Sunday, December 1

"आक्रोश",30नवम्बर 2019

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ब्लॉग संख्या :-581
" भावों के मोती "
विषय - आक्रोश
विध
ा - कविता
हैदराबाद घटना पर आक्रोश की मेरी कुछ पंक्तियाँ , डॉक्टर प्रियंका रेड्डी जी को समर्पित 🙏🙏

" नारी का अस्तित्व "

क्या अस्तित्व है मेरा और कैसी मेरी कहानी है ,
नारी होना अभिशाप हुआ अभिशिप्त हुई जवानी है ।

हाड़ माँस बस मान लिया है वासना की ये कैसी रवानी है ,
क्या इंसानी भेड़ियों की शक्लें तुमनें पहचानी है ।

माना आज मेरे लिए हर एक आँख में आया पानी है ,
लेकिन क्या न्याय दिलाने की तुमने मन में ठानी है ।

आज प्रतिमा मंदिर की भी मुझे देखकर रोई है ,
नाम बदलते रहे हैं केवल अस्मत तो देवी ने खोई है ।

सतयुग हो त्रेता या द्वापर नारी ही तो भोगती आई है ,
कलियुग में भ्रूण हत्या के रूप में मृत्यु ही पाई है ।

जन्म यदि ले लेती है तो भी कहाँ सुरक्षित इनका तन मन है ,
नोंच नोंच कर जला दिया जाना क्या यही नारी का जीवन है ।।

©®✍️ आरती अक्षय गोस्वामी
देवास मध्यप्रदेश
सर्वाधिकार सुरक्षित

30नवम्बर19शनिवार
विषय-आक्रोश

विधा-कविता
💐💐💐💐💐💐
नपुंसक व्यवस्था के खिलाफ
तुम्हारे जिस्म में
उबलता है
मर्दाना आक्रोश
110डिग्री पर
बावजूद...
घोर आश्चर्य होता है
तुमको देखकर
चुप की साजिश का
मूक समर्थन करते हुए
कैसे अभागे हो तुम ?
कि तुम्हारी जुबान में
शब्दों के जखीरा तो हैं
जिसे चबाते ही रहते हो
च्युंगम की तरह
न निगलते हो
न उगलते हो कभी
बोलो,आखिर तुम
क्या चाहते हो...?
आधुनिक शिखण्डी...
बोलो...बोलो...
💐💐💐💐💐💐
श्रीराम साहू अकेला

विषय आक्रोश
विधा काव्य

30 नवम्बर 2019,शनिवार

पूत कपूत जब बन जाता है
मन में बड़ा आक्रोश आता ।
जिसमें खाया वंही छेद करे
ऐस नर जग कंही न भाता।

यह जीवन है स्नेह बसेरा
स्वार्थ दाव तो यँहा न खेलो।
चार दिनों की प्रिय जिंदगी
प्रिय आक्रोश यँहा न झेलो?

जब कोई दिल ठेस लगावे
अपना जब पराया बनता।
द्वेष ईर्ष्या स्व स्वार्थ रत
उस नर पर आक्रोश आता।

जीवन ये सुंदर उपवन है
पेड़ लगाओ फूल खिलाओ।
क्यों आक्रोशित तुम होते हो
हँसो हँसाओ खुशियाँ पाओ।

स्वरचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
Damyanti Damyanti 
विषय_ आक्रोश |
आज सर्व व्याप्त भाव जन जन में आक्रोश के |
नेताओ की करतूतो से,निज संतानोसे |

कभी प्राकृतिक आपदाओ से कैसे जीऐ |
मत मांगते कर बद्ध हो मिली सत्ता |
हो गये ऐसे जैसे जनता से वादे किऐ नही |
इनकी करनी कथनी अंतर देखो |
जमीन आसमान जितना |
जनता हित धन नही घर भरे इनके |
शिक्षित कर निज संतानो को ,
खोया खेत धन अपना |
अब ये जानते नही मात पिता को |
छोड आते वृद्धा आश्रम मे |
कैसा ये कलयुग भाई ,हवाऐ विषेलीहुई |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा |

दिनांक-30/11/2019
विषय-आक्रोश


संरक्षण क्या दिए उन पाल्यो को
उनका जीवन ही भक्षण बना डाला
वहां जिंदा रही मासूम सांसो को
कंकालों का मुर्दा लाश बना डाला

सजा अब देखिए
न्यायालय की
क्या तय करेगा कानून.........?????
जिन्होंने बालिका गृह को
तवायफ का घर बना डाला
स्नेह का चादर ओढ़े हैं
कलयुग की निर्ममता
ये जिस्म के सौदागर है
नंगे तन के जादूगर हैं
यौवन मद मत्सर में कांटे हैं
नश्वर देह मिलाते माटी में है
कोमलता को कुचल देते हैं
नयन अश्रुजल की घाटी में
करते हैं ये कुमकुम की कोमलता को तार-तार
फिर करेंगे अश्वमेध यज्ञ बार- बार..... बार -बार

स्वरचित.....
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज
दिनांक - 30/11/2019
दिन - शनिवार

विषय - आक्रोश

बस इंसाफ दिला दे

कुछ न मांगू तुझसे भगवन,
बस इंसाफ दिला दे ।
जिसने कुचला नन्हीं कली को,
उसको फांसी पर लटका दे ।
फिर कोई हैवान बने न धरती पे,
हर पुरूष को इंसान बना दे ।
कल जो गुजरा फिर न गुजरे,
प्रभु इतना विश्वास दिला दे ।
कोई कली मुरझा न पाये,
महकता उसको फूल बना दे ।
किसी की आस अब टूट न पाये,
सबको बस इंसाफ दिला दे।
बन चुका हैवान जो मानव ,
उसको आज इंसान बना दे ।
छिपे हैं जो मुखौटे लगाकर ,
चहुँ ओर हवस के प्यासे,
उनका असली चेहरा आज,
बस समाज को दिखा दे ।
देखे जो कोई गंदी नजर से ,
आँखों में उसके सूई चुभा दे,
बस इतना ही माँगू तुझसे,
हे भगवान ! इंसाफ दिला दे।

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दीपमाला पाण्डेय
रायपुर छग
स्वरचित

शीर्षक-- जनाक्रोश

जनाक्रोश जब बढ़ता है
प्रशासन बौना पड़ता है ।।

अँग्रेजों सी हुकूमत को
पैर हटाना पड़ता है ।।

जनाक्रोश की ज्वाला से
सम्पूर्ण राष्ट्र जलता है ।।

सुनी क्रांति रूसी सबने
इतिहास गवाह भरता है ।।

जलियाँवाला कांड का
दोषी घर में न बचता है ।।

ऊधम सिंह सा कोई वीर
घर में जा सर पकड़ता है ।।

आक्रोश का शोला 'शिवम'
बरसों बरस धधकता है ।।

हरि शंकर चाैरसिया''शिवम्"
स्वरचित 30/11/2019

विषय-*आक्रोश *
विधा_॒॒॒ छंदमुक्त काव्य

स्वमेव उपजता है आक्रोश।
क्योंकि परेशान होते निर्दोष।
लावा जब कभी पिघलता है
तब प्रस्तावित होता उर घोष।

जनाक्रोश होता आंदोलित।
हर मन होता इससे उद्वेलित।
जीवन में उन्नति काअवरोधक
स्वविवेक मरे होता उत्तेजित।

आगजनी तोडफोड होती हैं।
इसे अगली पीढियां ढोती हैं।
आक्रोश अवनति का द्योतक
कई अंदरूनी पीढियां रोती हैं।

आक्रोश भरे अंतर में आरक्षण।
नेताहित और मात्र मत संरक्षण।
दमन हो रहा योग्यता का इससे
आक्रोशित समाज के हैं लक्षण।

नित लाज बेटियों की लुटती है।
कुछ ये दहेज वेदी पर चढती हैं।
क्यों जिंदा जलाऐं प्रतिदिन इनको
तब आक्रोशित जनता दिखती है।

स्वरचितःः
इंजीशंम्भूसिंह रघुवंशीअजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश

दिनांक 30-11-19
विषय -आक्रोश

विधा -छंदमुक्त

आक्रोश से भर जाता मन जब,
दरिंदे नारी की अस्मत लूटते l
निरपराध कोमल अँखियों के,
अनगिनत स्वर्णिम स्वप्न हैं टूटते l

ये नारी भक्षी भेड़िए राह में,
खुले आम सब घूम रहे l
हत्या बलात्कार के हौसले भी,
निर्भय गगन को हैं चूम रहे l

इंसानियत के दुश्मन वहशी,
बलात्कार हत्या हैं करते
यह कैसी मर्दानगी इनकी,
अंजाम से न कभी ये डरते l

क्रूर हाथों से नहीं बच पाती
है जो कोमल,मासूम, नादान
ओ हत्यारों बेच दिया क्या
तुमने इंसानियत का ईमान?

कदम -कदम पर जीवन के हैं,
इंसानों की खाल में शैतान l
नोच रहे हैं कलियों को
बन खूंखार दरिंदे और हैवान l

आक्रोश से भर जाता है मन,
जब नियम कानून तोड़े जाते l
अंजाम देते हैं वारदात को जो,
वो दरिंदे फिर भी छोड़े जाते l

नहीं बचाने आता कोई भी,
देख तमाशा इन्हें शर्म न आती l
जाने कितनी प्रियंका बेटियाँ,
मौत की बलिवेदी चढ़ जाती l

कानून में अब संशोधन हो,
अपराधी को त्वरित दंड मिले l
सार्वजनिक हो सज़ा ऐसी
उसके भी अनगिनत खंड मिलें l

कुसुम लता पुन्डोरा
आर के पुरम
नई दिल्ली

30/11/2019
विषय-आक्रोश

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हैदराबाद की दुखद घटना पर बढ़ता आक्रोश:-

माता पिता की लाडली थी
भाई बहन की दुलारी थी
निज पांवों पे खड़ी थी वो
पर किस्मत की मारी थी

आह!कितनी दुखद घटना
घटी है!
क्षत विक्षत वो ज़मीं पर पड़ी है
धरती की छाती फटी है
सीनों में आग की
ज्वाला धधक रही है
हर आँख निःशब्द सिसक रही है..!

आक्रोशित हुआ खून है
लहू से सने उपवन के प्रसून हैं
हर दिल में उठा बवंडर है
बड़ा ही दर्दनाक मंज़र है..!

अब तो कोई ठोस उपाय
होना चाहिए
इन दुष्कर्मियों को
फांसी की सजा मिलनी चाहिए
कानून के झमेले नहीं चाहिए
त्वरित कार्यवाही चाहिए
जान के बदले जान
बस,, इससे कम कुछ न चाहिए..!!

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित

Pramod Golhani 🙏🌹
दि. - 30.11.19
िषय - आक्रोश
मेरी प्रस्तुति सादर निवेदित.....
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जल रही हैं बेटियाँ, ये अत्याचार रोकिये |
मच रहा हर ओर जो ये,चीत्कार रोकिये ||

रोकिये समाज से,लुप्त होती मनुजता को |
फैल रही तीव्रता से ,रोकिये दनुजता को ||
आँख बंद करने से,समाधान न होगा |
बढ़ रही समस्या का,कुछ निदान ना होगा ||

हो रहे नित बेटियों पे,अनाचार रोकिये |
जल रहीं हैं बेटियाँ,ये अत्याचार रोकिये ||

नारी उत्पीड़न की, हर व्यथा कलंक है |
मानवीय सभ्यता पर,विषैला डंक है ||
शर्मसार देश व समाज को,ये कर रहा |
हावी होती पशुता का ही,बखान कर रहा ||

हो रहा यूँ मानवता का,शिकार रोकिये |
जल रही हैं बेटियाँ,ये अत्याचार रोकिये ||

कब बुझेगी आग ये,प्रश्न यह ज्वलंत है |
नारी उत्पीड़न का,क्यों भला न अंत है ||
सदियों से जलतीआई,आज भी है जल रही|
अपने सम्मान के लिए,तड़प मचल रही ||

अमानवीय कृत्यों की, ये बौछार रोकिये |
जल रही हैं बेटियाँ,ये अत्याचार रोकिये ||

दोष हमारा भी जो, कुछ न कर पाते हैं |
जल जातीं बेटियाँ, हम चुप ही रह जाते हैं ||
जब तक समाज स्वयं,आगे न आएगा |
सिलसिला ये सच मानो,थम भी न पाएगा ||

आने दीजिए, न खून का ज़्वार रोकिये |
जल रही हैं बेटियाँ,ये अत्याचार रोकिये ||

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स्वरचित
प्रमोद गोल्हानी सरस
कहानी सिवनी म.प्र.
30 /11/2019
बिषय ,,आक्रोश,,

देश की ब्यवस्था पर व्यथित है मन
कुचल दी गई कली जिससे खिलखिलाता था आंगन
दिल पर अंगारे धधक रहे हैं
ज्वाला बनने को दहक रहे हैं
किसी के सपनों को कैसे कुचल दिया
इन दरिंदों ने तो मेरा बिचार ही बदल दिया
आंसू सैलाब बन बाहर निकलने को है
मन का बिचार सारी व्यवस्था बदलने को है
आज मिल जाए सरेआम गोली मार दूं
कुत्तों को खाने के लिए सड़कों पर उतार दूं
इसका तो न्याय त्वरित होना चाहिए
फौरन फांसी न बिलम्ब होना चाहिए
कब तक लड़ेंगे कानूनी लड़ाई
मन का आक्रोश दे रहा है दुहाई
दुष्कर्मीयों को फांसी हो बीच चौराहों पर
बिलकुल भी न पसीजें इनके गुनाहों पर
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार
30-11-2019
आक्रोश


नूतन अरुण संग जगते है
नित मकरंद विविध चखते है
नव राग लिए पिकी की कूक
अधखिली कली क्यों रही हूक?
हुई कोकिल जब अंतर्धान
हुआ काग-राग का तब भान
कर्कश कराल कुटिल कटु थाप
खल की क्रिया हा! कपट कलाप
आनन अविचल समतल सपाट
तिर्यक तंज अति भरे ललाट
छल-बल उगट विकट अट्टहास
विवश विलय भरते उच्छवास
बह रहा रुधिर का तेज धार
धमनी में धधकता अंगार
विकृत वायु, अंतस बड़वानल
बिलखती वेगवती नदी विकल
रिक्त कोष-तोष बिन जोश है?
नहीं, विद्रूप कृत आक्रोश है
-©नवल किशोर सिंह
30-11-2019

दिनांक-३०/११/२०१९
शीर्षक_आक्रोश


आक्रोश भरा है मन के अंदर
सोच रहा बारम्बार
हर बार नारी को
क्यों सहना पड़ता घात,
धरती मौन चीत्कार रही
देख धरा पर अत्याचार
जार जार रो रहा हर दिल
हिंदुस्तान।
कृष्ण कन्हैया ले लो तुम
एक बार अवतार।
हर राक्षस संहार कर
कम कर दो धरा का भार।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

30/11/2019
"आक्रोश"

छंदमुक्त
################
बाहर की समस्याएँ घर ले आते हो,
सारा आक्रोश मुझपर निकालते हो,
पारिवारिक जिम्मेदारियाँ समझती मैं,
इसलिए चुपचाप सब झेल जाती मैं।

बच्चों के भविष्य की चिंता तुम्हें सताती रही,
आक्रोश के पीछे कारण को मैं समझती रही,
इसकी ही तो झल्लाहट मुझपर निकालते हो,
बाद मेंअफसोस भी आकर मुझसे जताते हो।

कब सोचा मेरी भी संवेदनाएँ आहत होती,
मैं भी तुम्हारी तरह हाड़-माँस की हूँ बनी,
इस बात को समझ कर भी न समझते हो,
नारी हूँ न......!!
इसलिए अपनी आक्रोश दबाए रख लेती हूँ।

पेड़ के पास जाके गुबार निकाल आती हूँ,
तरकीब यही कभी-कभी अपनाती हूँ,
बेचारा पेड़ आक्रोश मेरा समझता है,
कभी किसी से कुछ न वो कहता है।।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

तिथि 30/11/19
विषय आक्रोश


कागज पर उतरता आक्रोश

भावों की कचहरी में
शब्दों के गवाह बना
कलम से सिद्ध करते दोष
और फिर हो जाते खामोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

मोमबत्तियां जल जाती हर बार
जुलूस भी निकाल लिये जाते
पर वासना से उत्पन्न
गंदी नाली के कीड़ों में
अब कहाँ बचा है होश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

बालिका संरक्षण गृह में
ही फल फूल रहे
सभी तरह के धंधे
मासूम कहाँ है सुरक्षित
मजबूरी में करती जिस्मफरोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

प्याज निकाल रहा आँसू
गोड़से पर चल रही बहस
गड़े मुर्दे उखाड़ कर
होती राजनीति
बिकने के लिये तैयार बैठे
ये सफेदपोश
कागज पर उतरता आक्रोश ।

सनद रहे
हम भारत की संतान हैं
ये जन जन का आक्रोश
सदैव क्षणिक न रह पायेगा
उठ खड़ा होगा
अपने अधिकार के लिए
करना होगा इनको खामोश,
कागज पर उतरता आक्रोश ।

स्वरचित
अनिता सुधीर

दिनांक : 30.11.2019
वार : शनिवार

आज का विषय : आक्रोश
विधा : गीत

गीत

पीड़ा से अनबन हो जाये ,
आँखों से मोती ढलते हैं !

आशाओं के दर्पण चटके ,
छन से तो आवाज हुई ना !
यायावर सा जीवन भटके ,
कभी कोइ मनुहार छुई ना !
जहाँ उठे हैं तेज बवंडर ,
आक्रोश वहाँ पलते हैं !!

बंशी की मीठी तानों ने ,
झकझोरा है मन को जब तब !
अनजानी सी हूक उठी है ,
मिल पाया अपना कोई तब !
टूटे डोर मिलन की कोई ,
आँखों के आसूँ खलते हैं !!

कभी कभी सिलते हैं रिश्ते ,
टूट गये तो रास न आये !
रेशम रेशम सी फिसलन है ,
ढूंढ़ें अपने और पराये !
जब जब खूब सहेजी यादें ,
आँखों में सपने पलते हैं !!

स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )

घृणित अपराध देखकर
हिय आक्रोश पैदा होता।
बचपन लुटता है कन्या का
फूट फूट कर तनमन रोता।

अपहरण करते बच्चों का
कुकर्म करवाते हैं उनसे।
आक्रोश आता है हिय में
आग लगे तब रग रग में।

दयाहीन आतंकवादी मिल
सीमा पर नित मारे गोली।
लहूलुहान शव देख देख कर
आक्रोशित हो निकले बोली।

घृणा सदा घृणा फैलाती
दया सदा अनुराग बरसाती।
कुकर्मी नित अपराध बढ़ाते
स्नेह भाव आक्रोश मिटाती।

स्वरचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

दिनांकः-30-11-2019
विषयः- आक्रोष

शीर्षकः- बदला खुद है लेना पड़ता
मारी जा रही हैं सरहद पर हमारी ढ़ेरों औलाद ।
कर देंगे हम भी उनको बिल्कुल ही नेस्तनाबूद ।।
करेंगे प्रथम उनको, कूटनीतिक रूप से बदनाम ।
हो अलग थलग, हो जाएगा मनसूबों में नाकाम।।
करेंगे उसके पश्चात फिर उस पे हम कड़ा प्रहार।
कुर्बानी हमारे जवानों की भी जाएगी नहीं बेकार।।
कर रहे उच्चस्तरीय मीटिंग बना रहे हम प्लान ।
बजा देंगे उसके बाद शत्रु की खोपड़ियाँ दनादन ।।
कमजोर सरकारें ही बनाती हैं सदा ऐसी ही बात ।
कुछ समय बाद दें देंगे पाकिस्तान को सौगात।।
सुनते सुनते इतने दिन से पक गये हमारे कान ।
मारे जाते रहे हैं सरहद पर किसान और जवान ।।
मारी गईं सरहद पर आज भी, वतन की औलाद ।
आया नहीं उबाल रक्त में हो गया है रंग सफेद ।।
लेंगे बदला बाद में, करले पहले उससे हम बात ।
करते हो क्यों कोई बात, तोड़ो शीघ्र शत्रु के दांत ।।
लेते नहीं बदला कभी ऐसे लोग बनाते सिर्फ बात ।
करो नहीं आशा कभी दुष्ट से करेगा वह शराफत ।
सिखाओ कड़ा पाठ, करे न जिससे कोई हिमाकत ।।
सिखाया नहीं पाठ, होगा नहीं कम उसका जनून ।
बहाता रहेगा इसी प्रकार हमारे जवानों का खून ।।
बिना मरे स्वयं अपने,स्वर्ग नहीं है कभी मिलता ।
कहता है व्यथित हृदय,बदला खुद है लेना पड़ता ।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
"व्यथित हृदय मुरादाबादी"
स्वरचित

भावों के मोती
विषय--आक्रोश

_____________
आक्रोश भरा जन-जन में
झुलसी फिर बेटी नगर में
सुनो देश के तुम युवाओं
चुल्लू भर पानी में मर जाओं
क्यों नियत इतनी सड़ी है
बेटी नहीं कोई लकड़ी है
जिंदा जिसे जला डाला
क्षण भर भी हृदय नहीं कांपा
घर में क्या औरत नहीं
या दिल में अब गैरत नहीं
थक गए अब कानून से
जो सने बेटियों के खून से
आरोपी फिर होंगे बरी
फिर जलेगी निर्भया किसी गली।
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित

"भावों के मोती"
30/11/2029

विषय -आक्रोश

मनन करो
मनन करो
न अपने
आक्रोश का
यूँ शमन करो
करो आक्रोश
तुम दुनिया
के सुधार में
करो आक्रोश
तुम देश के
उद्धार में
करो आक्रोश
तुम गन्दी
राजनीति के
विरोध में
करो आक्रोश
दहेज़ के खिलाफ
करो आक्रोश
बिगड़ती शिक्षा
नीति के खिलाफ
करो आक्रोश
आतंकवाद के
खिलाफ, करो
करो आक्रोश
न निकालो अपना
आक्रोश अबलाओं
पर ,न करो आक्रोश
नन्ही बालाओं पर
नहीं वे अब
किसी से कम
हर क्षेत्र में वे
अपना परचम
लहराती हैं
कभी जब
पड़े जरूरत
तो तुम्हारे
कदम से
कदम मिलाती
हैं,हो आवश्यक
तो वे रणचंडी
तो फिर कभी
काली मां बन
जाती हैं,
पांच तत्व से बना
तन हर तत्व
का अपना
महत्व है
उससे जुड़ा
हर भाव का
बाहर आना
वाज़िब है
वह कब कैसे
कहाँ जाहिर
हो यह भी
ज्ञान जरूरी
है ।।

स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर

3011/19
विषय आक्रोश


मन ब्याथित हुआ औऱ भर गया आक्रोश।
ये कैसी असहनीय घटनाओं का मचा शोर।
आज फिर एक बेटी शर्म सार हो गई
बेटी होने की सजा फिर से पा गई ।

एक हबसी दरिंदे ने रौद डाला अस्तित्व।
बेटी जैसी बेटी का छीन लिया बचपन।

उसकी चीखो औऱ चिल्लाहटौ का कोई न असर।
कोई दादा कोई चाचा ढेरो रिस्तो के बेशरम।
आती नही है लाज मानवता के संस्कारों की।
भूल गया सब कुछ पाठ पढ़ लिया ब्यभिचरी की।
मनुष्यमें में हो गया क्रुर बिचारो का संचार।
तभी तो हर बेटी से करते हवस का वयवहार।
रोज सुबह जब भी पढ़ती हु अखबार।
सोचती हूं कितना फल फूल रहा है ब्यापार।
शामिल है ना जाने कितने नेता और ठेकेदार
और कितनी बेसहारा और न मर्द सी सरकार।
चालानों के डर से जब हेलमेट पहनते है लोग
लटका दो कुछ एक तो समा जाए खौफ।
शायद फिर आ जाये समाज मे कुछ सुधार।
मासूम चंचल बेटियो का हो जाये उद्धार।

स्वरचित
मीना तिवारी

दिनांक-30/11/2019
विषय-आक्रोश


आक्रोश भरा है कितना
माप- तोल ना कीजिए
शब्द -शब्द आंदोलित मेरा
लेखनी को लिखने दीजिए ।

इनसानियत की एक पैमाइश
सरेआम आज होने दीजिए
इस मुखौटे में छिपी है जो
हैवानियत वह लिखने दीजिए ।

इस आजा़दी के मायने आज
फिर से मुझे कहने दीजिए
नर-नारी में मात्र लैंगिक भेद
समानता को मरने दीजिए ।

कितनी महफ़ूज़ हैं ये बेटियाँ ?
प्रश्न मौन को मौन रहने दीजिए
उसकी अस्मत की अस्मिता को
अखबारों के पृष्ठों में खोजिए ..।

इन बेटियों की सुरक्षा कैसी
खुला विचार-विमर्श कीजिए
बलात्कारियों की सजा़ में
त्वरित संशोधन आज कीजिए ।

बेटी हूँ ,मैं भी तो किसी की
आक्रोश मेरा व्यक्त होने दीजिए
अग्नि की लपटों से झुलसी हुई
भावनाओं का धुआँ फैलने दीजिए ।

चंद शब्दों में सिसकती व्यथा
फ़लक ज़मीं तक जाने दीजिए
जिंदा जलाई गई जो एक बेटी
दर्द की अनुभूति लिखने दीजिए ।

इस आक्रोश को इस कदर
ठंडा बिल्कुल ना होने दीजिए
अब बेटियों को एकजुट होकर
अपनी लड़ाई खुद लड़ने दीजिए ।

तख्ती,बैनर,कैंडल मार्च के बहाने
झूठी सांत्वना देना बंद कीजिए
उन हत्यारे, बलात्कारियों को
सरेआम अब फाँसी दीजिए ।

संतोष कुमारी ‘संप्रीति ‘
स्वरचित

दिनांक 30/11/2019
विधा:ताका

विषय:आक्रोश

आरक्षण का
युवा मे आक्रोश
योग्यता रोईं
नेताओ की मलाई
पलायन प्रतिभा।

शोषण रोज़
स्त्री पढी य गवार
चादर मैली
वहशी व दरिंदा
आक्रोश कब तक

आक्रोश करू
रोज़ नये प्रयोग
बलात्कार के
कभी तन छलनी
कभी मन कुठित।

सासू के ताने
आक्रोश से भरी
बिखरा मन
आँसुओ की धार मे
पिता का आलिंगन ।

स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव

विषय-आक्रोश
विधा-मुक्तक

दिनांकः 30/11/2019
शनिवार
आज के विषय पर मेरी रचना प्रस्तुति:
जुल्म किसी पर हो रहा,वहां आक्रोश जरूरी है ।
सदा होश में रहें आक्रोश में,शाॅति न्याय जरूरी है ।।
जोश न आये जुल्म देखकर, नपुसंकता है मात्र वह।
तभी सार्थक जीना ये,इंसानियत सदा जरूरी है ।।

कभी स्वार्थ वश आक्रोश न हो,यह कदापि उचित नहीं।
आक्रोश सच के लिए हो,झूठे के लिए उचित नहीं ।।
कभी थन किसी का मत हडपो,यह भी उचित नहीं होता ।
नारी का सदा सम्मान करो,उसका अपमान उचित नहीं ।।

अन्याय कहीं पर हो रहा,तभी आक्रोश आता है ।
कहीं नारी अस्मत लुट रहे,तब आक्रोश आता है ।।
पुरजोर मिलकर विरोध करें,समाज हित सब न्याय मिले ।
निर्दयी अमानव पर,ये नहीं कोई असर कर पाता है ।।

मत ईर्ष्या द्वेष में तुम,अब आक्रोशित हो जाओ ।
अपमान किसी का हो रहा,वहां अपना फर्ज निभाओ।।
अह॔और लालच के लिए,आक्रोश करना भूल है।
सार्थक सदा आक्रोश हो,नेकी सदा करते जाओ ।।

चयन के लिए
स्वरचित एवं स्वप्रमाणित
डॉ एन एल शर्मा जयपुर' निर्भय,

बिषय- आक्रोश

है आक्रोश भरा
आज जन-जन के मन में।
मगर इलाज इसका
नहीं आ रहा किसी की समझ में।

ये कैसा पाप हो रहा
देश शर्मसार हो रहा
देख विकृति जनजीवन में।

दुष्कर्म होता नारी संग
देख रोता मेरा अंग अंग
आग सी लगी है मनभवन में।

कुछ ग़लत करने से पहले
घर में भी जरा झांक लेते
नहीं होता फर्क कभी मां-बहन में।

धिक्कार बार-बार है तुम्हें
‌डूब मरो चुल्लू भर पानी में
अफसोस रत्ती भर भी है गर मन में।

स्वरचित- निलम अग्रवाल, खड़कपुर

विषय - आक्रोश
30/11/19

शुक्रवार
कविता

अत्याचारों की जब अति हो जाती है ,
शोषण से आवाज़ दबा दी जाती है।

पीड़ा से आहत होकर निरीह जनता ,
खुद फैसला सुनाने आगे आती है।

जब उनका आक्रोश सामने आता है,
नींव पूँजीपतियों की ही हिल जाती है।

तहस-नहस होती हैं सभी व्यवस्थाएँ,
उच्च वर्ग की चाल डगमगा जाती है।

शोषित की हुंकार डराती है उसको,
छुपने की कोई युक्ति नहीं मिल पाती है।

धरती पर आ जाते हैं वे एक पल में,
शक्ति कोई भी उन्हें बचा न पाती है।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर

दिन :- शनिवार
दिनांक :- 30/11/2019

शीर्षक :- आक्रोश

मौन सरकारें हैं,मौन है अदालतें।
आक्रोश भरी जनता,कर रही मिन्नतें।
न्याय चढ़ रहा बलि,नोटों की वेदी पर।
जल रही नारियां,हवस की देहरी पर।
जनता के वोट तो सबको पाना है,
करके षड़यंत्र सरकार भी बनाना है।
जनसुरक्षा का अधिकार कौन देगा?
वहशी दरिंदगी का जवाब कौन देगा?
कौन करेगा न्याय बेटियों के लिए?
कब तक लुटी जाएगी इज्ज़त बेटियों की?
कब तक जलेगी जिंदा चिताएं?
बचाएगा कौन अस्मत बेटियों की?

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

विषय- आक्रोश
दिनांक 30- 11- 2019

क्रोश ने अपनों को,बेगाना बना दिया।
एक माँ के दो बेटों को,दुश्मन बना दिया।।

लोभ लालच दिलो-दिमाग,हावी हो गया।
प्यार से बनाया घर,बंटवारा कर दिया ।।

आक्रोश मन ऐसा छाया,दुश्मन बना दिया।
आँगन में दीवार का,देखो पर्दा बना दिया।।

माँ-बाप को इस उम्र में,अलग कर दिया ।
अपने ही घर में देखो,मेहमान बना दिया।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

विषय आक्रोश
विधा कविता

दिनाँक 30.11.2019
दिन शनिवार

आक्रोश
💘💘💘💘

आम आदमी लुट रहा
आम आदमी घुट रहा
विकास के धुँधलके में
बस छलावे का पुट रहा।

कुर्सी का खेल छा गया
रंग बेमेल भी भा गया
विश्वास की फसल को
सरेआम कोई खा गया।

ए टी एम जब टूटा घाटे में कोष हुआ
सफेद पोशों ने बैंक लूटा आक्रोश हुआ
बेटी का शील भंग हुआ सभ्यता रोई
सारी व्यवस्थाओं ने अपनी अपनी लाज खोई।

हर ओर प्रश्न ही प्रश्न सुलगते हैं
लोग एक दूसरे से उलझते हैं
बैचेनी के बादल जब उमड़ते हैं
तो आक्रोश ही आक्रोश उभरते हैं।

स्वरचित
सुमित्रा नन्दन पन्त
आक्रोश
छंदमुक्त कविता


मुझे आक्रोश है
दरिन्दों पर
कहाँ जाती है
उनकी इन्सानियत
नेक ईमान
जब एक मासूम
को अस्मिता को
छलनी छलनी
करते है वो

तारीख पर तारीख
वकीलों की फौज
कानूनी दांव पेंच
बेहूदा प्रश्न
डिस्ट्रिक्ट कोर्ट
हाईकोर्ट
सुप्रीम कोर्ट
दया की अपील
होते होते
नये दरिन्दे पैदा
हो जाते है
अरे कुछ
तो खौफ हो
दरिन्दों में

बयानबाज़ी
न्याय की बाते
बचाव की दलीलें
हौसले बढातीं है
दरिन्दों की

आक्रोश है
उन नालायक
औलादों पर
जो छोड़ देते हैं
बुढापे में
असहाय
माँ बाप को

आक्रोश है
समाज की
व्यवस्था पर
दहेज, भ्रष्टचार
अश्लीलता
रिश्वतखोरी
स्वार्थपरता
घटिया सोच पर
होगा जब हर
इन्सान आक्रोशित
तब सुधरेगा समाज
देश और व्यवस्था

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

दिनांक-30/11/2019
गीत...
िषय:-"आक्रोश"

देख तंत्र की लाचारी
गुबार निकल आता है
बन के ज्वाला सीने से
आक्रोश निकल आता है...

बेटी का मतलब समझ न पाए
बेटे से ही लाड़ लड़ाएं
कोख में मारे बेटी को और
बहु की फिर आस लगाएं
जब कचरे के ढ़ेर से फिर
भ्रूण निकल आता है
बन के ज्वाला सीने से
आक्रोश निकल आता है...

वो भी माँ है,बहिन किसी की
और गुड़िया माँ-पापा की
उसके सीने में भी दिल है
नहीं खिलौना बलात्कारियों की
एक नारी में हैवानों को
सिर्फ मांस नज़र आता है
बन के ज्वाला सीने से
आक्रोश निकल आता है...

आतंकी मासूम को मारे
और देशभक्त पत्थर को खाएँ
प्राण लुटाते सीमा पर जो
कट के धड़ जब घर को आएं
भुजाएं फिर फड़कती है
गौरव प्रताप याद आता है
बन के ज्वाला सीने से
आक्रोश निकल आता है...

नीति और नियम जलाये
भ्रष्टों ने है हाथ मिलाये
धर्मों को बदनाम किया और
भय और विद्वेष फैलाये
जब शैतानों के हाथों से
कानून बिखर जाता है
बन के ज्वाला सीने से
आक्रोश निकल आता है...
स्वरचित
ऋतुराज दवे

विषय : आक्रोश

. वेदना से चेतना

सुरक्षित नारी जाति नहीं , देश के किसी भी कोने में।
लूटे आबरू सरे आम चौराहे बचा ही क्या खोने में ।।
सब बने भेड़िए कामुक भूखे , शर्म नहीं है आँखों में ।
पता है उन्हें कुछ नहीं होगा,मिलती मौज सलाखों में।।
महाभारत कि आज द्रोपती, खड़ी है नंगी लाखों में ।
कायर हैं सब देखने वाले ,नहीं है कोई माँ का लाल ।
बनके कृष्ण,उठाके कपड़ा ढकदे सिर के बिखरे बाल।
तो कैसे भारत हो खुशहाल, कैसे भारत हो खुशहाल।।

ये वो हिंदुस्तान जहाँ पर ,जान शान पर वारी जाती ।
भ्रष्ट हो गई बुद्धि सबकी , कोख में बेटी मारी जाती ।।
पेट के अंदर और बाहर भी , निर्दोषी वह जुर्म सहे ।
लज्जा व शर्म की मारी न हाल किसी को कभी कहे ।।
ये जिंदे मुर्दे नहीं जानेंगे क्यों उन आँखों से नीर बहे ?
भीड़ में कोई मारके सिटी जब उल्टी-सीधी बात कहे।
सब सुनने वाले मरे हुए जो न लें सिर पर कोई बवाल ।
तो कैसे भारत हो खुशहाल, कैसे बाहर हो खुशहाल।।

मैं हूँ इक साधारण नारी , कैसे सीता बन दिखलाऊँ ?
चोर खड़े हर चौराहे पर , बचकर कैसे घर को जाऊँ??

कोई भी ना जगह सुरक्षित , नहीं जहाँ पर घात लगी है ।
जिक्र फिक्र में होते मेरे ,जब - जब होने रात लगी है ।।
सब मौके की ताक में बैठे , सोच - सोचकर दंग रहजाऊँ।
चोर खड़े हर चौराहे पर , बचकर कैसे घर को जाऊँ ??

लेखन में नारी को कहते कि प्रेम की ये साकार मूर्ति ।
पर देखन में भाव अलग हैं , तिरछी नजर कटार घूरती।।
जगह - जगह जहरीले बिच्छू , कैसे अपनी जान बचाऊँ ?
चोर खड़े हर चौराहे पर , बचकर कैसे घर को जाऊँ ??

बची कोंख से , फँसी प्रेमछल और ऊपर से दहेज दानवी।
उत्पीड़न की पीड़ पचासों , बींध गए दिल तीर मानवी ।।
काँटों भरी कंटीली राही , कैसे आगे कदम बढ़ाऊँ ?
चोर खड़े हर चौराहे पर , बचकर कैसे घर को जाऊँ ??

बेटी बचाओ लिखते हैं सब , कार्ड और परिवहनों पर ।
अपने हाथों आप तमाचा , मारते अपनी बहनों पर ।।
इतनी नीचे सोच गिरी है , कैसे ऊपर कहो उठाऊँ ?
चोर खड़े हर चौराहे पर ,बचकर कैसे घर को जाऊँ??

नफे सिंह योगी मालड़ा ©
दिन, शनिवार
दिनांक, 30,11,2019,


शर्मशार आज हो रही मानवता,

शील हरण सड़कों पर होता।

आक्रोशित है जननी बेटी की ,

जमाना जले हुए पे नमक छिड़कता।

दे रहे नसीहत अब विद्वजन कई ,

आखिर बाहर क्यों उसको भेजा ।

जब तक नारी और गाय बँधें रहें खूँटे से,

हो सकती है तभी तक ही सुरक्षा।

हम जंगल में हैं या इक्कीसवीं सदी में,

हमें ऐसी बातों से भ्रम हो ही जाता ।

समय बड़ा बेढ़ंगा हुआ आजकल ,

उल्टा पुल्टा ही हर तरफ है होता ।

कहीं का ईट कहीं रोरा आज यहाँ सरकार बनाता,

बहुमत तो बैठा बैठा आजकल है झक मारता।

हद से ज्यादा हर तरफ फैला आक्रोश है,

लग रहा बिगुल क्रांति का है बजने वाला।

स्वरचित, मधु शुक्ला.
सतना, मध्यप्रदेश.

विषय - आक्रोश (छंदमुक्त कविता)
दिनांक - ३०/११/१९


तुम कहते हो कि शर्मसार हो
हे पुरुष समाज! बस करो अब
छोड़ दो अपने ढकोसलों को
तुम्हारी ही पितृसतात्मक सोच
इस वीभत्सता का है आधार|

मत कहो कि शर्मसार हो...
जिस माँ की कोख से जन्में
छोड़ आते हो वृद्धाश्रमों में उसे,
पत्नी को समझते हो संपत्ति
बेटी को तुम कोख में मारते|

मत कहो कि शर्मसार हो...
तुम्हारी कामलोलुपता और गिद्ध नज़रें
मंडराती रहती हैं घर-बाहर
शर्म आती है कहते हुए यह
औरत की कोख से जन्में हो तुम|

मत कहो कि शर्मसार हो...
यदि होते तो देखो इस समाज को
आज इसका ये हश्र ना होता,
देखकर तुम्हारी हैवानियत को
ना आज विधाता बैठा रोता|

अनिता तोमर ‘अनुपमा’
(स्वरचित एवं मौलिक रचना)

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