Monday, February 17

"स्वतंत्र लेखन"16 फ़रवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-658
पतझड़ में सोया
सावन में जागा
जीवन बस चलता गया

टूटा नहीं कोई भी धागा ।

कहीं दूर तक रास्ते चले
मैं धागे को पिरोते चला
मौसम चाहे सर्द था लेकिन
स्वपन मेरा बिगड़ा न बना ।

घर छूटा, गांव छूटा
अपनों से न रिश्ता टूटा
जब कभी कटी पतंग तो
अपनों ने ही पहले लूंटा।

जीवन जीया तो जी भर जीया
चांद भी मेरे घर पर था
रात भी थी मेरी चौखट पर
मेरा सपना भी अपना था।

रूकती नहीं ये कलम आज
कह रही जमाने को बता जा
बसन्ती हो गई है धरती
धरती की खिली है आभा,
पतझड़ में सोया
सावन में जागा
जीवन बस चलता गया
टूटा नहीं कोई धागा।

श्रीलाल जोशी 'श्री'
तेजरासर, बीकानेर।
(मैसूर)
विषय मन पसन्द लेखन,माँ
विधा काव्य

16 फरवरी 2020,रविवार

माँ नाम जग अति पावन
माँ होती सृष्टि की सृष्टा।
माँ खिलाती है स्व अँचल
माँ होती जग में सुख वर्षा।

माँ ममता है माँ करुणा है
माँ होती देवी सी मूरत।
माँ त्याग तपस्या जग की
माँ स्वयं श्रीनाथ सी सूरत।

माँ देती, लेती नहीं कुछ भी
माँ का लल्ला सबसे प्यारा।
माँ संस्कारित करती उसको
माँ बेटा प्रिय राज दुलारा।

माँ गंगा यमुना की धारा है
माँ सा जग में कोई नहीं है।
माँ उज्ज्वला परोपकारिणी
माँ क्षमा रमा धर्मा सही है।

माँ ऋण उऋण नहीं हो सकते
माँ का ऋण होता अति भारी।
माँ चरणों में सब शीश झुकाते
सबसे उच्च पद जग महतारी।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
मनपसंद विषय लेखन
एवं

दृश्य-श्रव्य(ओडियो-वीडियो) प्रस्तुति
नमन मंच भावों के मोती समूह।
गुरूजनों, मित्रों।

तेरे घर में घुसके मार आये,
हम भारत के वीर जवान।

समझना मत हमको बुजदिल,
देश की खातिर हम लुटा देंगे जान।

तूने मारा चालीस को,
हमने बम गिरा के तीन सौ को मारा।

किया था तूने वार छिपकर,
हमने बदला उसी का चुकाया।

सुन लो ऐ बुजदिलों,
सम्भल जाओ, अभी भी है वक्त।

वरना मिल जायेगा मिट्टी में,
पाकिस्तानी कम्वख्त।

वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित

16/2/20

थके थके पाँव
बुझे बुझे से
चली बहुत
थकी बहुत
बोझ उठाये
जिंदगी का
घिसे तलुवों सङ्ग
चलती रही
चल रही अब भी
एक मुस्कान सङ्ग
कितने जख्म
दर्दो सङ्ग
उनकी भाषा
न पढ़ सका कोई
संघर्षों की दासता
जिंदगी की कहानी
बीता इतिहास
सफर का रूप
तिरछे पैर
टेढ़ी उंगलियां
नसों की जकड़न
असहनीय पीड़ा
दिल से शुरु
अंत पाँव तक
न पढ़ सका कोई
न समझेगा भाषा
अनेक पाँवो की रूपरेखा
भिन्न रूपो में
वेश में भाव मे
आशाओं के संसार मे
नारी के रूप में
वृद्धावस्ता के दहलीज में

स्वरचित
मीना तिवारी

!!हमारी अपनी सोच!!
!
!किसी का कौन सँकोच !!

हम हैरान हैं रहे हमें हैरानी
एक नही हजार जैसे बिजली पानी!!

ये मजबूरी आप नही समझ सकते
रहकर देखो यहाँ है ये राजधानी!!

किराया भी नही रहवे कभी बसों का
होय लेडीज को ज्यादा परेशानी!!

है जो पैसा ब्वाय फ्रेंड का खर्चा
करनी होती उसकी कद्रदानी!!

हमारी लाइफ आपकी तरह नही
बेशक कह सकती स्वार्थ कि कहानी!!

पर क्या करें हमारी मजबूरी है
कभी कर भी जाते हैं हम नादानी!!

वैसे सिटी में कौन किसे पहचाने
अपनी ढपली अपना राग जानी!!

यहाँ सब अपनी समस्या ही जानें
होय डर पर सौ नम्बर कब काम आनी!!

हम दिमाग का यूस करें सदा 'शिवम'
मेट्रो सिटी में यूँ न होय जड़ जमानी!!

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 16/02/2020
16/02/20
विरह वेदना


***
बिंदी माथे पर सजा ,कर सोलह श्रृंगार ।
पिया तुम्हारी राह अब ,अखियां रही निहार ।।

बिस्तर पर की सिलवटें,बोलें बिरहन बात ।
बिन साजन सजनी यहाँ ,तड़पी सारी रात ।।

पीड़ा मन की क्या कहूँ,रहते सदा उदास।
कैसे दिन अब काटते ,लिये मिलन की आस ।।

तुम बिन सूना जग लगे,भूल गये दिन रात ।
खान पान की सुधि नहीं,सुख दुख की क्या बात।।

विरह अग्नि में जल रहे ,मिले तनिक ही चैन।
चंचल मन व्याकुल हृदय,हर पल है बैचैन ।।

विरह पीर में तन जले , कीजे कुछ उपचार ।
आओ प्रियतम पास में,तुम जीवन आधार।।

स्वरचित
अनिता सुधीर

भावों के मोती।
मनपसंद विषय।
स्वरचित।
शीर्षक-"बात बस इतनी सी है।"
बात बस इतनी सी है कि
ठेस ना पहुंचे उसके अहंकार को
पुरुष होने के अभिमान को।।
बस फिर चाहे जो करा लो
प्यार से मनुहार से,रूठ के मना कर।।

मानो आप हों बहुत छोटे
और वह बरगद विशाल।
आप बहुत हैं बुद्धू-बेवकूफ
और वह विद्वान शंकराचार्य।
आप बहुत उथले तालाब से
और वह गहरा सागर अपार।
आप हो पौधा एक नन्हा सा
और वह उपवन विराट।
आप हो एक नन्ही चुलबुली सी गुड़िया
और वह ब्रह्म सा सृष्टिकर्ता साकार।।

बात बस इतनी सी है कि
ठेस ना पहुंचे उसके अहंकार को
पुरुष होने के अभिमान को।।

जीने दो उसे अपने भ्रम की दुनिया में
मानने दो उसे अपने को ब्रह्मा-विष्णु-महेश।
आपको भी देगा अपने दिल में
लक्ष्मी-सरस्वती-दुर्गा सम प्रवेश।
पहले खुद बनलो छोटा
और फिर हो जाओगे बड़े।।

बहुत बस इतनी सी है कि
ठेस ना पहुंचे उसके अहंकार को
पुरुष होने के अभिमान को।।

यही गुरु मंत्र,सुखी जीवन का तंत्र।
जिसे समय के अनुसार अपनाते जाओ
और जीवन को सुखमय बनाते जाओ।
मानते हो ना! सब यही बात?
चाहे बेशक में मैंने कह दी हो
हंसी-हंसी में गूढ़ बात।।

बात बस इतनी सी है कि
ठेस न पहुंचे उसके अहंकार को
पुरुष होने के अभिमान को।।
****

प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
16/02/2020
तिथि _16_2_2020
वार_रविवार


सुनो
ये जो फूल हैं
महकता है इनसे घर आँगन
और बाँट देते हैं
महक अपनी
शाखों से अलग हो कर भी
और ये जो पेड़ हैं
छाया तो सब को देते हैं
मगर बदले मे धूप पाते हैं
वो रेत जो बिखरी है
समंदर के किनारे पर
यूँ तो समंदर बहता है निरंतर
मगर फिर भी प्यासी होती है
तुमने सुनी है ना
ढोल की आवाज़
कितना शोर होता है
मगर ये अंदर से खाली है
बस अपनी भी यही कहानी है
ज़िंदगी मेरी भी एक पहेली है

स्वरचित
सूफिया ज़ैदी
स्वतंत्र विषय लेखन।

"मैं देश बचाने वाला हूँ"

जब देश हित में लिखता हूँ, वो कहते हैं आग उगलता हूँ।
जब बात देश की करता हूँ, कहते हैं मैं उकसाता हूँ।।

तुम भारत मूर्दाबाद कहो,मैं चुप कैसे रह पाऊंगा।
तुम अफजल का गुणगान करो,मैं शान्त नहीं रह पाऊंगा।।

तुम खुश होते हो गाली देकर, मैं जन गण मन ही गाता हूँ।
तुम आगजनी करने वाले, मैं वंदे मातरम सुनाता हूँ।।

तुम्हें हिन्द असुरक्षित लगता है,मुझे दिखती है जन्नत इसमें।
तुम बंटवारे के इच्छुक हो,मुझे माँ के दर्शन होते इसमें।।

तुम जिस थाली में खाते हो, फिर छेद उसी में करते हो।
हम राष्ट्र भक्त मतवाले हैं,तुम जड़ें खोदते रहते हो।।

तुम मोल लगाते हो सबका, मैं शब्द जाल ही बुनता हूँ।
तुम दूषित करने वाले इसको, मैं गंगा सा पवित्र बनाता हूँ।।

तुम नफरत बोने वाले हो, मैं नफरत का संहारक हूँ।
तुम जहर फिजा में घोल रहे, मैं बस अमृत का वितरक हूँ।।

तुम खुश होते हो आग लगाकर के,मैं आग बुझाने वाला हूँ।।
तुम टुकड़े करने वाले हो, मैं देश बचाने वाला हूँ।।
(अशोक राय वत्स)©® स्वरचित
रैनी मऊ उत्तरप्रदेश,
दिन - रविवार
आज मुक्त सृजन पर हमारी प्रस्तुति

रत्ना वर्मा/" लघुकथा/"
" माँ "
ठंड अपनी चरम सीमा पार कर रही थीं।
रागिनी का मन बिलकुल
रज़ाई से निकलने को नहीं कर रहा था । पर बिट्टू का इम्तिहान भी तो चल रहा है । यह सोच कर, वह झट से बिस्तर से उठ कर बाहर आ गयी ।
कहीं उसके पेपर न छूट जाएँ। आनन- फानन में जल्दी- जल्दी
नाश्ता तैयार कर बिट्टू को तैयार कर स्कूल भेजा और
चाय ले कर आराम से सोफ़े पर बैठ गयी ।
महीनों से उसकी तबियत ठीक नहीं चल रही थी।
आज उसको अम्मा( सासु माँ )की बहुत याद आ रही थी ।
उसकी तबियत ठीक नहीं रहने पर
कैसे गृहस्थी संभाल दिया करतीं थीं। वैसे भी वो बैठ कर कहाँ रहती थीं। उन्हीं के बल बूते पर आराम से कभी नौं कभी दस बजे उसका सो कर उठना - अम्मा को बुरा जरूर लगता था ।पर वह कभी कुछ बोलतीं न थीं।
सच ही कहतें हैं लोग जीते जी इंसान की कद्र नहीं
करते !"- मरने के बाद ही लोगों को उनकी नेकी बदी
समझ में आती है ---
आजकल ठाकुर जी की पूजा भी रोज़ नहीं होती !
वो थीं तो बैगर ठाकुर जी को भोग लगाए कुछ खातीं न थीं।
कहतीं थीं सुबह उठा करो सेहत ठीक रहेगी ?"- पर
उनकी बातों को अनसुना कर कानों से निकाल देना ...
उनकी हर बात का गलत मतलब निकालना आज
बख़ूबी रागिनी को खल रहा था ....
और वह उनके ही ख्यालों में गुम उनकी
तस्वीर को देखती रही ........... उसके मुँह से
अनायास निकल ही पड़ता है...
आखिर माँ, माँ ही होती है !!

स्वरचित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
रत्ना वर्मा
धनबाद -झारखंड

दिनाकः-16-2-2020
वारः- रविवार

विधाः- छन्द मुक्त

विषयः-वैलैन्टाईन डे

कई दिनों से मिज़ाज दुश्मनों का चल रहा नाशाद।
कर नहीं पा रहा मैं भी, मित्रों से अपना आदाब।।

सुना भाईयों दो दिन पहले था कोई वैलेन्टाइन डे।
आता नहीं है समझ में मेरी यह क्या होता है रे।।

विदेशी लोग होते ही है क्यों इतने अधिक गजब।
करते रहते जनाब कार्य भी क्यों वह इतने अजब।।

करते साल में सिर्फ एक दिन ही प्यार का इज़हार।
हम करें न एक दिन भी हो जाती है जूतम पैजार।।

करते रहेंगे प्यार सनम तुमको हम तो सदा सर्वदा।
कहा नहीं था हमने जाते समय भी तुमसे अलविदा।।

कर रहा हूँ ऐलान प्यार का अपने मैं डंके की चोट।
नहीं नियत में मेरी किंचित भी है कहीं कोई खोट।।

करना अगले जन्मों के लिये प्रपोज, रहेगा फाइन ।
बनोगी सनम तुम अगले जन्मों में मेरी वेलेनटाइन।।

अगले जन्मों में प्यार में हमारे जो टांग अड़ायेगा।
वह बेचारा तो अपनी टांग से ही हाथ धो जायगा।।

अभी तबियत ठीक नहीं आपसे बन्दा माफी चाहेगा।
ठीक होते सेवा में आपकी तुरत हाजिर हो जायेगा।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादावादी”
स्वरचित
आदाब साथियों

वज़्न -2122 2122 2122 212

ग़ज़ल

हौसले दिल में है लेकिन ज़ख्म सा है आँख में,
पाँव चलते हैं मगर इक आबला है आँख में ।

अश्क हर पल साथ दें फ़िर ग़म हो चाहे हो ख़ुशी,
ज़िंदगी भर बस नमी का सिलसिला है आँख में ।

मुद्दतें गुज़री गए वो अलविदा कह कर मगर,
उस घड़ी का आज भी मंज़र हरा है आँख में ।

दर्द के मोती छुपाए सीप में और फिर कहा,
कुछ नहीं यूँ ही ज़रा तिनका गिरा है आँख में ।

राह मुश्किल दूर मंज़िल उस पे ये तन्हा सफर,
ख़्वाब फ़िर भी कामयाबी का बसा है आँख में ।

देखता है वो फ़लक से चल ख़ुसूसी काम कर,
रूह तक जाने का हमदम मरहला है आँख में ।

चश्म तेरी दूसरों के ग़म में नम है शुक्र है,
नूर अब भी 'आरज़ू' कुछ तो बचा है आँख में ।

-अंजुमन 'आरज़ू' 
 मेहंदी!मन में गूँजती तान है
मेहंदी!लावण्य की मुस्कान है
मेहंदी!उमंग की पहचान है

मेहंदी!अलग रखती शान है।
वातावरण था पूरा मेहंदीमय
मेहंदी की गूँजी सब ओर लय
हर वय खुशी में हुई तन्मय
पुलकित हो उठा परिणय।
उस नन्हीं में बात निराली थी
उसकी हर उमंग मतवाली थी
प्रकृति प्रदत्त सौन्दर्य बोध
मुख पर ऊषा की लाली थी।

16/2/2020
विषय-मन पसंद लेखन
विधा- गीत

दो त्राण भी।
आज दुष्कर है जीवन, औ प्राण भी।
क्षुब्ध मानव है विकल ,दो त्राण भी।।

चँहु ओर हाहाकार, कठिन जीवन
दग्ध है ज्वालामुखी ,जले ज्यों वन ।
धधकती इस आग का, निस्त्राण भी,
आज दुष्कर है जीवन, औ प्राण भी ।।

चित्कारती वेदना, भ्रमित अविचल,
सृजन में संहार है, हर एक पल ।
खण्डित आशा रोती, संत्राण भी ,
आज दुष्कर है जीवन ,औ प्राण भी।।

तिमिराछन्न परिवेश, तृषित अतृप्त ,
कस्तुरी खोजता मृग, है संतप्त ।
पुकारता टूटा मन ,नरत्राण भी ,
आज दुष्कर है जीवन ,औ प्राण भी।।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।
।। बेटी ।।

मनहरण घनाक्षरी छंद
8+8+8+7

कुल की ताज है बेटी,
घर की भी लाज बेटी,
जिस घर रहे वहाँ,
लक्ष्मी का भी वास है।

माता की तो जान है ये,
मधुर सा गान ये है,
आन-बान, शान-मान
नहीं परिहास है।

पति की संगिनी बन,
रहती है साथ सदा,
कभी बहू बन कर,
करती निवास है।

अबला ये नहीं रही,
कुलछिनी कहो नहीं,
तेज बल बुद्धि सब,
इसके भी पास है।

भाविक भावी

मनपसन्द लेखन के तहत
दिनांक-16/02/2020
मापनी-2122. 2122. 2122. 212
क़ाफ़िया- आना स्वर
रदीफ़- सीखिए।
विधा-ग़ज़ल
========================
प्यार को फिर नौ सिरे से आजमाना सीखिए ।
दिलरुबा की याद में आँसू बहाना सीखिए।।
**********************************
काम आओ आदमी के आदमी हो तुम अगर,
मन बनाकर राह में कुछ डग बढ़ाना सीखिए।।
**********************************
छेड़िए क़िस्सा मुहब्बत का मिले जो बा वफ़ा,
इस जहाँ में नफ़्रतों से बाज़ आना सीखिए।।
**********************************
चाहतों के वास्ते आगोश-ए-दिल में याद रख,
उन्स अपने के लिए तुम तिलमिलाना सीखिए।।
**********************************
ग़ैर को तर्जीह दीजे आख़िरश है आदमी,
खुनस खाकर ग़ैर पर मत बड़बड़ाना सीखिए।।
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'अ़क्स' दौनेरिया

विषय-स्वतंत्र लेखन
दिनांक 16-2-2020


मेरी लेखनी हर जन ह्रदय,एक दिन छा जाएगी।
जिंदगी खुद को,कब तक आईने से बचाएगी।

अभी चूभ रही जिन्हें,नुकीले कांटों की तरह।
उन घावों पर,औषधि बन वो लेप लगाएगी।

क्या हश्र होगा,हकीकत जब सामने आएगी।
चेहरा नकाब हटा,हकीकत रुबरू कराएगी।

तेज झंझावत से उजड़े है, बागबान ऐ गुलशन।
कर इंतजार,पतझड़ बाद बसंत बहार आएगी।

ठोकर लगेगी,जिन्होंने पांव अंजान राह बढ़ाया।
पूछ कर जो चले,मंजिल उनके करीब आएगी।

गुजरती जिंदगी,तू रंगीनियों में भटकता रहा।
तेरी हसरतें ही ,एक दिन जज्बा आजमाएगी।

सपने आंखों में बहुत,पर नींद तुझे नहीं आएगी।
दर्दे आशिया बनाया,ख्वाब में रात गुजर जाएगी।

मौत हकीकत जान,जिंदगी आसां बन जाएगी।
बची है थोड़ी,वह तो अपनों संग गुजर जाएगी।

कहे वीणा नेक राह,सफलता करीब लाएगी।
महल नहीं घर बना,जिंदगी जन्नत बन जाएगी।


वीणा वैष्णव
कांकरोली
दिन :- रविवार
दिनांक :- 16/02/2020
विषय :- स्वतंत्र लेखन

वीरान ये गलियाँ,
कचोटती है मन को।
धूमिल होती यहाँ यादें,
सिहरा देती तन को।
यह सुनहरी धूप जो,
तरसाती नेह मिलन को।
जैसे आतुर मेघ,
धरा के आलिंगन को।
है तप्त ये मौसम,
कर रहा गर्म हर सांस अब।
टूट रही है यहाँ,
इंतजार की हर आस अब।
हसीं थे तब कितने मंजर,
चूभ रहें अब बनकर खंजर।
यादों की यही अब दास्ताँ है,
अनजान अब हर रास्ता है।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

१६/२/२०२०
मनपसंद - विषय
*******************
इश्क़ था मुझे
दिल की गहराईयों में
मेरी तन्हाइयों में
खामोशियों में
जज़्बातों में
हमेशा सबसे छुपा रखा था।
क्योंकि हजारों बंदिशें थीं
इश्क़ पर
तो इबादत ही सही
शिवालय की घंटियों की
आवाज में सुनती थी
कभी मंदिर के अगरबत्ती
से उठते धूँएँ में महसूस करती
तुम्हें...
जब चंदन को माथे से लगाती
तो लगता तुमने छुआ है मुझे
हवन सामग्री की रज बन, तुम
अपना लेना मुझे।
अगर मेरा इश्क़ गुनाह था
तो ऐ खुदा..!
माफ करना मुझे
मैंने इश्क़ को ही इबादत
माना है....
तनुजा दत्ता ( स्वरचित)

16.2.2020
हे दयानिधि भक्ति - वत्सल, निज चरण अनुरक्ति दे दो ।
बुद्धि, ज्ञान, विवेक दो, निज पाद - पंकज भक्ति दे दो।
दाल, बाटी, चूरमा, लड्डू व पेड़ा और रबड़ी
भोग छप्पन सामने हैं किन्तु खा सकते नहीं हैं।
हे दयानिधि भूख दे दो,
हे दयानिधि भक्ति वत्सल निज चरण अनुरक्ति दे दो ।
डबलबेड, मोटे से गद्दे साथ में अपिधान भी है
मखमली चादर बिछी है किन्तु सो सकते नहीं हैं।
हे दयानिधि नींद दे दो,
हे दयानिधि भक्ति वत्सल निज चरण अनुरक्ति दे दो ।
एक या दो तीन बेटे अथवा बेटी जो दिया है
वधू पोतों से भरा घर किन्तु हँस सकते नहीं हैं।
आपसी सद्भाव दे दो,
हे दयानिधि भक्ति वत्सल निज चरण अनुरक्ति दे दो ।
जिनको दी है भूख वे रोटी नमक के साथ खाते
जिनको दी है नींद टूटी खाट को बिस्तर बनाते।
हे दयानिधि! हास का भी अब उन्हें विश्वास दे दो।
हे दयानिधि भक्ति वत्सल निज चरण अनुरक्ति दे दो ।
बुद्धि, ज्ञान, विवेक दो निज पाद पंकज भक्ति दे दो।

रविवारीय आयोजन
विधा : कविता
तिथि : 16.2.2020

बदल रहा है मौसम
प्यार का भी बहार का भी।
आजा साथिया जमा लें रंग
कुछ कुछ खुमार का भी।

बन रहा है मौसम
मिलन का भी, इकरार का भी
आजा साथिया खतम कर दें
समां इंतज़ार का भी।

आ गया है मौसम
अब तो नज़रें चार का जी
आ नज़रों से करें बातें
बनाएं समां ऐतबार का ही।

रीता ग्रोवर
स्वरचित

स्वपसंद लेखन
विधा लघुकथा

समझदार बहू

संगीता घर में सबसे छोटी बहू बन कर आयी है,
रामलाल के तीन लड़के हैं जो नौकरी
करते हैं । दो की शादी हो गयी है बहुएं बड़े घरों
से हैं , उन्हें किटी पार्टी, बर्थडे पार्टियों से फुर्सत ही नहीँ मिलती । दोनों के दो दो बच्चे हैं जो स्कूल जाते हैं , उनका होमवर्क कराने का किसी के पास समय नहीं होता । वह परेशान होते रहते हैं । आखिर बच्चों को ट्यूशन लगा दी । एक एक बच्चे के दो दो हजार लग रहे थे । लड़के भी अपनी अपनी पत्नियों के खर्चों से और स्कूल फीस , टयूशन परेशान थे , लेकिन कुछ कर नहीं पा रहे थे ।
तीसरे बेटे की शादी के समय रामलाल ने पैसे की जगह संस्कारों को महत्व दिया और संगीता को घर ले आये । संगीता पढ़ी लिखी समझदार लड़की है उसके घर आते ही दोनों जेठानियों ने अपने रंग में रंगने की कोशिश की , लेकिन संगीता ने अपनी जिन्दगी अपने हिसाब से जीने का तय किया ।
संगीता के व्यवहार से बच्चे, बड़े सब उसको चाहने लगे थे । जब संगीता को मालूम हुआ कि बच्चे पढ़ाई और होमवर्क के लिए परेशान होते हैं, और घर से आठ हजार रूपये फीस भी जाते हैं , तब उसने बच्चों को ट्यूशन नहीं भेजने का निश्चय किया ।
अब जब दोनों जेठानियाँ दोपहर को
बाजार , किटी पार्टी में जाती तब संगीता चारों बच्चों को पढ़ाने बैठ जाती । इस तरह बच्चों का ट्यूशन जाना बंद हो गया , इससे पैसे भी बचे और बच्चों का जाने आने का समय भी बच गया ।
रामलाल भी संगीता की इस पहल से बहुत खुश हुए और संगीता भी मोहल्ले के दूसरे बच्चों को भी पढ़ाने लगी ।

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

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"अंदाज"05मई2020

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