Sunday, January 19

"आँगन/अहाता"18जनवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-629
आँगन

गाँव के विकास में,

भेंट चढे ।
टेढ़े-मेढ़े गोबर के ,
बचे हुए आधे आंगन से,
सिमेंट के रास्ते ने कहा ၊
" सुन रे !
उज़ड़े हुए बहार के,
टूटे हुए चमन ၊
सुना कभी था,
तेरा था दम खम ၊
भरा रहता था,
रिश्तेदारों से आँगन ၊
होती थी,
सुख दुख की बाते ၊
चैन से कटते दिन,
चैन से कटती रातें ၊"
आंगन ने कहा,
" हां भाई,
मैं विकास के भेट चढा ၊
अब तु हो गया,
मुझसे बड़ा ၊
तुझमें जो है अकड़,
वह तुझ पर चलने ,
वालों में भी आ गयी ၊
तौल रहे है चंद सिक्कों में ၊
एक दूसरे के रिश्ते को ၊
होकर कठोर तेरे जैसे,
बन रहे है संवेदनाहिन ၊
ढ़ो रहें है लाशों को,
एक दुसरें के कंधे पर ।

 प्रदीप सहारे

विषय आँगन अहाता
विधा काव्य

18 जनवरी 2020,शनिवार

घर की शौभा है आँगन से
अँगने में तुलसी का पौधा।
सुख शांति देता है सबको
कभी न उपजे मन में क्रोधा।

आँगन बनता नित क्रीडांगन
बालक खेले कूदे दिन भर।
कौलाहल दिन भर करते वे
हँसते गाते रहते अनवरत।

गाय बंधी पावन आँगन में
सुधा क्षीर पिलाती सबको।
गौ मूत्र से पावन घर रहता
सुख शांति देती है सबको।

पीपल वृक्ष खड़ा आँगन में
प्रिय शीतल छाया करता।
जो सुख मिलता है आँगन में
वह सुख कंही नहीं मिलता।

प्रिय आँगन तो आँगन होता
हर जरूरत को पूरी करता।
आँगन बिना तो घर सूना है
आँगन हर विपदा को हरता।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम

विषय-आँगन
______________
गुमशुदा है कोई मुझमें
मैं या मेरे सपने कहीं
ढूँढ के बतलाऊँ कैसे
गुम हुई खुशियाँ कोई
चाँद छूटा तारे छूटे
आँखों के नजारे छूटे
बंद कर खिड़कियों को
हम किस किनारे बैठे
रात के तन्हाईयों में
फिर गिरा तारा कोई
गुमशुदा है कोई मुझमें
मैं या मेरे सपने कहीं
ढूँढते हैं अब कहाँ हम
मुझमें जो खोया कोई
प्यास जीवन की अमिट
नाम न बुझने का ले
मन के आँगन में खड़ी
याद की परछाई तले
एक धुँधली-सी सूरत
देख मैं रोती रही
धुँध की बदली में छुपकर
खुद में ही खोती रही
कहीं सिसकती बदलियाँ का
राग सुना रहा कोई
गुमशुदा है कोई मुझमें
मैं या मेरे सपने कहीं
आज का कार्य -"आँगन"

आँगन


आज बड़े दिनों बाद आएं हैं पिया
महके हैं आँगन महके हैं बगिया
बसंती हवा ने क्या काम कर दिया
आज बड़े दिनों बाद आएं हैं पिया
मन मचले है और धड़के है जिया
आज बड़े दिनों बाद आएं हैं पिया
आज तलक जो होंठ हमने सिया
आज वो ओंठ जैसे गान रच दिया
आज बड़े दिनों बाद आएं हैं पिय।

स्वरचित व अप्रकाशित
रत्नेश कुमार शर्मा"रत्नाकर"
विषय- आँगन

आँगन की शोभा में
चार चाँद लगाए।
नाम जिसका तुलसी
है ये किसे न भाये ।

तुलसी तिरी महिमा को
भी हम ठुकराए।
तुझ जैसे हितकारी
के हित हम भुलाए।

वास्तु दोष का डर न
तरक्की पर इतराये ।
घर आँगन क्या होता
फ्लोर में मन बहलाये।

कितने रोग-दोग को
हम स्वयं बुलाये।
पैसे की लालच में
कमरे दस बनाये।

आँगन बेसबब लगा
ताक में स्वयं कहाए।
वाह 'शिवम' ये मति
श्रेणी उल्लू की पाए ।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 18/01/2020

विषय-आँगन

मेरे आँगन में सखी, कली खिली है आज।
पल-पल रही निहारती ,भूली सारे
काज।।

बाबुल का घर छोड़ कर,बिटिया गई विदेश।
आँगन सूना हो गया ,कब लौटेगी देश।।

तुलसी का बिरवा लगे,मेरी बिटिया नेक।
आँगन में जब डोलती, पाती दुआ अनेक।।

मेरे आँगन में सदा ,रस की बहे फुआर।
हँसी-ख़ुशी रहते सभी,यहाँ बरसता
प्यार।।

आँगन में बैठे हुए, मुखिया डाले खाट।
सुलझाते झगड़े सभी , खाई देते पाट।।

मेरे आँगन में सदा,खिलें खुशी के फूल।
खुशियों का सागर बहे, गम सब जायें
भूल।।

हरा-भरा अँगना रहे , बहे सदा रसधार।
बीते जीवन यूँ सदा , हे मेरे करतार।।

सरिता गर्ग
18 /1 /2020
बिषय ,,आंगन ,,अहाता

बच्चों की किलकारियों से गूजते थे आंगन
प्यार भरे सरगम सुनाती थी पवन
जाने कैसे बीत जाती सुबह से शाम
दादी माँ ताई का खत्म नहीं होता था काम
पड़ोसन काकीयों के गूंजते थे ठहाके
कभी खाली नहीं दिखते थे आंगन अहाते
धूप छांव में पड़ी रहती थी दादाजी की खाट
वहीं बैठ खाना सोना होते थे बहुत ठाट
चार बुजुर्ग बैठ लगा लेते थे चौपाल
रोज ही पूछने आते एक दूसरे का हालचाल
सामने गाय भैस बड़े बड़े दरख्तों की छांव
बड़ा ही अनोखा अपना वो गांव
अब यदि आंगन हैं तो खेलने बाला नहीं है
अम्मा ताऊ दद्दाजी की बातें झेलने वाला नहीं है
शहरों में आंगन के खत्म हो गए नामोनिशान
अट्टलिकाओं ने बना ली है पहचान
गांवों के आंगनों में अजीब सी खमोशी छा गई है
बच्चों को महानगरों की हवा लग गई है
हर दिल हावी हो गया एकाकीपन
आंखों में समा गया सूनापन
लिखते लिखते मेरे आंसू भी छलक आए
मन की व्यथाओं को किसको सुनाए
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार
18/01/2020
हाइकु(5/7/5)
आँगन
(1)
जाड़े में खूब
आँगन खेल रही
सुहानी धूप
(2)
दवाई बड़ी
आँगन की तुलसी
ममता खड़ी
(3)
गोद में लेटा
आँगन भी रोया
शहीद आया
(4)
बड़े शहर
खो रहे हैं आँगन
सिमटे घर
(5)
आशीष धूप
वसुंधरा आँगन
खिलते फूल
(6)
चुनती दाना
आँगन झूमें चिड़ी
गा रही गाना

स्वरचित
ऋतुराज दवे

दिनांक--18/01/2020
विषय-आँगन


भीग रहा है भूवि का आँगन...

धन गर्जन से भर दो बन
तर कर दो पपीहे का मन
यह पावस की सांझ रंगीली
काली घटाओं की रात नशीली
आज घेरे हैं मेरे बादल साथी
भीग रहा है भूवि का आंगन
उठो -उठो रे आया सावन
यह है पपीहे की रटन
दम तोड़ रही है शबरी की घुटन
सारस की जोड़ी सरोवर में
मधुर मिलन करते तरुवर में
उपवन -उपवन कांति कामिनी
गगन गुंजाये मेघ दामिनी
पवन चलाए बाण बूंद के
सहती धरती आंख मूंद के
बेलो से अठखेली करते
प्रेम पराग ठिठोली करते
मोर मुकुट को पहने वन को जाते
सतरंग चुनर ओढ़े पपीहा गीत गाते

आद्र सुख के कर क्रंदन में
प्यासी धरा के आँगन में
तरुण तरुवो के नंदन में
चंदन बन के गुंजन मे
वर्षा के प्रिय स्वर उर मे
बुनते सम्मोहन मे......।
प्रणय कीट विहग करते
धवल चांदनी के गगन मे
मेघो के कोमल मन
श्यामल तरुवो के मनमोहन
मन में भू अलग लालसा लिए खिलखिलाये तथ्यों के गोपन मे
इंद्रधनुष के झूले में खिल जाते प्यासे पपीहे करूण चितवन मे..

स्वरचित...
सत्य प्रकाश सिंह
भावों के मोती--
शीर्षक-आँगन,,

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना
रिसती-सी यादों से हृदय में इक आह का उठना!!
उफफ् !
ये जिन्दगी!!!!
आधा इश्क
अधूरा आकाश
साँसो का स्वर
अश्को की बरसात का गाना!!!!!
कितना दुश्वार है लोगों से छुपा कर रोना,!!
स्वरचित--
भास्कर

इलाहाबाद

तिथि-18/1/2020/ शनिवार
विषय-* आंगन/अहाता*

विधा -काव्य

घर आंगन किलकारी गूंजे,
हृदयांचल में मचता शोर।
जब भी प्रीत प्रेम रस घोलें,
हृदयांगन पर पड़ता जोर।

नन्ही परी डोले आंगन में,
चिड़ियां चहक उठें आंगन में।
खुले द्वार अहाते अतिथि को,
कितना सुख लगता प्रांगन में।

भूल रहे हम हंसना खेलना।
किये पाबंद बच्चे चहकना।
सूने सभी अहाते लगते,
जब नहीं यहां हंसना मिलना।

तुलसी चौंतरा भूल गए हम।
रीति प्रीत की भूल गए हम।
भूले संस्कार आंगन के
गले मिलना ही भूल रहे हम।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मंगलाना, गुना म प्र
18/01/2020
"आँगन/अहाता"
*
*************
अहाते मध्य
खटिया पर चर्चा
सजी चौपाल।।
*************
अंबिया डाली
आँगन में कूकती
कोयल काली।।
*************
अहाते पड़ी
सुनहरी किरण
नव उमंग।।
*************
बेटी पायल
चहकता आँगन
तीनो पहर।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ, स्वरचित।

18/1 /2020
विषय-आँगन


आँगन मेरे मन का
जैसे भीग रहा है।
चुपके से कानों में,
तुमने कुछ कहा है।

आँगन-मन प्यासा
तेरी नेह-वर्षा का।
चमका-चमका सा
उतरे आँगन राका।

गूँजे धुन सरगम की
झूमें मन -आँगन।
आतुर है मिलने को
गगन से मेरा मन।

ये कारवाँ काश यूँ ही
चलता रहे जीवन भर।
तेरी नेह-सुधा मैं पीती
रहूँ अँजुरी भर भर।

आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश

दिनाँक-18/01/2020
विषय-आँगन


(1)
आँगन मध्य
मण्डप सुसज्जित~
मंगल गीत
(2)
कला रंगोली
आँगन की सहेली~
हंसी ठिठोली
(3)
आँगन बीच
तुलसी का विरवा~
हवा पुरवा
(4)
घी का दीपक
तुलसी चौरा पर~
आँगन इत्र
(5)
आँगन मध्य
माँ ने बिखेरा दाना~
चिड़िया खाना
(6)
आभा कुन्दन
आँगन में छिटकी~
प्राची में सूर्य
(7)
रेडियो चर्चा~
सहेलियों के संग
आँगन गांव

कुण्डलिया छंद
शीर्षक .. आँगन


हमरे घर के आँगना,
महुआ के इक पेड।
जिसके पीछे बाँग है,
चरते जिसमें भेड॥
चरते जिसमें भेड,
बडे ही सुन्दर प्यारे।
हृदय बसा है देश,
शेर दिल उसपर हारे॥
रहते जो परदेश,
हृदय के दर्द को समझे।
लिखता हूँ मनभाव,
समझ तुम दर्द को हमरे॥

शेर सिंह सर्राफ

भावों के मोती।
स्वरचित

विषय-आंगन।

आंगन में मेरे सुबहो-शाम
खिलखिलाहट गूंजती है।
हां मेरे घर में चिड़ियाओं की
चहचहाहट चहकती है।।
आंगन में मेरे चूड़ियों की
खनखनाहट गूंजती है।
हां मेरे घर में गृह की लक्ष्मी,
अन्नपूर्णा निवास करती है।।
आंगन में मेरे पायल की
रूनझुन रूनझुन बजती है।
हां मेरे घर में कन्यायों की
चहल-पहल दिखती है।।
आंगन में मेरे जिंदगी जीने की
जिंदादिली बसर करती है।
हां मेरे घर में लक्ष्मी-सरस्वती
-दुर्गा सम नारियां बास करती हैं।।
****
प्रीति शर्मा" पूर्णिमा"
18/01/2020
विषय आँगन
दिनांक १८-१-२०२०
माँ पापा ने घर को,बडे़ ही प्यार से सजाया था।
कर दिन रात मेहनत,घर प्रभु मंदिर बनाया था।।

संस्कार सिंचित घर,आंगन तुलसी पौधा लगाया था।
बच्चों की किलकारीयों ने,सबका मन लुभाया था।।

साथ साथ बड़े हुए,हर सपने को साथ संजोया था।
एक दूजे से दूर कभी भी ,कोई नहीं रह पाया था।।

फिर कैसी हवा चली,क्यूं अपना हुआ पराया था।
बरसों का प्यार भुला,बस बँटवारा करवाया था।।

सपनों का मंदिर,यूं पल में ढहता नजर आया था।
बुजुर्ग सह ना पाए, प्रभु द्वार आसरा बनाया था।।

भाई भाई बने दुश्मन,इतिहास फिर दोहराया था।
कृष्ण नहीं कलयुग में,नहीं समझौता कराया था।।

इसी फूट का फायदा,सदा जग में सबने उठाया था।
जब हँसाई कर मूर्खों ने,अपनों को बिसराया था।।

पड़ी जब विपदा,देखो गैर नजर ना कोई आया था।
आँगन दीवार तोड़,अब अपनों को गले लगाया था।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
विषय : आंगन
विधा : कविता

तिथि : 18. 1. 2020

आंगन प्यारा आंगन-
भावनाओं की फुलवारी,
भर रंग क्यारी-क्यारी,
रोप बीज सुखकारी।

बबूल कभी न रोपना,
विष-खाद न थोपना,
'खार' खेती न सोचना-
आंगन,बने नहीं दुखकारी।

आंगन सदा महकाना
नेह के फूल खिलाना
स्नेह सुगंध बिखराना
इसे स्वर्ग सा सजाना।

खुशियां आंगन की प्राण हैं,
रिश्ते आंगन की जान हैं,
आशीर्वादों से रहे भरापुरा-
आंगन घर का सम्मान है।

छोटे-बड़े बैठें हिल- मिल,
खाएं-खेलें सब दिल मिल;
ऐसा आंगन ही शान है-
इनसे रहित शमशान है।
--रीता ग्रोवर
--स्वरचित
18-01-2020
*आँगन*

घर के आँगन में
एक चूल्हा
उसपर अम्मा कुछ पकाती।
पीढ़े पर बैठकर,
बगल में दादी बड़बड़ाती।
अरे नहीं!
किस्सा कहती थी दादी।
हम सब सुनने के आदी।
दादी गई भवसागर पार।
पीढ़ा बन गया कबाड़।
घूमता समय-चक्र।
ऋजु मार्ग भी वक्र।
जाने क्या हो गया?
ढूँढकर बताता हूँ-
आँगन कहीं खो गया?
-©नवल किशोर 
विषय - आँगन/अहाता
18/01/20

शनिवार
कविता

घर के बीचोंबीच पुण्य - पावन होता था ,
खुशियों और गम का गवाह मन भाता आँगन।

सूरज की सतरंगी किरणों की शोभा से ,
प्रातःकाल नहा , पवित्र हो जाता आँगन।

वहीं सुबह और शाम घरों में महफिल सजती,
किस्से और कथाओं में बतियाता आँगन ।

भरी दोपहरी में लुक-छिप व धमा-चौकड़ी ,
बच्चों की किलकारी से इठलाता आँगन ।

तुलसी, गेंदा और गुलाब पौधों से सुरभित ,
हरे - भरे उपवन सा रूप दिखाता आँगन।

सभी तीज- त्योहारों पर सतिये - रंगोली,
मंगल - कलशों से शोभा को पाता आँगन ।

अब तो मात्र कल्पनाओं में ही रहता है ,
फ्लैट-संस्कृति में खोया मुस्काता आँगन।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
दिनांक_१८/१/२०१९
शीर्षक-आँगन।


याद आया फिर वह आँगन
भूल गया था जो बर्षो से
शाम आँगन में खेलते
रात निहारते तारों को।

खत्म हुआ आँगन का जमाना
फ्लैट युग है आया
खुली हवा में बच्चे नहीं खेले
टीवी, मोबाइल हुआ प्यारा।

चिड़िया चहचहाती आँगन के पेड़ पे
वह सुन्दर था जमाना
बड़े दिलवाले का बड़ा आँगन
कहता था जमाना।

सिमट गई रिश्तेदारी हमारी
बदल गया जमाना
फ्लैट के आगे एक न चली
आँगन हुआ गुजरा जमाना।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
18/1/2020
आँगन
******
वह आँगन आज भी
याद करती हूँ
जब चाहे उसमें घूम
फिर आती हूँ

आती है याद उस आँगन
की धूप और छांव
सूखते अनाज़ पर बार
बार उनको सहेजते मां
तुम्हारे हाथ ।

वो तुम्हारे कांधे पर बैठ
करते उस आँगन की
मटरगस्ती याद दिलाती
है पिता की सरपरस्ती ।

उठी जब तेरे आँगन से
मेरी डोली
याद आती है तुम दोनों
की आँखे बरसती ।

अब मेरा अपना आँगन
एक है
उसकी धूप छांव मेरे हिस्से
की भी है
यही ख्वाहिश आयी
इस आँगन में बन दुल्हन
चार कंधों पर जाऊँ तो
ही ये मुझसे दूर जाये ।।
स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर

शीर्षक -- आंगन/अहाता

दरीचो से झांक कर देखा मैने
बिखरे थे किस्से मन के आँगन में

समेट कर ले आई मैं उन्हें वहाँ से
बादलों का क्या भरोसा कब बरसे

मन को तरसा बिन बरसे चले जाये
हाँ आँखों से जो बरसती है ये बदलियां

उनसे वो किस्से वो लम्हे भीग जाते है
मिलने की आस लिए हम बस जिये जाते है
आशा पंवार

18/01/2020शनिवार
विषय-अहाता/आँगन

विधा-हाइकु
💐💐💐💐💐💐
टूटे जबसे

संयुक्त परिवार

आँगन रोए👌
💐💐💐💐💐💐
निजी अहाता

एकल परिवार

बढ़ी दूरियाँ👍
💐💐💐💐💐💐
गूँजे आँगन

संयुक्त परिवार

दीवार नहीं💐
💐💐💐💐💐💐
किलकारी से

भर गया अहाता

खिला आँगन🎂
💐💐💐💐💐💐
श्रीराम साहू"अकेला"

दिनांक - 18/1/2020
विषय - आँगन/अहाता


गोधूलि की तरह ही
यह ख़ुद में रियासत है,
गाँव की अमिट संस्कृति
आँगन एक विरासत है ।

प्रसन्नता की धूप खिलती
हृदय दिनमान हो जाता है ,
रिश्ते- नातों का जमावड़ा
आँगन एक उत्सव हो जाता है ।

बीचोंबीच इस आँगन के
पौधा तुलसी इठलाता है,
आस्था के सोए भाव जगा
रोगों को भी झुठलाता है ।

इसमें ना कोई दर -दीवार
समतलता निज दर्शाता है ,
उन्मुक्तता का पुलकित भाव
आँगन सभ्यता को हर्षाता है ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति 
प्रदत्त विषय - आँगन

आँगन
********
मन का अँगना
भावों के मोती
साँसों की सरगम
आशा के गीत।
पक्षियों का कलरव
पेड़ों का झुरमुट
संध्या की बेला।
सिंदूरी आकाश
मन में जगता विश्वास।
रात का सन्नाटा तोड़,
आयेगा कल एक
नया सबेरा।
मिट जाऐंगे भेद - भाव
जागेगा फिर भातृ - भाव
शून्य विरक्ति का
मिट जाएगा भाव।
जन मानस में होगा
प्रेम का लहराता सागर।
मेरे घर - आँगन में
फिर चहेकेगें पंछी,
तोड़ेंगे नीरवता,
टूटेगा एकाकीपन।
जीवन का संगीत
गूँजेगा फिर आँगन में।
स्वरचित।अनु शर्मा

आँगन

है बच्चे
अंगना की शोभा
खेले जब
आँगन में
खुशियाँ भर दे
जीवन में

बिटियां का
आँगन
गुड्डे-गुड़िया
का ब्याह
बेटे का
अंगना
उछल-कूद
बनते घर
और पुल

अंगना दादी का
बने पापड़
और अचार

बैठे बुजुर्गों
सहित दादा जी
गप्प- गोष्ठी का
है उनका आँगन

सखियों सहित
झूले झूला
तोड़े इमली
अमराई
हरा भरा
अंगना है
घर की शान

सुख -
दुःख का
गवाह है
आँगन

आँगन बिन
अधूरा है घर
होते जा रहे
घर छोटे- बहुमंजिले
खोते जा रहे
आँगन जीवन में

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल

विषय -आँगन
***************

आँगन अब क्यूँ रोता है
अपना परचम खोता है
कितने वचपन खेले है
अब उलझन के मेले है

जिनको तुमने पाला है
तुमको ही किया काला है
तुमने ही तो समेट लिया था
सबको ममता एक दिया था
अब क्यूँ हलचल बिन सोता है
आँगन अब क्यूँ रोता है

जब गर्मी हमें जलाती थी
तन को बहुत सताती थी
तेरे आँचल के छाँव में ही
अम्मा रात को सुलाती थी
तु अब क्यूँ सूना सूना सा है
आँगन अब तू क्यूँ रोता है

तेरे ही गोदी में आकर
माँ मक्खन मारती थी
तेरे तन को करती गन्दा
फिर भी तू खुश होता है
आँगन तू अब क्यूँ रोता है

खुद की न परवाह किया
तनिक नही बकवाश किया
सारे घर के कूड़े कचरे भी
एक कोने में हार लिया
अब क्यूँ दुःख तुमको होता है
आँगन अब क्यूँ रोता है

छबिराम यादव छबि

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"अंदाज"05मई2020

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