Friday, December 13

"छाया / छांव"11दिसम्सबर 2019

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ब्लॉग संख्या :-592
11/12/2019
"छाँव/छाया"

कहमुकरी
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साथ मिले तो हमको मोहे
पास बैठके मनवा सोहे
जैसे पहूँचे शीतल गाँव
ऐ सखी बालम?ना सखि छाँव।

जहवा जइब साथ ही रहते
आगे- पीछे हरदम रहते
साथ न छोड़त हमरी काया
ऐ सखि बालम? ना सखि छाया।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

11/12/2019
"छाँव"(2)

नवगीत
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याद है वो सारी कहानी...

वो पीपल की घनी छाँव
वहाँ प्यारा-सा है गाँव
रुत थी बड़ी ही सुहानी
याद है वो सारी कहानी।

उस पीपल के छाँव तले
हम दोनों जग को भूले
मुस्कुराती थी चाँदनी
याद है वो सारी कहानी।

चल फिर से हम वहाँ चलें
पीपल के उस छाँव तले
कर लें फिर हम नादानी
याद है वो सारी कहानी ।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

विषय छाया,छांव
विधा काव्य

11 दिसम्बर 2019,बुधवार

मात पिता की सिर पर छाया
हो परमपिता का आशीर्वाद।
हो संस्कारित दर्पण मानस
कभी न हो जीवन बर्बाद।

वट आम पीपल की छाया
शीतल मन्द पवन सुहानी।
करे थकावट सदा दूर यह
निकले मुख से मीठी वाणी।

खून पसीना सदा बहाता
श्रम वारी से दिन भर नहाता।
वह जाने छाया की कीमत
दुःख दर्दो में सदा कराहता।

शस्यश्यामल भारत माता हो
धानी चूनर धरती पहने।
शुद्व पर्यावरण जग में फैले
फिर देखो भू के क्या कहने।

पेड़ लगाओ फूल खिलाओ
इस धरती को स्वर्ग बनाओ।
चारों तरफ़ फैले नित छाया
मिल प्रकृति को सदा सजाओ।

स्वरचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

विषय छांव
दिनांक 11/12/19


चले कुछ दूर तक कहीं कोई गांव मिले
वो नीम का पेड और शीतल छांव मिले

लंबी पतली पगडंडियां, हरी भरी क्यारियां
डालियों पे टंगे झूले, धूल सने पांव मिले

घंटियो की आवाजे, आरती का मधूर गान
छोटा सा मंदिर वो, भक्तिमय वह भाव मिले

खत्म न होती बातें, ठहाके सब ओर बस
दुनियादारी से दूर, मुख प्रसन्न हर बार मिले

नदिया की धारा, और अकडू खडे पहाड
झुरमुट बेर झाड़ियां, खाने के चाव मिले

इन शहरों ने छीना दिल का चैन औ सुकुन
लौट चल वापस मन, अपना वो गांव मिले

कमलेश जोशी
कांकरोली राजसमंद

विषय -छांव/ छाया
दिनांक ११-१२-२०१९
घने वृक्ष छांव से,घनी मात पिता आशीष छाया।
पड़कर लोभ लालच मनु,सौभाग्य यह गंवाया।।

पत्नी प्यार अंधा हो,मात पिता को ठुकराया।
जीवन लगा दिया,तूने उन्हें वृद्धाश्रम पहुंचाया।।

तेरी बारी भी आएगी,क्योंकि तूने भी पुत्र जाया।
जैसा देखा वैसा किया,यही विधाता की माया।।

पुत्र वह तेरा है लेकिन,पत्नी बाहर से वो लाया।
होगा एहसास,जब खेल यही तेरे संग दोहराया।।

सुख दुख दोनों सहता,मात पिता आशीष छाया।
श्रवण जैसा क्यों ना बना,बना विभीषण भाया ।।

मात-पिता वचन पूरा करने,राम ने वन पाया।
सुख दुख सहे बहू,तभी तो जग ना बिसराया।।

इतिहास अमर हो गया,राम संग लक्ष्मण भाया।
कैकयी को कुयश मिला,नाम न कोई दोहराया।।

माता पिता आशीष छाया,जिसने जीवन में पाया।
स्वर्ग सुख धरा पर,उस परिवार ने ही सदा पाया।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
शीर्षक-- छाया / छाँव
प्रथम प्रस्तुति


दिए हमें जो छाँव उन्ही को खतम किये
मानव ने ये कैसे खुद पर सितम किये ।।
औरों की तो दूर खुद की न खबर है
जिस छाँव में रहे उसी पर जुलम किये ।।

एक छाँव में कितने जीव पलते हैं
कितने जीव जले कितने जलते हैं ।।
आशियाने परिंदों के छीन लिए
बददुआ से इंसा अब न डरते हैं ।।

हरेक तरफ अब धूप ही धूप
इंसान का बदला रंग रूप ।।
कभी थी सृष्टि ये खूबसूरत
बना दिया अब उसको कुरूप ।।

कृत्रिमता का अब जोर शोर है
एकल परिवारों का 'शिवम' दौर है ।।
बड़े बूढ़ों की अब छत्र छाया न
ये कौन से युग की भयी भोर है ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 11/12/2019
बिषय- छांव

चलना है ताउम्र धूप ही में तो
छांव की फिर जरूरत क्यूं है?
खिलना है जब कांटों ही में तो
कलियों को फिर शिकायत क्यूं है?

आंसा नहीं होता, यहां जीना
जीवन गरल को हंसकर पीना।
देखते देखते बदल जाता दृश्य
हर कदम पर होती क़यामत क्यूं है?

बदनसीबों के नसीब में नहीं होती
सुख-सुकूं की अखण्ड ज्योति।
बड़ा कठिन है पाना इस प्रकाश को
मगर इसी की सबको चाहत क्यूं है?

रिश्तों के सभी हैं सौदागर यहां
अपनापन तुम्हें मिलेगा कहां।
खुद को चाहना ही बड़ी नेमत है
गैरों के प्यार की फिर जरूरत क्यूं है?
स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर
11/12/2019
बिषय,, छाया, छांव

वुजुर्गों की छाया सबसे बड़ी
सदैव संग रहती हर पल हर घड़ी
जैसे कि बिशाल बरगद देता सभी को छांव
गहरी नदी पार करती छोटी सी नाव
उसी तरह बुजुर्ग हमारा भला चाहते
तत्पर रहते जरा भी हम कराहते
अनुभवी आँखों से समझ जाते परेशानियां
नजरअंदाज करते हमारी नादानियां
बृहद्हस्थ सिर पर ऐसे वो हीरा
क्षण भर में समझ जाते दिल की पीरा
संग में कुछ न लेकर जाते
अनेकों विरासतें देकर जाते
जिसने इनसे सीखा वो बहुत बड़ा खिलाड़ी है
जो स्वयंभू हैं वो बहुत बड़े अनाड़ी हैं
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार

"भावों के मोती"
11/12/2019

छांव/छाया
*********
नीले आसमान पर उड़ते
बादलो के टुकडे
उकेरते हैं
कैसी कैसी आकृति
फिर
उन्ही यादों के झुरमुट से
झांकते लम्हें
न जाने
कैसे पतझड़ मन के वीराने में झर जाते है
लमहों से गुजरता मन सूखे पत्तों की
चरमराहट
जैसे झुरमुट से
आती कभी धूप तो कभी छावं मन को सुख से भर देती है
तेरे आँचल की छांव में ही
सुखी सुरक्षित पाती हूँ ।
है ईश्वर तेरी छाया में रहना
चाहती हूँ ।
देखो न
ये यादों का सावन ने
जैसे बारिश की झड़ी लगा दी,
ये झड़ी तो रुकती ही नहीं दिनरात चलती है,
कभी फुहारों सी आँखों से चेहरे को भिगोती हुई ,
तो कभी तन के साथ पूरे मन को
पहली बारिश में भीगी मिट्टी की सौंधी
खुशबू मेरे अंतर्मन
को महका देती है
तब न जाने
कितने चेहरे
कुछ साँवले ,सलोने से बिजली के समान
कौंध कर निकल आते हैं
ले जाते हैं फिर उन्हीं लम्हों में
जो गुजर गए मेरी
यादों में
आज भी जिंदा हैं
भर जाती हूँ
जीवन में आनंद- उत्साह से
जीने के लिए उन्हें अपने मे समेटने को ।।।।
स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर
11/12/2019
विषय-छाँव/छाया

विधा-मुक्तछंद
~~~~~~~~~~

जी हाँ,आदमी मैं आम हूँ

आसमान रूपी छत
की छांव में सो जाता हूँ
ज़मी को बिछौना
बना लेता हूँ
निज संतान को पढ़ा कर
बड़ा आदमी बनाना चाहता हूँ
नहीं खेलता मैं कोई दांव हूँ
आदमी मैं आम हूँ...

सबसे पहले बच्चो को
एक अच्छा इंसान
बनाना चाहता हूँ
कभी कड़ी धूप तो
तो कभी ठंडी छांव में
रहना सिखाना चाहता हूँ
यदि एक वक्त का
भोजन मुझे न मिला तो क्या
आत्मसंतोष का पानी पीकर
भी गुजारा करना सिखलाना चाहता हूँ...

बच्चों की परवरिश
करना धर्म है मेरा
उनको शिक्षा दिलाना
कर्तव्य है मेरा
अपने लिए भी सुनहरे सपने
देखता जरूर हूँ
पर हकीकत के धरातल पर
टिके रहता जरूर हूँ
भले ही मैं एक मजदूर हूँ
पर सुकून भरी साँझ हूँ

मिल जुल कर रहता हूँ
माता पिता के आशीष की
छांव में पलता हूँ
अमीरों की तरह
आश्रम में उन्हें नहीं छोड़ता
हमारे घर में कोई
बेसहारा नहीं होता
मैं तो निशि दिन सदियों से
सबके हित काम किये जाता हूँ
सम्पूर्ण देश का मैं गांव हूँ
सच मानो मैं पीपल की छांव हूँ।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित

11-12-19.
विषय - छाया /छाँव

विधा - छंदमुक्त

छाया के होते स्वरूप अनेक,
कभी परछाई रूप में छाया l
सघन पेड़ों की घनी छाँव सी,
मात पिता का स्नेहिल साया l

सुख में दुख में हँसी गम में,
साथ रहती छाया परछाई l
दुनिया साथ छोड़ भी दे तो,
नहीं होती ये कभी हरजाई l

हमसफर बनो सदा खुद के,
छाया मेरी मुझसे है कहती l
कैसा भी हो मंज़र जीवन में,
ख़ुशी गम मुझसा यह सहती l

छाया कभी छोटी हो जाती,
कभी हमसे भी बड़ी हो जाती l
अँधियारा गर जीवन में आए,
छाया भी है साथ छोड़ जाती l

मात पिता की छाया जीवन में ,
आशीर्वाद है ईश का रूप l
जीवन चले आशीष से इनके,
धरती से नभ तक हैं ये अनूप l

यादों के साये हर मोड़ पर ही,
अतीत की बरबस याद दिलाते l
नील नभ की छाँव तले हम,
जीवन की बगिया हैं खिलाते l

हरित विटप की छाँव तले तो,
पथिक हैं नवजीवन पाते l
भीषण निदाघ में शीतलता से,
पथ की श्रांत क्लांति मिटाते l

मेरा साया मुझसे पूछता अक्सर,
कौन है अपना कौन पराया l
साथ निभाए प्रतिकूल समय में,
उसको ही मैंने अपना बताया l

स्वरचित मौलिक

कुसुम लता पुन्डोरा
नई दिल्ली
दिनांक : 11.12.2019
वार : बुधवार

प्रदत्त विषय : छाया / छाँव
विधा : काव्य / गीत

गीत

" कल की चिंता कौन करे " !!

आज तुम्हारे नाम है अपना ,
कल की चिंता कौन करे !
समय यहाँ अठखेली करता ,
अपने सारे सपन झरे !!

हाड़तोड़ मेहनत करते तब ,
अपनी यहाँ गुजर होती !
नीली छतरी का सरमाया ,
अपनी जहाँ बसर होती !
काम खरा हो तब जाकर जग ,
यहाँ हथेली नगद धरे !!

दामन से तुमको बांधा है ,
पवन झकोरे करे हवा !
आतप के सम्मुख , मैं ठहरी ,
पलपल जैसे हुए जवां !
उम्मीदें रोशन लगती हैं ,
भाग बदा भी यहाँ टरे !!

धूप घनेरी , छाँव कहाँ है ,
अपने हिस्से तपन यहाँ !
कौन परायी पीर में उलझे ,
सब करते हैं ठगन यहाँ !
मीठे बोल को हम तरसे हैं ,
सब बोले हैं खरे खरे !!

बंजारिन आशाएं देखो ,
रंग नया भर जाती हैं !
उम्मीदों की डोर कसी तो ,
खुशियाँ झूमी जाती है !
है भविष्य भी बंधा बंधा सा ,
हम भी हैं कुछ डरे डरे !!

स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )
छाया/छांव
नमन मंच भावों के मोती। गुरूजनों, मित्रों।


पेड़ों को लगाओगे।
तो देंगे तुम्हें छांव।
प्रकृति का संतुलन बनाकर रखेगा।
और सबको धूप से मिलेगा भी आराम।

वारिश की नहीं होगी कमी कभी।
उपजेगा खूब अनाज।
कृषक रहेंगे प्रसन्नचित्त।
और सुखी रहेगा समाज।

मां बाप होते हैं छांव बच्चों की।
बच्चे रहते साथ सुरक्षित उनके।
जिनके मां बाप नहीं हैं।
वो समझते अनाथ अपने को।

वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित

विषय : छाया/छाँव
विधा: दोहा

दिनांक 11/12/2019
तरूवर से मिलते सदा,फल फूल और छाँव।
पंछी नित कलरव करें , वायस करता काँव।।

शीतल जल है अमिय सम,तरूवर की हो छाँव।
जल बिन जीवन है नहीं,धूप जलाए पाँव

रवि देखो विकराल है,वसुधा तपती ताप।
सूर्य देव छाया करो,मेहर रखियो आप।।

अम्बर के सरताज हो,करो धरा का ध्यान ।
हाथ जोड़ विनती करूँ,छाया कर दो दान।।

रिखब चन्द राँका 'कल्पेश'
स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित
जयपुर राजस्थान

दिनांक - 11/12/2019
विषय - छाँव

छाँव

नहीं सुहाती घनी धूप अब,
प्रिये, मधुरिम सी छाँव दे दो।
मुझको अपने वृंदावन सा,
एक छोटा सा गांव दे दो।

जहाँ बजाना तुम बाँसुरी,
संग बजेगी मेरी पायल।
मैं छुप जाऊँगी वंशी में,
चित्त मेरा हर पल हो घायल।

स्वास- स्वास करके अर्पण मैं,
तन-मन वारी जाऊँगी।
तप कर तेरी प्रीत में प्रियतम,
मैं कुंदन बन जाऊँगी।

रहे महकती श्वास तुम्हीं से,
इनमें अपनी खुशबू भर दो।
जहाँ बहे मलयानिल हरदम,
मुझको वह मधुबन दे दो।

चैन कहाँ इन नैनो को अब,
खोज रहे हर पल तुझको।
छुपे कहाँ किस कुंज गली में,
अब तो दरस दिखा मुझको।

स्व रचित
डॉ उषा किरण

विषय - छाया / छांव
11,12,2019.

बुधवार.

छाया अपनेपन की सदा, रहे बुजुर्गों के पांव।

परिवार रहे वटवृक्ष सम,मिलती ममता की छांव।

तेज धूप में तप रहे , नहीं छांव का नाम ।

दुश्मन वृक्षों के हुए , हरियाली हुई तमाम।

छाया देना वृक्ष का , होता है जेसे काम।

संरक्षण हम उनका करे,लें अपना कर्तव्य जान।

जब पैरों तले जमीन हो , सिर पर हो आकाश ।

जीवन तब ही चल सके , सृष्टि हो का विकास ।

छाया ये अनमोल है, मोल जरा पहचान।

छाया बनकर रह जरा, होगा सुख का भान ।

स्वरचित, मधु शुक्ला.
सतना , मध्यप्रदेश .
Damyanti Damyanti

विषय_छाया/छाँव
परिवार मे रहते मात पिता
गुरुजन की विश्वनीय छाया तले |

पाता शिशु किशौर वृद्ध छाया का सुद्दढ़ आश्रय |
कभीकभी आसमान मे तपती लाय मे
एक मेघ का साया भी देता क्षणिक छाया
भर जाता मानव मन इसको भी मिलती छाया |
जंगल कटे पेड कटे वीरन हुई
पगडंडी सड़कों के किनारे
छाया गई ,गया सौदर्य निर्जन सी हुई |
मानव जब चलता थककर सो जाता था छाया मे सकुन मिलता |
अब न पेड न पौसला मिले कही |
आज खुद के साया के भी मोहताज हे मानव |
बस मजूबर मानव को ही नसीब होती
घोर निशा मे आसमान क छाया
सोलेता गर्मी ,सर्दी मे जैसे तैसे |
समय की सोच बुझ मे खौये सब छाया स्थल |
पर कहते हे विकसित हो रहा देश मानव |
स्वरचित_दमयंती मिश्रा

शीर्षक छाया/छाव

देखो वो सामने
विशाल बरगद का पेड़
जिसकी टहनियों
को लताये छूती थी
सैकड़ो पंछी
चहचहाते थे उसपर
गीत गाते थे
घोसले थे उनके
राही आंनद
लेते थे छ।व का
पत्ते सङ्गीत के
साथ हवा देते थे
जानते हो
अब वो बूढा हो गया
उसकी टहनियां
कमजोर हो गई
जटा ये सूख गई
पंछी भी नही आते
वक्त की बात
अब कोई नही जाता
उसके पास
वो अब बूढा
औऱ लाचार जो है
कभी जो था
सबका प्यारा
अब ठूठ बन गया
सच मे वक्त एक सा नही
रहता
जीवन काल
की तरह परिवर्तित
होता रहता है
चक्र की तरह

स्वरचित मीना तिवारी
विधा -दोहा
विषय-छाया/छाँव


सदा तुम्हारे प्यार की, मिले हमें सुख छाँव।
जहाँ बसे मेरा सजन, वहीं हमारा ठाँव।।

गर्मी में तपती धरा , कहीं नहीं
आराम ।
तरुवर की छाया भली,तनिक करो विश्राम।।

आ जाता है याद अब,अपना प्यारा गाँव।
भूल न पाते हम कभी, वो पीपल की छाँव।।

बनी रहे छाया घनी, मात-पिता भगवान।
सेवा उनकी जो करे, वही बड़ा धनवान।।

माँ तेरा आँचल नहीं , और न ठंडी छाँव ।
जीवन सहरा- सा हुआ , थके हमारे पाँव।।

सरिता गर्ग
विषय ::- "छाया /छाँव"
दिनांक ::- 11/12/2019.

विधा :- "गीत"

विषमताओं की लकीरें, घेर मेरा मग खड़ी हैं।
राह कैसे देख पाऊँ, तिमिर की रेखा बड़ी है।
वो समय बीता कभी का, छाँह तेरे नेह की थी।...

मेघ भी देता सुकूँ कब, गर्दिशों का रेत फैला।
पाक जो दामन हमारा, वक्त कर पाया न मैला।
सताती मुझको रही जो, मुश्क तेरी देह की थी।...
वो समय बीता कभी का, छाँह तेरे नेह की थी।....

पेड़ जंगल सब कटे जो,साक्ष्य थे दीवानगी के।
पश, पक्षी, गिरि, गह्वर,आराध्य थे रवानगी के।
मरुफैला हरतरफ इकआश रिमझिममेह की थी।..
वोसमय बीता कभी का,छाँह तेरे नेह की थी।......

काल का ये फेर सारा, काल की सारी ख़ुदाई।
मिलन होकरभी लिखी थी,भाग्यमें उनसे ज़ुदाई।
बचा ना सब कुछ लुटाया,फुहारें स्नेह की थी!......
वो समय बीता कभीका,छाँह तेरे नेह की थी।......
*******************0****************
दिनांक:- 11/12/2019
विषय:-छाया/छाँव

विधा :-हाईकू
तरूवर की
छाँव शीतलता दे
आनन्द भरे ।
2)
मन प्रसन्न
शीतलता पाकर
छाँव वृक्ष की ।
(3)
नीलाभ नभ
तारों की छाँव तले
रात घनेरी ।
उषासक्सेना:-स्वरचित

11/12/19
विषय-छाया


सुबह उड़ता आसमां में शाम ज़मी पर होता है
मन पंछी तेरी माया अद्भुत जाने क्या तूं बोता है

कितनी भी हो धूप प्रचंड पंख ही तेरी "छाया" है
जो तूने है मन मे ठाना सब साबित कर पाया है

उड़ने का उन्माद ऊँचाईयों तक ले जाता है
धरा से आसमान तक पंखों में भर लाता है

तो घायल होकर कभी तूं नीड़ में लौट आता है
फिर अगली उड़ान को तूं तैयार हो जाता है

कितने सुख और दुख कितने बांहों में भरता है
तेरे अंदर कर्ता के गुण तूं खुद भाग्य विधाता है।

स्वरचित
कुसुम कोठारी।
विषय- छांव /छाया
विधा-मुक्त

दिनांक -11 / 12 / 19

अट्टालिकाओं की परछाईयों में
कुम्हला गये पारिवारिक विटप
छायाएं बरगद की सी थीं
टूट गईं सब शाखाएँ

पाश्चात्य की चकाचौंध में
टूट रहे परिवार हैं
अर्थ के अंधेरों में भटक रहा
इंसान है

बच्चों के सर से हट गई छाया
दादी नानी की कहानियों की
दादा बाबा के संस्कारों से
मरहूम हो बच्चे हुए अनाथ

भावनाएं शून्य हुईं, रिश्ते चढ़े
फांस
हवस के पुतले बने मर्यादा
के राम

द्रोपदी का तो चीर हरण
हुआ था बस इक बार
अब तो हर गली कूँचें में
होता सीता का बलात्कार

(शेषांश)

डा.नीलम
शीर्षक - छाया /छांव
दिनांक 11/12/2019
विधा- छन्दमुक्त

तेरी तत्प देह मेंं
शीतल कोमल श्वास भर दूँ
निर्बल निर्जीव अवयव मेंं
दुर्लभ जीवन की आस भर दूँ
आँचल , मेरी परछाई का
सदा तेरे अस्तित्व पर हो
छांव हूँ विशाल द्रुम की ,
तेरी क्रूर भावनाओं को मृदुल मृदा कर दूँ ।

विनाशी मन तेरा विध्वंस रचाया है
मेरे अश्रु से सारा नभ बहाया है
पर तेरी आँखों मेंं तेरा बचपन भर दूँ
वो झूले का आनंद , मंद वसंत भर दूँ
स्मरण हो तुझे तरुण अतीत तेरा
छांव हूँ विशाल द्रुम की
तेरी क्रूर भावनाओं को मृदुल मृदा कर दूँ ।

तू स्वीकार न करेगा कभी
न नत तेरा मस्तक होगा
जो क्षय किया है इस हरित वृत्त का
जन्म हुआ है सृष्टि के अंतराल मेंं
एक अनिर्दिष्ट सब्ज क्रांति का ।
काल के नियमों मेंं प्रलय का प्रलाप
तेरी स्व मेंं अपना प्राण भर दूँ
छांव हूँ विशाल द्रुम की ,
तेरी क्रूर भावनाओं को मृदुल मृदा कर दूँ ।

.......अनिमा दास ....
कटक , ओडिशा ......

दिनांक-11/12/2019
विधा-हाइकु (5/7/5)
िषय :-"छाया/छाँव"

(1)
जैसे मौसम
धूप तो कभी छाँव
यही जीवन
(2)
कैसे भुलाएँ
नीम की ठंडी छाँव
गाँव बुलाएँ
(3)
चैन की साँस
माँ बाप वट वृक्ष
आशीष छाँव
(4)
प्रेमाकर्षण
पलकों की छाँव में
बैठता मन
(5)
पिता भी साया
माँ बनके चलती
बच्चों की छाया

स्वरचित
ऋतुराज दवे

सूखी धरा पर वो नन्हीं कली खिली
प्रकृति का पाकर स्पर्श
इस चाह में खिली

खिलकर फूल बनी .

हर पल आशा से खिली
एक दिवस बनूंगी तरु
किसी को दूंगी छाँव
इस चाह पर धरा पर रखे हैं मैंने पाँव .

किसी का बनूंगी किनारा
किसी को मिलेगा मेरा सहारा
गुणगान करेगा मेरा जग सारा
मेरी छांव के नीचे होगा गाँव सारा .
स्वरचित :- रीता बिष्ट
छाया / छाँव

गांव का वृक्ष
देता छाया
मुसाफिरों को
फैलता गया शहर
सिमटता गया गाँव
बनने लगीं बल्डिगें बड़ी
कटने लगे वृक्ष बेरहमी से
छाँव को तरसने लगा
इन्सान
ढूंढ़ते थे छाया
पेडों के नीचे
अब ढूंढ़ते हैं
बिल्डिंग्स के कौनों में

मिलता है
प्यार और मोहब्बत
माता पिता से
कब हो जाते हैं
इतने निर्दयी
भूल जाते हैं
माता पिता की छाया
बेसहारा , अकेला
छोड़ जाते हैं बच्चे

अपनी छाया पर भी
मत करो विश्वास
कौन कहाँ देगा धोखा
भरोसा नहीँ

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

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