Thursday, January 30

"पलायन/प्रवासी"'30जनवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-641
विषय पलायन,प्रवासी
विधा काव्य

30 जनवरी 2020,गुरुवार

शरणागत की रक्षा करना
यह भारत का प्रिय धर्म है।
आगत का स्वागत स्नेह से
यही हमारा परम् धर्म है।

वसुधैव कुटुंब समझकर
हम प्रवासी विश्व में रहते।
आहत को हम राहत देते
हर विपदा को मिल हरते।

परोपकार प्रिय धर्म हमारा
कभी पलायन हम न करते।
अहिंसा परमोधर्म समझते
हर जन के संकट हम हरते।

जग जीवन में सभी प्रवासी
माँ वसुंधरा है जग पालक।
स्वर्गीम सी खुशियां है सारी
मातृभूमि अति सुख दायक।

हिंदू मुस्लिम सिक्ख ईसाई
मिलकर रहते हैं भाई भाई।
विविधता में सदा एक हम
आखिर सबका एक है सांई।

द्वेष ईर्ष्या और नफरत से
हुये मजबूर मुल्क पलायन।
राम कृष्ण की पावन धरती
शरणागत का करती पालन।

स्वरचित ,मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
नमन भावों के मोती
विषय - पलायन

प्रथम प्रस्तुति

वो ताले ताक रहे हैं
वो अँधेरे झाँक रहे हैं।।
इक हम हैं कि आज शहरों
कि धूल को फाँक रहे हैं।।

गली सूनी चौबारे सूने
हर घर और द्वारे सूने।।
गाँव गाँव अब कहाँ रहे
बन गये हैं आज नमूने।।

वो रौनकें अब ना रहीं
बदनसीबियाँ गा रहीं।।
किससे कहें आपबीती
संतति सब कुछ भुला रहीं।।

कोइ मजबूरी कोइ शौक से
कोई दहशत या ख़ौफ से।।
ख़फा हैं इक दूजे से सब
हैं हँसते चेहरे अलोप से।।

कहाँ किसकी नज़र है
आज हैरां हर बशर है।।
कब रूकेगा पलायन ये
ये किसको आज खबर है।।

सिर्फ एक अंधी दौड़ है
इक भौतिकता की होड़ है।।
क्या कहें इस दौर को 'शिवम'
बहुत बुरा वक्त या दौर है।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 30/01/2020

दिनांक-30/01/2020
विषय-प्रवासी


एक प्रवासी क्यों लौट न पाया
कोलाहल इतना सन्नाटा छाया।
अनजान नगर , अनजान डगर
अनजान शहर वीराना राहों पर।।
अपनों से जब दूर हुआ
सहसा मैं कांप उठा
देश की सोंधी मिट्टी से
आहों का संताप फूटा
सोने के पिंजरे में कैदी
सपने होती कितनी झूठी
मन में दबी घोर उदासी
आहे भी मेरी बैरी....।
आज से गिनिगे हम
एक नभ के एक सितारे।
दूर हो जाऊंगा सदा के लिए
नीरस नदी के दो किनारे।।
आह ! अंतिम राह पर
विश्व के कतार में खड़ा
कब मिलेंगे गूंजते स्वर प्रतिध्वनि से
सागर व्योम के इस संसार में।।
आ अब लौट चले अपनी धरती पर
मां समेटे मातृत्व का आंचल
गीली नयने कल के बीते सपने
वृद्ध पिता है थका पराजित
रोती है सृजल आंखों से बहने।।
हिंदू प्रवासी पुत्र ना आया
ना तो कोई पत्र आया
ताक रही है नीला अंबर ,सजी अल्पना द्वार पे।
दुल्हन उदासी है रुवासी.......
क्या सीमाओं का बंधन भाया?
विषम परिस्थिति विषम जीवन
है इतना कठोर कोई समझ न पाया
एक प्रवासी लौट ना पाया.....

स्वरचित
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह प्रयागराज

विषय , पलायन, प्रवासी .
३०,१,२०२०.

गुरुवार .

पलायन हो हमारे कुविचारों का ,
हो इंसानों पर प्रतिबंध नहीं।

जीवन है नाम बाँटने का ,
मिला छीनने का अधिकार नहीं।

हो मजहब सिर्फ इंसानियत का ,
कोई ईश्वर ने बनाया धर्म नहीं।

यहाँ आकाश चाहिए है सबको ,
पर कर सकते धूप सहन नहीं ।

मिलती है राह हमेशा डटने में,
पलायन मुश्किल का हल नहीं।

उत्सर्ग सामंजस्य हो आपस में,
पलायन फिर हो रिश्तों से नहीं।

हम करें पलायन खुदगर्जी का ,
अहं का करना विस्तार नहीं।

एक खूबसूरत बाग अपनी दुनियाँ ,
पलायन की जरूरत ही नहीं।

स्वरचित , मधु शुक्ला . सतना , मध्यप्रदेश

दिनांक- 30/1/2020
विषय- पलायन


गाँव, पहले से ना रहे
विकास की लहर
शहरों से निकलकर
गाँव में भी बह रही है ।

बिजली-पानी की
समुचित व्यवस्था
सभी को मुहैया हो रही है ।

खेत-खलिहानों में
मशीनीकरण-जादू
किसान खुशहाल हो रहा है।

सरकारी, निजी
शिक्षण संस्थान
हर बालक शिक्षित हो रहा है ।

अब कोई बीमार
इलाज अभाव में
अकाल दम नहीं तोड़ता है ।

बहू - बेटियाँ अब
आजा़द हवा संग
प्रतिभा आकाश छू रही है ।

किसी गृहिणी को
चूल्हे का उठता धुआँ
अब निगलना नहीं पड़ रहा है ।

कंप्यूटर, मोबाइल से
ज्ञान-विज्ञान सीख
ग्रामीण तकनीक सीख रहे हैं।

जरनेटर, एयरकंडीशनर
लोगों की दिनचर्या
आरामदायक बना रहा है ।

दूध-दही बन कारोबार
गाँव की सीमा लाँघकर
शहरों में फल-फूल रहा है ।

शहर की संस्कृति
गाँवों में अवतरित हुई
संस्कृतियों में मेल हो रहा है ।

आश्चर्य का मुद्दा
इतना सा है मेरा
गाँवों से फिर क्यों
पलायन हो रहा है !!!

भारत का असली भारत
निज रुख मोड़ रहा है
अद्यतन पलायन है जा़री
शहरों में पदार्पण हो रहा है ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति 
दिनांक-30/01/2020
विषय-प्रवासी/पलायन

विधा-छन्दमुक्त

कहाँ खोने लगे हैं हम
सुख बुध खोता तन मन

भटकते मुसाफिर सी
फिरती इधर उधर
दुनिया की भीषण भीड़ में
एकाकी है मेरा मन।

भाग रहे सब तेजी से
लगते लोग पहेली से
लोगों के इस हुजूम में भी
लगता है क्यों वीरानापन।

जगत की रीत रास न आये
कुंठित जी मेरा घबराए
कैसे खिले मन की गिरहें
कर लूं क्या इस जग से पलायन?

सब लगते अनजाने से,
चेहरे जाने पहचाने से
यह कैसा रेलम-पेला है
हुआ मेरा प्रवासी अंतरमन।।

*वंदना सोलंकी*©स्वरचित
विषय : प्रवासी
विधा : वर्ण पिरामिड

तिथि : 30.1.2020

1

क्यों
चला
विदेश
पछतावा
बुद्धि छलावा
है तन प्रवासी
मन भारतवासी।

2

क्यों
छूत
प्रवास
बुद्धिमारी
दुख स्वीकारी।
देशी आकृतियां
हा!सताती स्मृतियां।
--रीता ग्रोवर
--स्वरचित
Damyanti Damyanti 
विषय_ पलायन/ प्रवासी
धन दौलत के खातिर देश छोड विदेशी हुऐ |
गांव कृषि छोड बाबू वमजदूर भये
कर रहा बिना सोच समझे मानव
पलायन हर कोई वजूद स्वय का खोरहे |
निज यथार्थता भूल गये ,भूले सब
संस्कार वसंस्कृति कैसी ये विडंबना
कैहे सहू कहती माँ भारती |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा
30/01/20
विषय:-प्रवासी, पलायन
विधा:-हाइकु

1
'प्रवासी' पक्षी
वन्य जीव विहार
अनुकूलन
2
जनवरी में
'प्रवासी' सम्मेलन
स्वदेश प्रेम
3
भ्रष्टाचार में
देश से 'पलायन'
विदेश अंक
4
साहसी व्यक्ति
'पलायन' विमुख
कर्म ही धर्म
5
परीक्षा पास
'पलायन' नही हल
प्रयत्न बल

मनीष श्री
दिनांक-३०/१/२०२०
शीर्षक-पलायन/प्रवासी

ऐसी क्या मजबूरी है?
पलायन करना जरूरी है,
सम्मान मिले जो अपने घर में
नही मिले वह परदेश में।

अपनी मिट्टी छोड़ने का
मन में उठे मलाल
विभाजित हो जाये मन
भूले सकल जहान।

ऋणमुक्त न हुये स्वदेश का
गये परदेश बेकार
कंचन के मोह में दूर भये
यह नहीं उचित व्यवहार।

अनुपम है देश हमारा
अद्वितीय है यहां का प्यार
लौट आओ अब अपने घर को
भुलकर सकल जहान।

जननी, जन्मभूमि स्वर्ग से सुन्दर
कह गये चतुर सुजान
लौट आओ अब अपने घर को
राह ताकती है माँ।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

विषय:प्रवासी
विधा:गीत
सपनो के हर तल में रहोंगे

चले छोड़ हम बचपन का घर
चले छोड़ हरियाली का शहर
आंसू बनके दिल मे रहोंगे
सपनो के हर तल में रहोंगे।

सुबह जब याद आयेगी बगियाँ
बहनों की मुस्कान रंगीन राखियां
मस्ती से बीते कल में रहोंगे
याद जहन में बीते पल में रहोंगे।
सपनो के.....

याद आयेगा जब मेरा गाँव
कैसे भूल पाऊंगा पेड़ो की छांव
चले सब लुटा के जाने कहाँ रहेंगे
गैरो की दुनियां में पहचाने दल न रहेंगे।
सपनो के.....

उमाकान्त यादव उमंग
मेजारोड प्रयागराज
स्वरचित
मौलिक

पलायन/ प्रवासी

होते हैं मजबूर
अपने ही गांव से
पलायन के लिए
अन्नदेवता
होती है बर्बाद
खेती
सूखा, ओला
तूफान से

रात दिन करते
मेहनत
गुजारते खेतों में
दिन रात
हैं हम सब
हितेशी इनके
करों मत पलायन
अपने गांव से

दर्द है बहुत
अपने अपनों
को छोड़ना
अपनी माटी
अपना देस

करता नहीं
कोई पलायन
अपने मन से
विछोह
होता नहीं सहन
दोस्त
दूर क्षितिज पर
डूबते सरज को
देख कर
मजबूरी ही
कर देती है
लाचार

नहीं हो पलायन
जिन्दगी में किसी की
बहुत सहा है
दर्द हिन्दुस्तानी ने
बंटवारे का पलायन

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
विषय -पलायन
दिना़क ३०-१-२०२०

फुर्सत मिले तो देख आना,गाँव के घरोंदो को।
जो चीख चीख कह रहे,जिम्मेदार तुम भी हो ।।

बेजान हुए फिर भी,भूले नहीं अभी हम तुम्हें।
वरना हक भी खो दोगे,तुम हमारे अपने हो।।

बचपन तुम्हारा बीता यहाँ, खेलकूद बड़े हुए।
माँ की तरह तुम्हें पाला,भूल गए तुम क्यों हो।।

कमी नहीं थी गाँव में,फिर भी तुम सब शहर गए।
अपनों से भी कर दे दूरी,फिर भी खुश नहीं हो।।

गाँव के बच्चे भी पढ़ लिख, संस्कारवान बने हैं।
संस्कारहीन उन्हें बना,तुम वृद्ध आश्रम जाते हो।।

माता पिता को छोड़ यहाँ ,तुम विदेश चले गए।
अपने सपनों में खोए ,अब तन्हा क्यों रोते हो।।

खुशियां मिलती अपनों संग,यह क्यों बिसराते हो।
बुला रही गांवों की मिट्टी,महलो में नहीं पाते हो।।

लौट आओ अब भी,सुकून सिर्फ गाँव में पाते हो।
गाँव जैसा वातावरण,तुम कहीं भी नहीं पाते हो।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

क्या दिन थे वे सुहाने। थे गुज़रे जो दिन पुराने।
मुहब्बत का वो जहाँ था। हर आदमी भला था।

पडोसी सभी थे भाई। मुश्किल घड़ी जो आई।
हर आदमी खडा था। अहसान क्या बडा था।

बाहर न घर में डर था। हरेक को फिकर था।
हर आदमी सिपाही। हर शख्स पासबां था।

मेहनतो की थी कमाई। स्वादों सुकूं से खाई।
चैन की नीदं सोकर। हर कोई बादशाह था।

रातों को घर अंधेरे थे। पर उजले बडे सवेरे थे।
चेहरे थे खिलखिलाते। कोई नहीं खफा था।

क्यों घर वो सब पुराने। यूं अब तोडे जा रहे हैं।
प्यार और मुहब्बत। सब क्यूँ छोडे जा रहे है।

कोई नहीं यकीं हैं। और कोई नहीं अकीदा।
हर आदमी है समझे। खुद ही को बस खुदा है।

ये कैसी तरक्की है। और ये कैसा जमाना है।
हर चेहरा अजनबी है। हर शख्स बेगाना है।

कहने को भीड़ है। पर कोई मेरा यहाँ नहीं है।
हर आदमी है तन्हा। के हर शख्स अलहदा है।

अरमां की न कीमत। हर दिल तो बेवफा है।
कहने की मौज है। लेकिन हर चीज़ बेमज़ा है।

क्या सोच घर से निकले। और क्या मिला है।
ये वक्त काटना है या कि जीना कोई सजा है।

क्या दिन थे वे सुहाने। थे गुज़रे जो दिन पुराने।
मुहब्बत का वो जहाँ था। हर आदमी भला था।

स्वरचित। विपिन सोहल
दिनांक- 30/01/2020
शीर्षक- "पलायन/प्रवासी
वि
धा- छंदमुक्त कविता
*******************
पहाड़ों का वासी,
क्यों हो रहा प्रवासी?
समझो जरा उसका दर्द,
गुजारा नहीं बिना अर्थ |

जंगल कट गये,खेत उजड़ गये,
किसी को नहीं पहाड़ो की फिक्र,
रहने वाला वहाँ क्या करेगा?
पहाड़ों में नहीं अब गुजर बसर |

रो रहा है आज पहाड,
होते कितने उसपे प्रहार,
बिन मानव सूना हो गया,
कौन सुनेगा उसका दर्द ?

दूर-दूर लोग बस गये,
पलायन करके कहाँ चले गये?
कमाने में मगरूर हो गये,
पहाड़ों से बहुत दूर हो गये |

अपनी जगह की अहमियत समझो,
कमाई के साधन यहीं जुटाव,
पलायन का न मन बनाओ,
पहाड़ों मे फिर से बस जाओ |

स्वरचित- संगीता कुकरेती
पलायन
पलायन यू ही नहीं होता, उसके पीछे गहरे कारण होते हैं।
पलायन शौकिया नहीं बल्कि विवशता के कारण होते हैं।

पलायन में गहरे राज छुपे होते हैं, वर्तमान गर्त में होता है।
पलायित व्यक्ति को अपने समाज से कटने का गम होता है।
उसकी आँखे परिवार, समाज के प्रति सदा नम होती है।
रोजी रोटी की तलाश उसे दरबदर भटकने को विवश कर देता है
मैंने भी लम्बा पलायन का जीवन काटा है, दूरियों का गम भोगा है।
अपने समाज से वंचित रहने के दंश को, कोयले से राख होते देखा है।
बड़ा सालता है यह दर्द, गमों की तपिश मन को पिघला देती है।
आगे कुआँ और पीछे खाई जैसी स्थिति पैदा हो जाती है।
हे ईश्वर पलायन का दर्द किसी को न देना क्योंकि यह बड़ा मारक है।
अधिकांश लोग इससे टूट जाते हैं, कम ही आग में कुन्दन होते हैं।
स्वरचित कविता प्रकाशनार्थ
डॉ कन्हैया लाल गुप्त शिक्षक
उत्क्रमित उच्च विद्यालय ताली, सिवान, बिहार 841239
पता- आर्य चौक- बाज़ार भाटपाररानी देवरिया उत्तर प्रदेश 

विषय:- प्रवासी
विधा :-काव्य

ूर देश से आई चिड़िया ,
लौट न पाती वह स्वदेश ।
देख प्रवासी मार गिराई ,
आयें शिकारी ऐसे पेश ।

राष्ट्रीय सड़कों के किनारे ,
बेचे लोग प्रवासी पक्षी ।
शीत देख आते बिहार में ,
खा जाते उन्हें माँस भक्षी ।

सर्वप्रथम सितम्बर मास में ,
खंजन अबाबील हैं आते
शीत इलाक़ों से उड़कर वे ,
भारत में प्रवास हैं पाते ।

इनके ठंडे मुल्कों में जब ,
कम हो जाता दाना पानी ।
झीलों नदियों जलाशयों में ,
जम जाता है उनका पानी ।

अपने प्राण बचाने ख़ातिर ,
मीलों की दूरी तय करते ।
अतिथि देवों भव के देश में ,
छ: महीने यापन वह करते ।

रेड - ब्रैस्टेड , लाई कैचर ,
बत्तखें , क्रेन ,स्टोर्क आते ।
छह अभयारण्य बिहार के ,
ज़िम्मेदारी खूब निभाते ।

माँस भक्षी अपने देश के ,
भूल रहे हैं अतिथि सत्कार ।
पूछ रहे चिड़िया के बच्चे , 
देश क्यों भूला ये संस्कार ।

वन कटाई शहरी करण से ,
प्रवासी पक्षी कम हो रहे ।
बेहतर मरण मातृभूमि का ,
कंधों पर वे शोक ढो रहे ।

स्वरचित :-
ऊषा सेठी
सिरसा

दिन :- गुरुवार
दिनांक :- 30/01/2020

शीर्षक :- पलायन/प्रवास

सिकुड़ रहे गाँव,
महज चंद गलियों में।
हो रहे प्रवासी,
वासी इन गलियों के।
लुभा रही चकाचौंध कुछ को तो,
और कुछ हालात के मारे हैं।
पर किया प्रवास जिसने भी,
बने सब फिर रहे बंजारे हैं।
कोई गया अपनो के लिए।
कोई गया सपनों के लिए।
चैनों सुकूं की तलाश में,
भटकता वो शहर-दर-शहर।
यायावर जी ये जिंदगी,
दम तोड़ती हालात पर।
ठहर जाती ये जिंदगी,
हर दुष्कर सवालात पर।
रह जाते ये याद बन,
अपनों की स्मृतियों में।
ठहर जाते समंदर भी,
उन बुढ़ी अँखियों में।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश
दिनाँक-30/01/2020
शीर्षक-पलायन, प्रवासी

विधा-हाइकु

1.
प्रवासी पक्षी
कुछ दिन का डेरा
रैन बसेरा
2.
आज के युवा
पलायन संस्कार
ढूँढते प्यार
3.
पैसे कमाने
प्रवासी हुए लोग
उजड़े गाँव
4.
ढूँढते चुग्गा
अनेक पशु पक्षी
बने प्रवासी
5.
देश विदेश
करते पलायन
भूखे मवेशी
*********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया
पलायन/ प्रवासी

*************
बना घरौंदा
हृदय पटल पे
करें निवास
न पलायनवाद
जग आभासी
बहुत बने दोस्त
देसी प्रवासी......
कुछ अपने
रहे कुछ पराये
अनजान से.....
कुछ जागृत
कुछ सुप्तावस्था
खिड़की खोल
मन की प्यारे तूँ
देख दुनियाँ
न रह अनजान
ले थोड़ा संज्ञान
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली

30/01/2020
"पलायन"
*
*************
बर्फ की वादियाँ, चिनार के दरख़्त,वही शिकारा
पहले भी थे अब भी है पर अब सैलानी नही है
अकेले पन मे घुटन होती है
चलो...पलायन करें।
वो चहल कदमी करते बाजार अब वीरान है
दूर दराज तक क्यों नही सुनता राष्ट्रगान है
मंदिरों में सुकून भरी घण्टा ध्वनि भी गुम है
सब कुछ होकर भी सुनसान मन है
चलो...पलायन करें।
वो ऊँचे काष्ठ के नक्काशीदार घर
हँसते खेलते जिनमे बीतता था बचपन
न जाने क्यो भयानक हो गया था मंजर
अकेले,भीड़ सब थे निशाने पर
चलो...पलायन करें।
पलायन ठंडक से,शीत बहार से,बिरयानी की सोंधी महक से या...
तपाक से...आँखे खुली
दुखद... बीत गया।
अब शीत बहारों,कचनार तले बिरयानी की महक तले
शिकारे में मस्ती करने सैलानी आएंगे...
सुखद अनुभव होगा
हाँ... अब पलायन नही होगा।।

वीणा शर्मा वशिष्ठ, स्वरचित
.

दिनांक :30/01/2020
विषय : "पलायन"

विधा : हाइकु(5/7/5)
(1)
आज का युग
कर्तव्य पलायन
धन की भूख
(2)
रोक न पाये
मूल्यों से पलायन
शिक्षा बुलाये
(3)
जीवन आज
भावना पलायन
बुद्धि का राज
(4)
बिगड़े गति
जीवन पलायन
कायर वृत्ति
(5)
घर उजड़े
संस्कार पलायन
खामोश बूढ़े
(6)
मिला न काम
प्रतिभा पलायन
तंत्र की हार

स्वरचित
ऋतुराज दवे


30/1/2020/गुरुवार
*पलायन /प्रवासी*

छंदमुक्त

मन का पलायन
वैशाखी थामता
हमारी संस्कृति
सभ्यता देखता
अनजान सा
पलायन नहीं चाहता
यहां से विस्थापन
मतलब विपन्नता।
मारकर किसी ने हमें भगाया
इस देश को अपना बनाया
संपन्न होकर पराया बनाया
हमको मझधार में छोड़
गैरों को बसाया लगाया
अपनी रोटियां सेंकने।
यार लुटाया देश का
वीभत्सता के लिए
नर पिशाचों को मंगाया।
भारत को अपना गुलाम बनाने
इसी बहाने
कश्मीर से भगाया पलायन
जानबूझकर कराया
प्रवासी पक्षियों को
दाना पानी दिया
मुफ्त का खिलाया
मफलर बांधकर
अभी भी रिझा रहे
अपने बाप की जमा-पूंजी
जनता में लुटा रहे।
मुफ्त खोरों को और हड्डी डाल रहे
हलाल करने
करने जेबें भरने
पांच साल के लिए
और दाने डाल रहे।
नई नई आदतें सिखा रहे
अलसी बना रहे।

स्वरचित,
इंजी शंभू सिंह रघुवंशी अजेय गुना
म प्र
"भावों के मोती'
30/1/2020

प्रवास/पलायन
***************
सांसो के आरोह
अवरोह के साथ
प्रवासी इस तन में
बंधन है मन का
मृगतृष्णा सी जिंदगी में
मरता हुआ इंसा भी
हर पल जीता जाता है
पलायन नही कर सकता
जीना उसकी मजबूरी
हो जाती है
न जाने कितने ख्वाहिश
ख्वाब बनकर आंखों
में छा जाते हैं
अंतःकरण की सन्नाटे से
भरी दरकती हुई जिंदगी
की पगडंडियों पर चलती
जाती हैं
इसे ही जीवन का यथार्थ
मान चलते रहते हैं
अपने अपने रास्ते पलायन का
बोझ न सह सकेंगे
ये दिया हुआ जीवन अमानत
है उसका बख्शा हुआ प्रवास
यही है
उसके दिए जीवन का सम्मान ।
स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर
३०-१-२०
पलायन

सूर घनाक्षरी

दरवाजे पर ताला,
सूखती तुलसी माला,
बुझता गौशाला आला,
ग्रामवासी चले।

पगडंडी सुनसान,
खेती कुटिया मचान,
बोझिल धरा का गान,
उर अग्नि जले।
ततैय्या के छत्ते बने,
मकड़ियाँ जाले बुने,
रीतियों के द्वार सूने,
प्राण देश बले।

खेती पर पड़े मार,
रोज़गार न्यून धार,
छोड़ घर बार बार,
लाल दूरी खले।

नव नूतन साधन,
खिले घर का आँगन,
रहे मुस्काता सावन,
ख़ुशी सदा पले।

ग्राम्य जीवन कठिन,
आवागमन नवीन,
लघु उद्योग प्रवीन,
श्री धन भी मिले।

योजनायें भरपूर,
कष्ट करती हैं दूर,
मिले सत्य प्राण नूर,
रोकें सिलसिले।

भारत कृषक देश,
हरियाला परिवेश,
गाँवों गावों हो संदेश,
बसें छाँव तले।

स्वरचित
रचना उनियाल
विषय, पलायन, प्रवासी
दिनांक, ३०,१,२०२०

गुरुवार

दुखी प्रवासी
स्मृतियाँ वतन कीं
बातें बचपन कीं
अपने लोग
खुशियों की तलाश
हरदम निराश ।

चाहिये रोटी
परिवार जरूरी
समझो मजबूरी
बात दुख की
पलायन बेबसी
अर्चना जीवन की ।

कोई कहानी
मान्यताएं पुरानी
विश्वास पलायन
भटका मन
बिखरा घरबार
दफनाए संस्कार ।

धर्म अशिक्षा
है गहरा अंधेरा
हर कोई अकेला
मौत के साये
जीवन घबराये
पलायन हो जाये ।

स्वरचित , मधु शुक्ला.
सतना , मध्यप्रदेश.

विषय-पलायन
विधा-मुक्त

दिनांक-30 /01 /2020

*+*+*+*+*+*+*+*+*+
हो रहा पलायन यादों का
उम्र के द्वार से
घटने लगी हैं यादें
बचपन की ,जवानी
की जवाबदेही में
जवानी पर बोझ
कर्म का रहा हर दम
नोन,तेल,लकड़ी में
दब कर रह गईं
खुशनुमां यादें और....
रातों की चाँदनी में भी
छिपा के नहीं रखी यादें
कि उम्र के पढ़ाव पर
जब कभी चाहे
महसूस कर लेता
बची जो थोड़ी-बहुत
वो भी ..........
पलायन कर रही
उम्र के द्वार से

डा.नीलम
II प्रवासी II

चैन...

कितना प्रवासी है...
हर तरफ उजाला है...
मगर...
मन को दिखाई नहीं देता....
बड़े से घर की छत पर बैठा हूँ...
नीचे ज़मीं पर था...
तो ऊपर चढ़ने की ज़िद्द थी...
अब...
ऊभ गया हूँ...
ज़मीं पर रहना चाहता हूँ...
पर अँधेरे को रौशन करती...
लड़िओं की चकाचौंध....
अँधेरी सीढ़ियां बन गयीं....
मन प्रवासी अब...
दूर छोर के बादलों में...
तसवीरें ढूंढता है...

II स्वरचित - सी.एम्.शर्मा II
३०.०१.२०२०

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"अंदाज"05मई2020

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