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ब्लॉग संख्या :-639
यह सोचो तो ख्याल अच्छा है।
जो गुजरा वोह साल अच्छा है।
जो तेरा हुआ वो गया ईमान से।
चलो इससे तो मलाल अच्छा है।
कहो बेकार कटती जिन्दगी कैसे।
तेरे गम में जीना मुहाल अच्छा है।
नौजवानों का इसमें क्या कसूर।
अब भी तेरा ये जाल अच्छा है।
कहो क्या हाल है वो ये पूछते हैं।
खैर फिर भी ये सवाल अच्छा है।
विपिन सोहल
जो गुजरा वोह साल अच्छा है।
जो तेरा हुआ वो गया ईमान से।
चलो इससे तो मलाल अच्छा है।
कहो बेकार कटती जिन्दगी कैसे।
तेरे गम में जीना मुहाल अच्छा है।
नौजवानों का इसमें क्या कसूर।
अब भी तेरा ये जाल अच्छा है।
कहो क्या हाल है वो ये पूछते हैं।
खैर फिर भी ये सवाल अच्छा है।
विपिन सोहल
दिनांक -28/1/2020
विषय - जाल
जब साधकर वह अपने मंसूबे
चलकर नदी किनारे आया था
पकड़ने जल की एक रानी को
शिकारी जाल बिछाने आया था ।
मोह मछली का ना जान सका
अपना दाँव खेलने आया था
मात्र स्वार्थ के चलते ही तो वह
मछली को पकड़ने आया था ।
एक मछली अनजान थी इससे
उसके फैलाए जाल में फँस गई
दूर पानी प्रियतम से जैसे ही हुई
विरह वेदना में उसकी तड़फ गई ।
पल भर में अपने प्राण त्याग दिए
वह पानी बिन ज़िंदा रह ना सकी
अपने अंतर्मन की पीड़ा को फिर
शिकारी से संवाद कर ना सकी ।
आत्मा तो उसकी काफ़ूर हो गई
मात्र मृत शरीर हाड़ माँस शेष रहा
यूँ अपनी क़ुर्बानी देकर भी उसने
शिकारी से उफ़ तलक ना किया ।
जब बीच बाज़ार मे हुई नुमाइश
ग्राहकों ने ख़ूब उसका सौदा किया
उसे घर लाकर चूल्हे पर तला भुना
निज जठराग्नि को शांत किया ।
आदि मानव भी था इससे बेहतर
भोजन वनस्पति खाया करता था
जीव-जंतुओं संग विचरण उसका
प्रेम समर्पण दिखाया करता था ।
संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
विषय - जाल
जब साधकर वह अपने मंसूबे
चलकर नदी किनारे आया था
पकड़ने जल की एक रानी को
शिकारी जाल बिछाने आया था ।
मोह मछली का ना जान सका
अपना दाँव खेलने आया था
मात्र स्वार्थ के चलते ही तो वह
मछली को पकड़ने आया था ।
एक मछली अनजान थी इससे
उसके फैलाए जाल में फँस गई
दूर पानी प्रियतम से जैसे ही हुई
विरह वेदना में उसकी तड़फ गई ।
पल भर में अपने प्राण त्याग दिए
वह पानी बिन ज़िंदा रह ना सकी
अपने अंतर्मन की पीड़ा को फिर
शिकारी से संवाद कर ना सकी ।
आत्मा तो उसकी काफ़ूर हो गई
मात्र मृत शरीर हाड़ माँस शेष रहा
यूँ अपनी क़ुर्बानी देकर भी उसने
शिकारी से उफ़ तलक ना किया ।
जब बीच बाज़ार मे हुई नुमाइश
ग्राहकों ने ख़ूब उसका सौदा किया
उसे घर लाकर चूल्हे पर तला भुना
निज जठराग्नि को शांत किया ।
आदि मानव भी था इससे बेहतर
भोजन वनस्पति खाया करता था
जीव-जंतुओं संग विचरण उसका
प्रेम समर्पण दिखाया करता था ।
संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
28/1/2020
जाल
-------
बिना सोचे विचारे
निकल पड़ी मैं आज।
स्वयं ही स्वयं की यात्रा पर
आंख मूंदकर विचरण करती
इठलाती चली जा
रही थी,
सुंदर मन के शांत
सागर की अनंत
लहरों में गोते लगा रही थी
उठती गिरती लहरों की तरंगें
मन मे जैसे संगीत
लहरियां बिखेर बिखेर कर
दिल के तारों को छेड़ देती
मन के बागीचे से
उठती खुशबू मन
को मदमस्त किये देती थी।
ओह! अचानक पैर
उलझ गया कहीं
न जाने कैसे जाल
में फस गया
पलके खोली नज़रें दौड़ाई ये क्या मन
का हर कोना भरा हुआ है
,काई से
शैवाल उग गयी थी
पैर खींचना चाहा लेकिन ये तो
खर पतवारों के जाल
में उलझ चुका था,
यहाँ तो काम,क्रोध
लोभ,ईष्या, लालच
सब लबालब है
सोचने लगी कैसे
पाऊंगी मैं अपने मैं
को जिसे मैं पाना चाहती हूँ,
क्योकि
यही मैं है जिसने
अपने जाल
उलझा रखा है
जिस दिन इस मैं
से छूट जाऊंगी
वो अनंत स्वयं समेट लेगा अपने
अन्तस् में ।।
अंजना सक्सेना
जाल
-------
बिना सोचे विचारे
निकल पड़ी मैं आज।
स्वयं ही स्वयं की यात्रा पर
आंख मूंदकर विचरण करती
इठलाती चली जा
रही थी,
सुंदर मन के शांत
सागर की अनंत
लहरों में गोते लगा रही थी
उठती गिरती लहरों की तरंगें
मन मे जैसे संगीत
लहरियां बिखेर बिखेर कर
दिल के तारों को छेड़ देती
मन के बागीचे से
उठती खुशबू मन
को मदमस्त किये देती थी।
ओह! अचानक पैर
उलझ गया कहीं
न जाने कैसे जाल
में फस गया
पलके खोली नज़रें दौड़ाई ये क्या मन
का हर कोना भरा हुआ है
,काई से
शैवाल उग गयी थी
पैर खींचना चाहा लेकिन ये तो
खर पतवारों के जाल
में उलझ चुका था,
यहाँ तो काम,क्रोध
लोभ,ईष्या, लालच
सब लबालब है
सोचने लगी कैसे
पाऊंगी मैं अपने मैं
को जिसे मैं पाना चाहती हूँ,
क्योकि
यही मैं है जिसने
अपने जाल
उलझा रखा है
जिस दिन इस मैं
से छूट जाऊंगी
वो अनंत स्वयं समेट लेगा अपने
अन्तस् में ।।
अंजना सक्सेना
विषय जाल
विधा काव्य
28 जनवरी 2020,मंगलवार
जीवन माया जाल है मित्रों
सुर मुनि इसे समझ न पाए।
महाकाव्य कवियों ने रच दिये
मङ्गल गान प्रिय हमें सुनाए।
महाकाल का चक्र घूम रहा
स्वयं काल यँहा जाल बिछाए।
नये नये हथकंडे बुनता नित
मृत्यु जाल निज हमें फ़साये।
आना जाना जीवन क्रम है
सभी जानकर अंजाने बनते।
बंधे जाल मकड़ी के सम सब
स्व स्वार्थमय करनी करते।
सक्षम करते असक्षम शोषण
स्वार्थ जाल में सभी बंधे हम।
तेरा मेरा करते मिलकर सब
है विस्फारित अज्ञान का तम।
फसे हुये सब मायाजाल में
मुक्ति का प्रयास हम करते।
जितना सुलझें उतना उलझें
काल ग्रास एक दिन बनते।
स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विधा काव्य
28 जनवरी 2020,मंगलवार
जीवन माया जाल है मित्रों
सुर मुनि इसे समझ न पाए।
महाकाव्य कवियों ने रच दिये
मङ्गल गान प्रिय हमें सुनाए।
महाकाल का चक्र घूम रहा
स्वयं काल यँहा जाल बिछाए।
नये नये हथकंडे बुनता नित
मृत्यु जाल निज हमें फ़साये।
आना जाना जीवन क्रम है
सभी जानकर अंजाने बनते।
बंधे जाल मकड़ी के सम सब
स्व स्वार्थमय करनी करते।
सक्षम करते असक्षम शोषण
स्वार्थ जाल में सभी बंधे हम।
तेरा मेरा करते मिलकर सब
है विस्फारित अज्ञान का तम।
फसे हुये सब मायाजाल में
मुक्ति का प्रयास हम करते।
जितना सुलझें उतना उलझें
काल ग्रास एक दिन बनते।
स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विषय-जाल
विधा -छन्द मुक्त
जाल बिछाया आखेटक ने
नादां समझ न पाई
फँसने को खुद ही उसमें
सहर्ष चली वो आई
प्यार भरी बातों में उसकी
डूब गई वो पगली
झूल गई उसकी बाँहों में
देख नियति न पाई
किया समर्पण तन-मन अपना
तब बुद्धि चकराई
सूनी सेज थी उसकी उस पल
और थी बस तन्हाई
जाल समेटा आखेटक ने
फिर वो नजर न आया
जिस भँवरे की खातिर उसने
था सर्वस्व लुटाया
कभी जाल आंखों का बिछता
कभी जाल बातों का
कभी डाल कर दाना-चुग्गा
आखेटक मुस्काया
नजर जरा पैनी रखना
औ जाल में मत फँस जाना
हो जाएगी दुनिया बैरी
तुम पर हँसे जमाना।
सरिता गर्ग
विधा -छन्द मुक्त
जाल बिछाया आखेटक ने
नादां समझ न पाई
फँसने को खुद ही उसमें
सहर्ष चली वो आई
प्यार भरी बातों में उसकी
डूब गई वो पगली
झूल गई उसकी बाँहों में
देख नियति न पाई
किया समर्पण तन-मन अपना
तब बुद्धि चकराई
सूनी सेज थी उसकी उस पल
और थी बस तन्हाई
जाल समेटा आखेटक ने
फिर वो नजर न आया
जिस भँवरे की खातिर उसने
था सर्वस्व लुटाया
कभी जाल आंखों का बिछता
कभी जाल बातों का
कभी डाल कर दाना-चुग्गा
आखेटक मुस्काया
नजर जरा पैनी रखना
औ जाल में मत फँस जाना
हो जाएगी दुनिया बैरी
तुम पर हँसे जमाना।
सरिता गर्ग
विषय - जाल
प्रथम प्रस्तुति
बिछे हुए हैं जाल ही जाल
रखना तुम अपना ये ख्याल।।
कोई करीबी कह रहा था
ज्यों आँखों से दिल का हाल।।
क्या क्या नही वो कहते थे
वो हरदम दिल में रहते थे।।
ऊँची उड़ान मुझमें थी औ
वो भी ऐसे ही बहते थे।।
मेरे जाल नही खतम हुए
हजारों हजारों सितम हुए।।
रोयें तो हम रोयें किससे
अपनों के हम पर जुलम हुए।।
एक मसीहा वो बन गए
इस नादां दिल में थम गए।।
दूरी भी कभी प्यार बढ़ाय
ये सिद्धांत हमें जम गए ।।
जाल बने यहाँ बेमिसाल
डरो नही तुम करो कमाल।।
जलाओ चराग प्रेम का तुम
मिलेगा 'शिवम' उर से ताल।।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 28/01/2029
प्रथम प्रस्तुति
बिछे हुए हैं जाल ही जाल
रखना तुम अपना ये ख्याल।।
कोई करीबी कह रहा था
ज्यों आँखों से दिल का हाल।।
क्या क्या नही वो कहते थे
वो हरदम दिल में रहते थे।।
ऊँची उड़ान मुझमें थी औ
वो भी ऐसे ही बहते थे।।
मेरे जाल नही खतम हुए
हजारों हजारों सितम हुए।।
रोयें तो हम रोयें किससे
अपनों के हम पर जुलम हुए।।
एक मसीहा वो बन गए
इस नादां दिल में थम गए।।
दूरी भी कभी प्यार बढ़ाय
ये सिद्धांत हमें जम गए ।।
जाल बने यहाँ बेमिसाल
डरो नही तुम करो कमाल।।
जलाओ चराग प्रेम का तुम
मिलेगा 'शिवम' उर से ताल।।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 28/01/2029
विषय - जाल
द्वितीय प्रस्तुति
मेरी शराफत की तुम टोह लेते हो
आँखों आँखों में तुम मोह लेते हो ।।
ये कौन तरीका इजाद किया तुमने
पहले जाल फेंकते फिर दोष देते हो ।।
खैर इसे तुम्हारी फ़ितरत कहेंगे
हम इसे अपनी मुसर्रत कहेंगे ।।
चलो अच्छा है हम स्वत: फसते हैं
तुम्हें हैरां देख हम हैरां रहेंगे ।।
तुम्हारी नज़ाकत भरी ये अदायें
क्यों नहि भला हमारा चैन चुरायें ।।
बहर-हाल हम बच भी जायें तो भी
बाद में हम बेइंतहा छटपटायें ।।
चलो फँसकर के ही छटपटाते हैं
देखते हैं कौन किसे फँसाते हैं ।।
हम तो वो जादूगर हैं 'शिवम' जो
अच्छों अच्छों के आँसू लाते हैं ।।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 28/01/2020
द्वितीय प्रस्तुति
मेरी शराफत की तुम टोह लेते हो
आँखों आँखों में तुम मोह लेते हो ।।
ये कौन तरीका इजाद किया तुमने
पहले जाल फेंकते फिर दोष देते हो ।।
खैर इसे तुम्हारी फ़ितरत कहेंगे
हम इसे अपनी मुसर्रत कहेंगे ।।
चलो अच्छा है हम स्वत: फसते हैं
तुम्हें हैरां देख हम हैरां रहेंगे ।।
तुम्हारी नज़ाकत भरी ये अदायें
क्यों नहि भला हमारा चैन चुरायें ।।
बहर-हाल हम बच भी जायें तो भी
बाद में हम बेइंतहा छटपटायें ।।
चलो फँसकर के ही छटपटाते हैं
देखते हैं कौन किसे फँसाते हैं ।।
हम तो वो जादूगर हैं 'शिवम' जो
अच्छों अच्छों के आँसू लाते हैं ।।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 28/01/2020
-*जाल *काव्य
जाल बिछाए बहरुपिए बैठे
हमें इनसे बचकर रहना है।
बहुत बुरी है दुनिया साथी,
सदैव सचेत यहां रहना है।
कैसे कपटी कुचाली बड़े हैं।
सारे मिलकर यहीं खड़े हैं।
बुनते रहते जाल सभी यहां,
करने देश बरवाद पड़े हैं।
अभी रोक लो रोक सको तो,
वरना हम सभी पछताएंगे।
भारतवासी इनके जालों में,
फंस फंस कर ही मर जाएंगे।
जयचंदो की कमी नहीं यहां,
ये कुकुरमुत्तों से उगे हुऐ।
आस्तीनों में सांप पले जो,
हम सबको डसने बड़े हुऐ।
ध्यान रखें हम सबही अपना,
नहीं कुत्सित बातों में आऐं।
जाल बिछाऐ हैं जो शिकारी,
नहीं उनके झांसों में आऐं।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना, गुना म प्र
जाल बिछाए बहरुपिए बैठे
हमें इनसे बचकर रहना है।
बहुत बुरी है दुनिया साथी,
सदैव सचेत यहां रहना है।
कैसे कपटी कुचाली बड़े हैं।
सारे मिलकर यहीं खड़े हैं।
बुनते रहते जाल सभी यहां,
करने देश बरवाद पड़े हैं।
अभी रोक लो रोक सको तो,
वरना हम सभी पछताएंगे।
भारतवासी इनके जालों में,
फंस फंस कर ही मर जाएंगे।
जयचंदो की कमी नहीं यहां,
ये कुकुरमुत्तों से उगे हुऐ।
आस्तीनों में सांप पले जो,
हम सबको डसने बड़े हुऐ।
ध्यान रखें हम सबही अपना,
नहीं कुत्सित बातों में आऐं।
जाल बिछाऐ हैं जो शिकारी,
नहीं उनके झांसों में आऐं।
स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना, गुना म प्र
विषय : जाल
विधा : कविता
तिथि : 27.01. 2020
संसार भ्रमजाल
जीवन जंजाल
फिर भी रहना है खुश
इसी में है कमाल।
सब का एक ही हाल
छटपटाते
करते धमाल
ऐसा ही है काल।
हाल हैं बेहाल
भटके भटके ख्याल
कैसे हो संभाल
मचा है बवाल।
टूटे न भ्रमजाल
कीचड़ का ताल
खिलाओ कमल
यही उत्तम चाल।
-- रीता ग्रोवर
--स्वरचित
विधा : कविता
तिथि : 27.01. 2020
संसार भ्रमजाल
जीवन जंजाल
फिर भी रहना है खुश
इसी में है कमाल।
सब का एक ही हाल
छटपटाते
करते धमाल
ऐसा ही है काल।
हाल हैं बेहाल
भटके भटके ख्याल
कैसे हो संभाल
मचा है बवाल।
टूटे न भ्रमजाल
कीचड़ का ताल
खिलाओ कमल
यही उत्तम चाल।
-- रीता ग्रोवर
--स्वरचित
दिनांक- 28/01/2020
विषय- "जाल"
विधा- छंदमुक्त कविता
******************
हर पांच साल बाद आते नेता,
पूँछने को जनता का हाल,
मीठी-मीठी बातें करते हैं,
बुन लेते हैं शब्द- जाल |
काम तो कहां ये करते हैं,
झोली अपनी ही भरते हैं,
हो जाते फिर मालामाल,
बस छोड़ देते शब्द- जाल |
सड़कों के गड्ढे नहीं भरते,
कोठी अपनी करते तैयार,
पांच साल में सात पुस्तों का,
खजाना अपना करते तैयार |
प्रतिनिधि जिसको भी चुनते,
वो ही हमारे लिए जाल बुनते,
विश्वास कैसे, किसपे करें हम,
मतदान करें, कि न करें हम |
सारे नेता नहीं होते खराब,
राजनीति का गन्दा तालाब,
जहां बिछता है एक जाल,
अच्छे का बुरा होता हाल |
स्वरचित- *संगीता कुकरेती*
विषय- "जाल"
विधा- छंदमुक्त कविता
******************
हर पांच साल बाद आते नेता,
पूँछने को जनता का हाल,
मीठी-मीठी बातें करते हैं,
बुन लेते हैं शब्द- जाल |
काम तो कहां ये करते हैं,
झोली अपनी ही भरते हैं,
हो जाते फिर मालामाल,
बस छोड़ देते शब्द- जाल |
सड़कों के गड्ढे नहीं भरते,
कोठी अपनी करते तैयार,
पांच साल में सात पुस्तों का,
खजाना अपना करते तैयार |
प्रतिनिधि जिसको भी चुनते,
वो ही हमारे लिए जाल बुनते,
विश्वास कैसे, किसपे करें हम,
मतदान करें, कि न करें हम |
सारे नेता नहीं होते खराब,
राजनीति का गन्दा तालाब,
जहां बिछता है एक जाल,
अच्छे का बुरा होता हाल |
स्वरचित- *संगीता कुकरेती*
🌹 जाल 🌹
समांत- अर , पदांत- है
☀☀☀☀☀☀☀☀☀
मुखौटे ओढ़ कर चलने का अब घोर असर है ।
कसीदे टाँक कर छलने , जालसाजी डगर है ।।
यहाँ हर शाख पर बैठे मिलें बहुरूपिये भी ,
कहाँ कब कौन देदे मात , यह किसको खबर है ।
दिली संवेदना को टाँग कर खूँटी चलें जब ,
है मानवता यहाँ घायल , बेशुमार कहर है ।
नशा जब स्वार्थ का चढ़ बोलता सिर बैठ के तो ,
नजर आता नहीं इंसान , रंगीला सफर है ।
भूख सत्ता व धन की हो गयी हाबी दिलों में ,
जाले बुनते , पानी आँख का गिर शून्य पर है ।।
🌺🌴💧🌷🌻🌸
🌴☀**...रवीन्द्र वर्मा आगरा
समांत- अर , पदांत- है
☀☀☀☀☀☀☀☀☀
मुखौटे ओढ़ कर चलने का अब घोर असर है ।
कसीदे टाँक कर छलने , जालसाजी डगर है ।।
यहाँ हर शाख पर बैठे मिलें बहुरूपिये भी ,
कहाँ कब कौन देदे मात , यह किसको खबर है ।
दिली संवेदना को टाँग कर खूँटी चलें जब ,
है मानवता यहाँ घायल , बेशुमार कहर है ।
नशा जब स्वार्थ का चढ़ बोलता सिर बैठ के तो ,
नजर आता नहीं इंसान , रंगीला सफर है ।
भूख सत्ता व धन की हो गयी हाबी दिलों में ,
जाले बुनते , पानी आँख का गिर शून्य पर है ।।
🌺🌴💧🌷🌻🌸
🌴☀**...रवीन्द्र वर्मा आगरा
दिनांक-28/01/2020
विषय-जाल
बिछा हुआ है जाल रश्मि का
छंद लिखे कितने कवियों ने
नयन ,अंजन ,मुख गालों पे
क्यों रुदन नहीं लिख पाए
जलते पांव के छालों पे।
घुंघरू ठुमको तालो पे।
प्रीति के बादल है घिनौने
रात दिन के उजालों पे।
रीति के पनघट सूने हैं
मन मती के कालो पे।
नागफनी की गलियों में
मद मे चूर चाल चले तरुणाई
जाल फेंक कर घर अंगना में
सांप के आस्तीन ने सेंध लगाई
झूठे वादे करने वालों से
हर आंगन की तुलसी कुंम्हलाई।
गुमसुम सी घर की लगती चौपाले
अंतः करण में मच जाता भूचालें।
लक्ष्मण रेखा के अंदर स्वप्न के बंधन
पछुआ ने दर्द दिया पुरवा करे क्रंदन
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज
विषय-जाल
बिछा हुआ है जाल रश्मि का
छंद लिखे कितने कवियों ने
नयन ,अंजन ,मुख गालों पे
क्यों रुदन नहीं लिख पाए
जलते पांव के छालों पे।
घुंघरू ठुमको तालो पे।
प्रीति के बादल है घिनौने
रात दिन के उजालों पे।
रीति के पनघट सूने हैं
मन मती के कालो पे।
नागफनी की गलियों में
मद मे चूर चाल चले तरुणाई
जाल फेंक कर घर अंगना में
सांप के आस्तीन ने सेंध लगाई
झूठे वादे करने वालों से
हर आंगन की तुलसी कुंम्हलाई।
गुमसुम सी घर की लगती चौपाले
अंतः करण में मच जाता भूचालें।
लक्ष्मण रेखा के अंदर स्वप्न के बंधन
पछुआ ने दर्द दिया पुरवा करे क्रंदन
मौलिक रचना
सत्य प्रकाश सिंह
प्रयागराज
शीर्षक --जाल
दिनांक--28.1.2020
विधा --दोहा मुक्तक
1.
जीवन भर बुनते रहे, अपराधों के जाल ।
जीना हो जाता कठिन, होंय हाल बेहाल ।
कुदरत सीधी है सरल, सहज चाहती कर्म---
सहज सूत्र जो सीखते, बनते वही मिसाल।
2.
अपराधी को पकड़ना, पड़े बिछाना जाल ।
जल में मछली के लिए, बने जाल ही काल।
अगर किसी को फाँसना, जाल एक हथियार ---
जाल बिछाकर भी कई, हो जाते मालामाल।
******स्वरचित **********
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
दिनांक--28.1.2020
विधा --दोहा मुक्तक
1.
जीवन भर बुनते रहे, अपराधों के जाल ।
जीना हो जाता कठिन, होंय हाल बेहाल ।
कुदरत सीधी है सरल, सहज चाहती कर्म---
सहज सूत्र जो सीखते, बनते वही मिसाल।
2.
अपराधी को पकड़ना, पड़े बिछाना जाल ।
जल में मछली के लिए, बने जाल ही काल।
अगर किसी को फाँसना, जाल एक हथियार ---
जाल बिछाकर भी कई, हो जाते मालामाल।
******स्वरचित **********
प्रबोध मिश्र 'हितैषी'
भावो के मोती
28/1/20
विषय जाल
देखा है मैंने
मकड़े को
बड़ी तल्लीनता से
जाल को बुनते हुए
कितनी बारीकियों से
जाल को सजाते हुए
अपने षड्यंत्र में
औरो को फसाते हुए
उनको अपना शिकार
बनाते हुए
शातिर दिमाग से
खुद का स्वार्थ बनाते हुए
इंसान भी चल रहा
मकडे की तरह चाल
चाहे हो आतंकवाद
या फिर भ्रष्टाचार
जीवन से कर रहा
षड्यंत्रों का कारोबार
मानवता को भूल चुका
सीख गया माया जाल
स्वरचित
मीना तिवारी
28/1/20
विषय जाल
देखा है मैंने
मकड़े को
बड़ी तल्लीनता से
जाल को बुनते हुए
कितनी बारीकियों से
जाल को सजाते हुए
अपने षड्यंत्र में
औरो को फसाते हुए
उनको अपना शिकार
बनाते हुए
शातिर दिमाग से
खुद का स्वार्थ बनाते हुए
इंसान भी चल रहा
मकडे की तरह चाल
चाहे हो आतंकवाद
या फिर भ्रष्टाचार
जीवन से कर रहा
षड्यंत्रों का कारोबार
मानवता को भूल चुका
सीख गया माया जाल
स्वरचित
मीना तिवारी
भावों के मोती।
स्वरचित।
विषय-जाल।
फैलने लगा हर तरफ़
सूर्य की किरणों का जाल।
जा रहा है शीत अब
ले के तीर से चुभते
ठंडे प्रलाप।।
जान सी है आ रही
जमे हुए प्राणों में अब।
तपिश ने दिया मानो
सांसों को प्राणदान है।।
पतझड़ के दिन गये
आ रहा बसन्त अब।
नव अंकुर,नवीन पल्लव
विकसित होती नवीन कलियां।
नव-नव विहान गाते खग
चहचहाती मृदु बोलियां
रंग-बिरंगी तितलियां
आने लगे,भ्रमर भी
रस-गंध के मोह में।।
प्रीति शर्मा" पूर्णिमा"
28/01/2020
स्वरचित।
विषय-जाल।
फैलने लगा हर तरफ़
सूर्य की किरणों का जाल।
जा रहा है शीत अब
ले के तीर से चुभते
ठंडे प्रलाप।।
जान सी है आ रही
जमे हुए प्राणों में अब।
तपिश ने दिया मानो
सांसों को प्राणदान है।।
पतझड़ के दिन गये
आ रहा बसन्त अब।
नव अंकुर,नवीन पल्लव
विकसित होती नवीन कलियां।
नव-नव विहान गाते खग
चहचहाती मृदु बोलियां
रंग-बिरंगी तितलियां
आने लगे,भ्रमर भी
रस-गंध के मोह में।।
प्रीति शर्मा" पूर्णिमा"
28/01/2020
भावों के मोती
विषय--जाल
________________
फिके पासे चले थे दाँव
जुए में हारा था सम्मान
फँसे सब जाल में ऐसे
निकलें तो किधर कैसे
लगा दी दाँव पे नारी
बने सभी अत्याचारी
दुशासन हाथ में सौंपी
जुए में हारकर नारी
बँधे वचनों से थे बैठे
पितामह पलकों को मूँदे
पकड़ केशों को खींची थी
बेचारी नार अबला थी
पुकारा जार-जार रोकर
हवाला रिश्तों का देकर
बँधी आँखो में पट्टी थी
रोती सभा में द्रोपदी थी
सुनो विनती चले आना
भरोसा तुमपे अब कान्हा
यहाँ बैरी बने हैं अपने
टूटकर बिखर गए सपने
बढ़ाया चीर कृष्णा ने
निभाया सच्चा था रिश्ता
छल के जाल में फँसी
पांडवो की मर्यादा
चले कई दाँव दुर्योधन ने
कोई भी काम न आया
महाभारत युद्ध भयंकर था
भाई के समक्ष खड़ा भाई
धर्म का मार्ग जो रोका
बने फिर सारथी कान्हा
जिताकर युद्ध पांडवों को
कर्म की राह सिखलाई।
अनुराधा चौहान स्वरचित
विषय--जाल
________________
फिके पासे चले थे दाँव
जुए में हारा था सम्मान
फँसे सब जाल में ऐसे
निकलें तो किधर कैसे
लगा दी दाँव पे नारी
बने सभी अत्याचारी
दुशासन हाथ में सौंपी
जुए में हारकर नारी
बँधे वचनों से थे बैठे
पितामह पलकों को मूँदे
पकड़ केशों को खींची थी
बेचारी नार अबला थी
पुकारा जार-जार रोकर
हवाला रिश्तों का देकर
बँधी आँखो में पट्टी थी
रोती सभा में द्रोपदी थी
सुनो विनती चले आना
भरोसा तुमपे अब कान्हा
यहाँ बैरी बने हैं अपने
टूटकर बिखर गए सपने
बढ़ाया चीर कृष्णा ने
निभाया सच्चा था रिश्ता
छल के जाल में फँसी
पांडवो की मर्यादा
चले कई दाँव दुर्योधन ने
कोई भी काम न आया
महाभारत युद्ध भयंकर था
भाई के समक्ष खड़ा भाई
धर्म का मार्ग जो रोका
बने फिर सारथी कान्हा
जिताकर युद्ध पांडवों को
कर्म की राह सिखलाई।
अनुराधा चौहान स्वरचित
विषय -जाल
दिनांक २८-१-२०२०मोह माया के जाल में,फंस रहा आदमी।
अपने ही कर्मों की सजा,पा रहा आदमी।
अनजान डगर चल,राह भटक रहा आदमी।
अपने ही बुने जाल में,फंस रहा आदमी।
नकाब चेहरे,अपनों को छल रहा आदमी।
समय नजाकत,नहीं पहचान रहा आदमी।
हकीकत जिंदगी,स्वीकार नहीं रहा आदमी।
भ्रम जंजाल बाहर,नहीं आ रहा आदमी।
जो आया वो जाएगा,यह भूल रहा आदमी।
हकीकत नकार,गलत कर्म कर रहा आदमी।
अंत समय करीब देख,माफी मांग रहा आदमी।
कहती वीणा,प्रभु चरण ठौर बना रहा आदमी।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
दिनांक २८-१-२०२०मोह माया के जाल में,फंस रहा आदमी।
अपने ही कर्मों की सजा,पा रहा आदमी।
अनजान डगर चल,राह भटक रहा आदमी।
अपने ही बुने जाल में,फंस रहा आदमी।
नकाब चेहरे,अपनों को छल रहा आदमी।
समय नजाकत,नहीं पहचान रहा आदमी।
हकीकत जिंदगी,स्वीकार नहीं रहा आदमी।
भ्रम जंजाल बाहर,नहीं आ रहा आदमी।
जो आया वो जाएगा,यह भूल रहा आदमी।
हकीकत नकार,गलत कर्म कर रहा आदमी।
अंत समय करीब देख,माफी मांग रहा आदमी।
कहती वीणा,प्रभु चरण ठौर बना रहा आदमी।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
शीर्षकः- जाल
चली जाती हैं शतरंज में चतुर एकचाल।
बादशाह को फंसाने को बुनते हैं जाल।।
परिन्दों फंसाने को सैयाद लगाये जाल।
फंस कर परिन्दे हो जाते उसमे बेहाल।।
शत्रु भी लगाते थे शत्रु को फंसाने जाल।
बन जाता था वह ही उसके लिये काल।।
पहुँचा आदमी चाँद पर बदल गया काल।
बुनने लगे हैं अपने अपनो के लिये जाल।।
डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
स्वरचित
चली जाती हैं शतरंज में चतुर एकचाल।
बादशाह को फंसाने को बुनते हैं जाल।।
परिन्दों फंसाने को सैयाद लगाये जाल।
फंस कर परिन्दे हो जाते उसमे बेहाल।।
शत्रु भी लगाते थे शत्रु को फंसाने जाल।
बन जाता था वह ही उसके लिये काल।।
पहुँचा आदमी चाँद पर बदल गया काल।
बुनने लगे हैं अपने अपनो के लिये जाल।।
डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
“व्यथित हृदय मुरादाबादी”
स्वरचित
दिनांक_२८/१/२०२०
शीर्षक-"जाल"
जाल है, जंजाल है
जो भी है, जीवन बेमिसाल है
कसक है, पुरस्कार है,
जीवन लाजवाब है।
एक एक कदम जीवन
जाल सामान है
जाल से निकलना नही,
आसान है।
जाल के धागे में उलझा
हर इंसान है
माया है रिश्ते,नाते
माया सब व्यवहार है।
क्योंकि, जीवन तो मायाजाल है।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव
शीर्षक-"जाल"
जाल है, जंजाल है
जो भी है, जीवन बेमिसाल है
कसक है, पुरस्कार है,
जीवन लाजवाब है।
एक एक कदम जीवन
जाल सामान है
जाल से निकलना नही,
आसान है।
जाल के धागे में उलझा
हर इंसान है
माया है रिश्ते,नाते
माया सब व्यवहार है।
क्योंकि, जीवन तो मायाजाल है।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव
दिनांक-28/01/2020
विषय-जाल
विधा-छंदमुक्त
कविता
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी नाल में
केंचुये की लालच में
फंसी मछली मछुआरे के जाल में
देखा है सबने नजारा पोखर नदी ताल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी नाल में ।
विवेक लालच से खो सा जाता है
मौत हो जब कोई भी दवा खा जाता है
बच्चा बिगड़ जाता है जाके ननिहाल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।
फंसते है भोले भाले नजरों के जादू से
लोग ठग भी जाते है आशिर्वाद में नकली साधु से
शुद्ध संत करते स्नान बहुत प्रातः काल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।
सस्ता का मोह दिखा के लूट रहे ब्यापारी
झूठी शान बघारते फिर कहते दिल से आभारी
लोग मेहनत की कमाई गंवाते
झूठे मायाजाल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।
खेल खेल में की बहुत होशियारी
ताव में आके खुद को गोली मारी
बहुत से जान गवा दिये झूठे कमाल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।
बहुत हुये फेल परीक्षा में क्रिकेट
की खुमारी से
बहुत से छोड़े परीक्षा रोग की
बीमारी से
लूट गयी लुटिया कई छात्रों की
क्रिकेट बाल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।।
उमाकान्त यादव उमंग
विषय-जाल
विधा-छंदमुक्त
कविता
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी नाल में
केंचुये की लालच में
फंसी मछली मछुआरे के जाल में
देखा है सबने नजारा पोखर नदी ताल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी नाल में ।
विवेक लालच से खो सा जाता है
मौत हो जब कोई भी दवा खा जाता है
बच्चा बिगड़ जाता है जाके ननिहाल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।
फंसते है भोले भाले नजरों के जादू से
लोग ठग भी जाते है आशिर्वाद में नकली साधु से
शुद्ध संत करते स्नान बहुत प्रातः काल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।
सस्ता का मोह दिखा के लूट रहे ब्यापारी
झूठी शान बघारते फिर कहते दिल से आभारी
लोग मेहनत की कमाई गंवाते
झूठे मायाजाल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।
खेल खेल में की बहुत होशियारी
ताव में आके खुद को गोली मारी
बहुत से जान गवा दिये झूठे कमाल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।
बहुत हुये फेल परीक्षा में क्रिकेट
की खुमारी से
बहुत से छोड़े परीक्षा रोग की
बीमारी से
लूट गयी लुटिया कई छात्रों की
क्रिकेट बाल में
मुंडा सोड़ा लागे जब सुंदर कुड़ी
नाल में।।
उमाकान्त यादव उमंग
विषय जाल
29/1/2020
विधा छंदमुक्त
जाल ही जाल है
हर गली हर मोड़ पर
जाल साज ख़्वाब है
इधर बचो, उधर बचो
हर ओर चल रहे दांव है
परेशान हाल है
फ़रेब के ही जाल हैं।
सुबह हुई शाम ढली
धुंध का ही राज है
थकी थकी निगाह में
बुझे बुझे चिराग हैं
मन हो रहा बेहाल है
फरेब के ही जाल है ।
सूर्य रंग खो रहा
धरा हो रही बेताब है
हवा परेशान हाल है
जर्रे जर्रे में गूंजता तूफान है
अजब दास्तान ए हाल है
फरेब का ही जाल है ।
मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित
29/1/2020
विधा छंदमुक्त
जाल ही जाल है
हर गली हर मोड़ पर
जाल साज ख़्वाब है
इधर बचो, उधर बचो
हर ओर चल रहे दांव है
परेशान हाल है
फ़रेब के ही जाल हैं।
सुबह हुई शाम ढली
धुंध का ही राज है
थकी थकी निगाह में
बुझे बुझे चिराग हैं
मन हो रहा बेहाल है
फरेब के ही जाल है ।
सूर्य रंग खो रहा
धरा हो रही बेताब है
हवा परेशान हाल है
जर्रे जर्रे में गूंजता तूफान है
अजब दास्तान ए हाल है
फरेब का ही जाल है ।
मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित
विषय-जाल
विधा-मुक्त
दिनांक--28 /01 /2020
इंसान की फितरत भी
हो गई मकड़ी-सी
बुनती है जाल बड़े प्यार से
अपनी ही लार से
फंसाती है लार्वा में कीट-पतंग
ठीक ऐसे ही इंसान भी बुनता है
अक्षरों का मकड़जाल और
फांसता है शब्दों में इंसान को ही।
डा.नीलम
विधा-मुक्त
दिनांक--28 /01 /2020
इंसान की फितरत भी
हो गई मकड़ी-सी
बुनती है जाल बड़े प्यार से
अपनी ही लार से
फंसाती है लार्वा में कीट-पतंग
ठीक ऐसे ही इंसान भी बुनता है
अक्षरों का मकड़जाल और
फांसता है शब्दों में इंसान को ही।
डा.नीलम
जाल
इन्सान फंसा
माया जाल में
न नेक ईमान है
न संस्कार संस्कृति
लूट खसोट का है
बोलवाला
बुनता है जाल
फ॔साने दूसरों को
और खुद ही
फंसता जाता
जाल में
जाल फेंकता
शिकारी जंगल में
फंसाने पंछी
एक साथ
लगा ताकत
उड़ जाते
जाल सहित
रहें सब
एकता,भाईचारे से
कामयाब नहीं होगे
दुश्मन के जाल
रहें घर में
प्रेम भाव से
जाल न दें
बिछाने किसी
और को
रहेगा सुखी
समृद्ध परिवार
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
इन्सान फंसा
माया जाल में
न नेक ईमान है
न संस्कार संस्कृति
लूट खसोट का है
बोलवाला
बुनता है जाल
फ॔साने दूसरों को
और खुद ही
फंसता जाता
जाल में
जाल फेंकता
शिकारी जंगल में
फंसाने पंछी
एक साथ
लगा ताकत
उड़ जाते
जाल सहित
रहें सब
एकता,भाईचारे से
कामयाब नहीं होगे
दुश्मन के जाल
रहें घर में
प्रेम भाव से
जाल न दें
बिछाने किसी
और को
रहेगा सुखी
समृद्ध परिवार
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
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