लिए हाथ में
कब तक रहो तुम मेरे साथ में!!
खुद को ही झिड़की दे देवें हम
कभी कभी यूँ ही बात बात में!!

पत्नि से भी हो जाए पंगेबाजी
मेरी कभी दिन में या रात में!!
मेरी तो मेरे सनम से भी
हुई थी पहली मुलाकात में!!

जिसे हम कभी नही भूल पाए
बड़ा गुस्सा था उनकी आँख में!!
नही बोले थे मुझसे बहुत दिन
शिकवे गिले होते हैं शुरूआत में!!

मेरा भोलापन अड़ियल स्वभाव
ले आया आज इस हालात में!!
यूँ ही नही खिले ये फूल 'शिवम'
इस दिल के मचलते जज़्बात में!!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 23/02/2020

विषय -स्वतंत्र लेखन ।स्वरचित।
शीर्षक-ख़ामोशी।

कहती है खामोशी भी
अपनी जुबान से।
है मेरे भी जुबान
सुनो अगर ध्यान से।।

मैं खामोश हूं तो यूं नहीं कि
मैं बोलना नहीं जानती।
मैं खामोश हूं क्योंकि
मैं कुछ जताना चाहती हूं।।

मैं खामोश हूं क्योंकि
मैं शोर नहीं चाहती।
मैं शांति स्थापना चाहती हूं।।

मैं खामोश हूं क्योंकि
मैं विवाद नहीं चाहती।
मैं समस्या का समाधान चाहती हूं।।

मैं खामोश हूं क्योंकि
कहा ही जाता है कि
एक चुप सौ सुख ।।

यानि सभी सुखों के मूल में
मैं ही मैं हूं, मैं ही मैं हूं, मैं ही मैं हूं।।
****
प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
23/02/2020
23/2/20

पल से पल की मुलाकात नही होती।
बीते हुए पलो की पुनरावृत्ति नही होती।

घटती जा रही है पल पल उम्र की राह अपनी।
लौट आये बचपन ऐसी चाह पूरी नही होती।

कुछ पल ही सही कोई बैठ जाये पास मेरे।
बुजुर्गो की ऐसी चाह कभी पूरी नही होती।

पल पल समेटने में लगा आज का मानव।
फिसलते पल की पकड़ मजबूत नही होती।

दुःख और सुख एक ही राह के राही होते।
कौन बनेगा साथी इसकी वजह नही होती।

कुछ पल ही सही खुदा से दोस्ती कर लो।
एक वही है जिसकी दोस्ती झूठी नही होती।

स्वरचित
मीना तिवारी

मनपसंद विषय लेखन
तिथि 23/2/2020/रविवार

विषय-*पाखंडी दुनिया*
छंदमुक्त

ये दुनिया
लगता है समूची ही
कहीं पाखंडी हो गई है।
क्या सही है
लोग कहते हैं सचमुच आज
राजनीति रंडी हो गई है।
कहां तक मारोगे तुम
इन बेटियों,अबला, कन्याओं को
मान लो पापियों अब
इन सबकी आत्माओं में
मां रणचंडी जाग्रत हो गई है।
बेटियों ने कहां तुमसे पंगा नहीं लिया
हर क्षेत्र में तुमसे लोहा लिया,
पूरी तरह धो दिया
तुम कब तक इनसे छल करोगे
कबतक इन पर बल प्रयोग करोगे
समझ लो तुम्हारा
नामोनिशान मिट जाएगा
तुम क्या इनसे
सारा जमाना हिल जाएगा
वक्त की मार
क्या तुमने देखी नहीं है
ये सब आडंम्बर मिट जाएगा
पाखंड का विस्तार अब
कभी नहीं हो पाएगा।
संभल जाओ वरना जेहादियों
तुम्हारे धर्म की बुजदिली
इस छद्म से सदियों तक
इस हिंदुस्तान का बाप याद आएगा
झूठा पाखंड धरा रह जाएगा।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
गुना म प्र

स्वतंत्र विषय रचना

"मत रोको आज लिखूंगा मैं"

जिनको विरोध है भारत से,वो देश में क्यों कर रहते हैं।
अपने नापाक इरादों से,हर पल वो देश को छलते हैं।।

मत रोको आज लिखूंगा मैं,उन जयचन्दों के बारे में।
जो देश का सौदा करते हैं,उन बेशर्मों के बारे में।।

नागरिकता एक बहाना है,उनको तो दंगा करना है।
जिन्हें अर्थ पता नहीं इसका, उनको अब नंगा करना है।।

यहाँ जाति धर्म की बात नहीं, सर्वोपरि शान देश की है।
जो भी दंगा भड़काते हैं, शामत बस उन पतितों की है।।

मत गद्दारों से बात करो,चाहे वो मौलाना ,पंडित ही हो।
बस हुक्का पानी बंद करो,चाहे कोई हिन्दू मुस्लिम हो।

इतने से न यदि बात बने, तो देश निकाला करो सभी।
उड़वा दो उनको तोपों से, जो भी गद्दारी करे कभी।।

कुछ माया नगरी के कीड़े, सड़कों पर रेंग रहे हैं अब।
जिनका है कोई वजूद नहीं, वही ज्ञान सिखा रहे हैं सब।।

जिनकी रोजी हमसे चलती, वही आंँख दिखा रहे हैं सब।
बेचा है जिसने गरिमा को, विधवा विलाप कर रहे अब।।

जिन सांपों को दूध पिलाया था, वो हिंसक बने हुए हैं सब।
जो पलते हैं हमारे टुकड़ों पर, अराजक बने हुए हैं अब।।

जागो जागो इनको रोको, यह देश बचा लो तुम इनसे।
बन जाओ वंशज राणा के, यदि आन बचानी है फिरसे।।

अब भी यदि नहीं रोका इनको, ये काफिर बढ़ते जाएंगे।
जो रेंग रहे हैं किड़ों से, वो पल -पल को तड़पाएंगे।।

मकसद जिनका बंटवारा है,क्यों बात कर रहे हो उनसे।
जो देश द्रोही हैं बन बैठे, क्यों दया कर रहे हो उनपे।।
(अशोक राय वत्स)©® स्वरचित
रैनी, मऊ उत्तरप्रदेश,

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कण्डलिनी

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(1)
चल बरसाने हम चलें, होली खेलें साथ।
राधा भी तैयार है, ले पिचकारी हाथ।।
ले पिचकारी हाथ, प्रीत की रीत निभाने।
करो नहीं अब देर,सखी अब चल बरसाने।।

(2)
बरसाने में कृष्ण जू , खेल रहे हैं रंग।
राधा को घेरे खड़े, ग्वाल बाल सब संग।
ग्वाल बाल सब संग,लगे दिल को सरसाने।
युवा बाल अरु वृद्ध, चले आये बरसाने।।

~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया
दिनांक 23-2-2020
वारः-रविवार

विधाः- छन्द मुक्त

शीर्षकः- बेटियों तुमको अब दुर्गा बनना होगा

करा सहन बहुत ही तुमने नहीं अब करना होगा।
मेरी बेटियों सुरक्षा का बेड़ा स्वयं उठाना होगा।।

बहत्तर वर्ष हुये काटा था हमने गुलामी का फन्दा।
तुम्हारी सुरक्षा को शासन प्रशासन रहा सदा अन्धा।।

कड़ा कानून बनाने की ही बात सदा हैं रहते करते।
कानूनों से क्या होगा जब उसका पालन नहीं करते।।

रसूखदार लोगों के विरुध्द रपट ही नहीं वह लिखते।
न्यायालय के आदेश के बाद भी नहीं हैं वह सुधरते।।

शाहजहाँपुर में बलात्कार को जबरन सम्बन्ध लिखते।
पूर्व मन्त्री का अपराध हल्का करने का प्रयास करते।।

बलात्कारी रहता अस्पताल में पीड़िता को जेल भेजते।
कार्यवाही नही होती उन पर, वह अफसर बने रहते।।

कानून कड़ा करने के स्थान पर कानून पे अमल करें।
उनके गायब या बलात्कार पर त्वरित कार्यवाही करें।।

बलात्कार की रिपोर्ट पुलिस को तुरन्त होगा लिखना ।
रपट लिखाने को पीड़िता को नहीं होगा कहीं भटकना।।

परन्तु मेरी लाड़ों लगता नहीं मुझे ऐसा बदलाव होगा।
अपनी सुरक्षा को तो तुमको स्वयं है दुर्गा बनना होगा।।

कस लो कमर बिटिया अब जूडो कराटे पड़ेगा सीखना।
हर दुराचारी की हड्डी पसलियां स्वयं पड़ेगा चटखाना।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
"व्यथित हृदय मुरादाबादी"
स्वरचित


तिथि - 23/02/2020
विषय- स्वतंत्र लेखन

एक सैनिक युद्ध स्थल से .......
माँ रात काली है ,
जंग ज़ारी है !!
न जाने कब बुलावा आ जाय ,
इसलिए काली रात में चाँद को
ढूँढता ....कोई लफ्ज़ लिखने
की कोशिश कर रहा हूँ ।
रथ का टूटा हुआ पहिया ,
अपनी दास्ताँ सुना रहा है ।

मेरे भाइयों के जख्मों से रिसता हुआ खून
मुझे यह बता रहा है ....
न जाने जीवन का अंतिम क्षण
कैसा हो !!
सामने नाले का पानी रक्त रंजित
हो गया है ।उसे देख कर जीवन का
सत्य समझ पाना आसान हो गया है।
माँ मैं तुम्हें एक बार देखना चाहता हूँ।
पर मेरा लक्ष्य मुझे रोक रहा है।
माँ दुआ करो अपना लक्ष्य हासिल कर के मैं
तुम्हें देखने आ सकूँ !

स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
रत्ना वर्मा
धनबाद-झारखंड

विषय -स्वतंत्र लेखन 🙏परिवार महत्व समझ......
दिनांक 23-2- 2020

गोद माता की मिले,और संग मिले पिता प्यार।
नहीं जाना मुझे काशी मथुरा,सब मेरा परिवार।

माँ बच्चों की प्रथम गुरु,है वो ही मूसलाधार।
जन्म दिया माता,और गुरु देता सदा आकार।

सदा प्रसिद्धि पाई जग में,संग पाया सम्मान।
मात पिता से दूर गए,तो समझो जीवन बेकार।

नेह दिखाती माँ सदा,पिता का सतत व्यवहार।
परिवार संग जीवन यापन,यह जीवन आधार।

वो राह भटक गए,नहीं मिला उन्हें कोई छोर।
दर-दर ठोकर खाते रहे,वह बने रहे बस ढोर।

स्वच्छंदता उन्हें पसंद,नहीं चाहिए कोई रोक।
बिन लगाम घोड़े बने,वह अब दौड़े चहुँओर।

राह खड़ी करते मुश्किल,वो जीवन जीते ढोर।
ऐसा जग में वो करते, जो वंचित रहे संस्कार।

कर ले कुछ अच्छा जग में,बन जा तू सिरमोर।
नहीं पाएगा जीवन मनु,बस भटकेगा चहुँओर।

कहती वीणा मान जा,और गले बांधले डोर।
आवारा ज्यूं भटकता रहा,नहीं मिलेगा छोर।

वीणा वैष्णव "रागिनी"
स्वरचित
कांकरोली
🌹चंद अशआर 🌹ओह शाम ढलने लगी मैं तो
ख्वाब देख रहा था मिनारों का!
इंतजार कर रहा था यह दिल
आती हुई हसीन बहारों का!

कितने जल्दी ढल गया ये समां
सुकूं भी न मिला इन किनारों का!
सोचा था उनसे अब बतियायेंगे
ऋण चुकायेंगे उन पतवारों का!

जो दिए रहे वो हमको हरदम
जो वादा किए थे सहारों का!
वो तो मैंने ही न लिया सहारा
देखना चाहा बल मझधारों का!

लड़ता रह गया झंझावतों से
अनसुनी किया उन इशारों का!
अब मिलें तो किस बहाने मिलें
सबूत भी न उन जुड़ते तारों का!

वो तो पहचानेंगे भी न 'शिवम'
क्या कहूँ किस्सा उन गलियारों का!
झूठे जहां में गलत समझेंगे
कौन सुना हाल गम के मारों का!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 23/02/2020
22 /2 /2020
बिषय,, स्वतंत्र लेखन

चलो चलें गाँव हमारे
हमारे गाँव में बहती है नदिया
वहीं पर पर चरती है गाय किनारे
बूढ़ा दरख्त हमसे कुछ कहता है
धूप छांव वर्षा सभी कुछ सहता है
पीपल के नीचे बुजुर्गों की चौपाल
चले आ रहे हैं लकड़ी को संभाल
यही है पंचायत यही है थाना
हर सुख दुख बैठकर सुलझाना
तुलसी का बिरछा हमारे अंगना
झूला पड़ा झूल रहे ललना
चूल्हे की रोटी की खुशबू महकती
बिही के पेड़ पे गौरैया चहकती
भर कटोरा माँ देती दूध रोटी
गलियों में खेलें बच्चे कंचा और गोटी
घर के पास ही बना खलिहान
कभी गेहूँ की फसल तो कभी धान
.संध्याकाल में गाय रंभाती
बछड़ों पर वात्सल्य लुटाती
देखने में सुंदर लगें प्यारे प्यारे
स्वरचित, सुषमा ,ब्यौहार
विषय..चूडि़यां
विधा पिरामिड़।

ये
मन
मे प्रेम
भर देती
प्यारी चूडि़यां
भेद दिल के ये
सारे खोल देती है।
(2)
तू
जान
से प्यारी
सुहागन
मन भायेगी
देख तेरे रंग
जी को है ललचाये।
(3)
है
करे
श्रृंगार
दुल्हन का
मनभावन
सुहाग प्रतीक
पहने सुहागन।
(4)
यें काँच
चूडियाँ
रंग बिरंगी
नारी श्रृंगार
है खनखनाती
प्रियतम रिझाती।
स्वरचित
ऋतु

विषय-मनपसंद
23/2/2020


🌹तुम घर कब आओगे🌹

चूम कर ,फूल ....भँवरे ने ,
प्रीत का रंग चढ़ाया था।
तुम्हीं ने....प्रेम-वंशी पर,
मृदु मदिर विहान, गाया था।
वह मधुर स्मृति दृगों में ,
वही फिर स्वप्न जगाती है।
ओ देश के सजग प्रहरी!
तुम्हारी याद जलाती है।
शिरीष-सुवासित निशा के,
भर उपालम्भ...निगाहों में।
बिछाए हूँ प्रेम-कुसुमों को
अश्रुओं से गीली राहों में।
ओ !निष्ठुर निर्मोही ! इधर,
कब दृष्टि घुमाओगे??
ओ! देश के सजग प्रहरी
तुम घर कब तक आओगे??

आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश
रास्ते जांम हैं
सरकारें मौन है
बड़ी विडंबना है।


चालीस पर्सेंट वाला अध्यापक
बच्चों से अस्सी पर्सेन्ट की
आस कर रहा है और
पन्द्रह पर्सेन्ट वाला
अस्सी पर्सेन्ट को
मारना चाहता है,
बड़ी विडंबना है।

लोकतंत्र को निगल रहा है
जाति-मजहबों का गठजोड़
कब तक कर सकेगा
चालीस वाला अस्सी वालों से होड़
पीली बसें सफ़लता की
गारंटी दे रही है
सरकारी स्कूलें नींद लें रही है
कवि फर्ज निभाना चाहता है
बड़ी विडंबना है।

मीडिया चिल्ला रहा है
नेता लड़ रहे हैं
जनता परेशान हैं
नफ़रत के गुबार
दिन-ब-दिन बढ रहें हैं,
दुश्मन घात लगाए हैं
वो यही तो चाहता है
बड़ी विडंबना है।

प्लास्टिक पाउच बिखरे पड़े हैं
गांव-कस्बे भरे पड़े हैं
दीवारों पर थूकना आम है,
सड़कें नहीं है पर
कारें मोटरे किस्तों में ले लो
उपदेशकों की भीड़ है
मजे कर लो, चैलों,
हर शहर गांव को
निगलना चाहता है,
बड़ी विडंबना है।

श्रीलाल जोशी श्री
तेजरासर, बीकानेर।
मैसूर।

विधा ........दोहा छंद
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*केश*

खुले *केश* है शोभते, बन अटखल सी नार।
सुंदर खुद को मानती, करती घर गुलज़ार।।
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*वेणी*

सुंदर *वेणी* लग रही , नारी का श्रृंगार।
लट की शोभा तब बढ़े, गूँथे फूलों हार।।
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*चोटी*

राधा की *चोटी* लगे , बेला सी कचनार।
श्यामल कच सुलझा रही,बाँध पुष्प की हार।।
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*बाल*

श्याम *बाल* को देखके ,केशव आये पास।
रख गुलाब तब केश पर, मंजुल राधा खास।।
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*जुड़ा*

अलंकार राधा सजी, शोभित नवलख हार।
बाँधी *जूड़े* पर सुमन, बन ललाम सी नार।।
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स्वलिखित
*कन्हैया लाल श्रीवास*
भाटापारा छ.ग.
जि.बलौदाबाजार भाटापारा
रविवारीय आयोजन
विषय : मनपसंद

तिथि : 23.2.2020

मैं जब भी तम्हें पुकारूं,तुम चले आना
तुम जब पुकारो गे, चली आऊंगी वादा।

बेवफ़ा न बनें गे, रखना है यही इरादा
न दिखावा,न झूठ, बस प्यार है सादा।

घुले न सादगी में कभी, ज़हर का मादा
प्यार हमारा शिव हो,ऐसा योग्य सिजदा।

दिए की लौ हो, हो पवित्र चंदन बुरादा
मंदिर के प्रसाद सा, रहे रहित तकादा।
-रीता ग्रोवर

-स्वरचित

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"अंदाज"05मई2020

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