ब्लॉग की रचनाएँसर्वाधिकार सुरक्षित हैं बिना लेखक की स्वीकृति के रचना को कहीं भी साझा नहीं करें
ब्लॉग संख्या :-628
।। क्या कहुँ ।।
पल भर में संभाले उन लम्हों से क्या कहुँ
पल भर में तराशी उस कश्ती से क्या कहुँ
बस! खफा हु तो इस दुनिया से
तो फिर उस रब से क्या कहुँ।
दुनिया देखी इन नोकाओं में बैठकर
सड़क किनारे तो तसल्ली मिली है
मन की तो मन में रह गयी है
तो फिर इस जहाँ से क्या कहुँ।
मुलाकात रोज होती थी आवेश में आकर
बात तो रोज होती थी गणवेश में आकर
कालिमा तो रोज रात में आती थी
तो फिर इन चाँद-तारो से क्या कहुँ।
घने कोहरे में धुंध की छठा छायी थी
आँखो पर तो पट्टी बंधी पायी थी
अधूरी धुरी की तो करामात जानी थी
तो फिर इस पूरी धुरी से क्या कहुँ।
भाविक भावी
पल भर में संभाले उन लम्हों से क्या कहुँ
पल भर में तराशी उस कश्ती से क्या कहुँ
बस! खफा हु तो इस दुनिया से
तो फिर उस रब से क्या कहुँ।
दुनिया देखी इन नोकाओं में बैठकर
सड़क किनारे तो तसल्ली मिली है
मन की तो मन में रह गयी है
तो फिर इस जहाँ से क्या कहुँ।
मुलाकात रोज होती थी आवेश में आकर
बात तो रोज होती थी गणवेश में आकर
कालिमा तो रोज रात में आती थी
तो फिर इन चाँद-तारो से क्या कहुँ।
घने कोहरे में धुंध की छठा छायी थी
आँखो पर तो पट्टी बंधी पायी थी
अधूरी धुरी की तो करामात जानी थी
तो फिर इस पूरी धुरी से क्या कहुँ।
भाविक भावी
विषय तट,किनारा
विधा काव्य
17 जनवरी 2020,शुक्रवार
जलनिधि की विशाल तरंगे
देख देख मन अति हर्षित ।
कैसे मिले संसृति किनारा
हिय हमारा अति उद्वेलित ।
जो बैठे हैं हाथ बांध निज
नहीं मिलता है कभी किनारा।
दिल खोलकर कूद पड़े जो
मिलता उन्हें सर्वेश सहारा।
निष्फल करते कर्म जगत में
अनवरत मिलता उन्हें किनारा।
खून पसीना बहाना पड़े नित
फिर लक्ष्य सही लगे निशाना।
दूर क्षितिज पर होती मंजिल
सहज नहीं है इसको पाना।
जान हाथ हथेली लेकर चलता
वह नर निश्चित मंजिल पाता।
कर्महीन कई मानव तट पर
बैठे लहरों की गिनती करते।
कर्मवीर जल थाह में जाकर
खाली झोली भरकर निकले।
स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विधा काव्य
17 जनवरी 2020,शुक्रवार
जलनिधि की विशाल तरंगे
देख देख मन अति हर्षित ।
कैसे मिले संसृति किनारा
हिय हमारा अति उद्वेलित ।
जो बैठे हैं हाथ बांध निज
नहीं मिलता है कभी किनारा।
दिल खोलकर कूद पड़े जो
मिलता उन्हें सर्वेश सहारा।
निष्फल करते कर्म जगत में
अनवरत मिलता उन्हें किनारा।
खून पसीना बहाना पड़े नित
फिर लक्ष्य सही लगे निशाना।
दूर क्षितिज पर होती मंजिल
सहज नहीं है इसको पाना।
जान हाथ हथेली लेकर चलता
वह नर निश्चित मंजिल पाता।
कर्महीन कई मानव तट पर
बैठे लहरों की गिनती करते।
कर्मवीर जल थाह में जाकर
खाली झोली भरकर निकले।
स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
दिनांक-१७/०१/२०२०
आज का शीर्षक-*तट/किनारा*
विधा-रचना
===================
किस्मत पै मेरा अधिकार नहीं
तुम भले तअ़ल्लुक मत जोड़ो।
लेकिन तट तक आ जाने दो
मँझधार में कश्ती मत छोड़ो।।-किनारा दूर नहीं ।
••••••••••••••••••••••••••••
राहों में क़दम थर्राते हैं
कोहे तूर बढ़ाता है हिम्मत
क़दमों से कहो सुस्तायें नहीं
पैरों के फफोले मत फोड़ो ।।-नजारा दूर नहीं ।
•••••••••••••••••••••••••••••
हर हाल में रंग दिखाती है
जो आस मुकम्मल होती है
तुम दीद ए तर मत होने दो
चेहरे से निगाहें मत मोड़ो ।।-इशारा दूर नहीं ।
•••••••••••••••••••••••••••••
आई है निशा ढल जाएगी
ढलने की ख़बर देने के लिए
वह प्रात से पहले आएगा
तुम धीरज अपना मत तोड़ो।।-सितारा दूर नहीं ।
=====================
'अ़क्स' दौनेरिया
आज का शीर्षक-*तट/किनारा*
विधा-रचना
===================
किस्मत पै मेरा अधिकार नहीं
तुम भले तअ़ल्लुक मत जोड़ो।
लेकिन तट तक आ जाने दो
मँझधार में कश्ती मत छोड़ो।।-किनारा दूर नहीं ।
••••••••••••••••••••••••••••
राहों में क़दम थर्राते हैं
कोहे तूर बढ़ाता है हिम्मत
क़दमों से कहो सुस्तायें नहीं
पैरों के फफोले मत फोड़ो ।।-नजारा दूर नहीं ।
•••••••••••••••••••••••••••••
हर हाल में रंग दिखाती है
जो आस मुकम्मल होती है
तुम दीद ए तर मत होने दो
चेहरे से निगाहें मत मोड़ो ।।-इशारा दूर नहीं ।
•••••••••••••••••••••••••••••
आई है निशा ढल जाएगी
ढलने की ख़बर देने के लिए
वह प्रात से पहले आएगा
तुम धीरज अपना मत तोड़ो।।-सितारा दूर नहीं ।
=====================
'अ़क्स' दौनेरिया
किनारा
समंदर का किनारा,
कहता हैं लहरॊ से ।
" हे समंदर की लहरों,
तुम्हारी शक्ति का,
भरती हो दम ।
हर किसी को,
समझती हो कम ।
लेकिन,
मेरे सामने,
अाते ही हो ,
हो जाती हो नम ।"
लहरे बोली,
"शक्ति होते हुए,
नहीं उसका अहसास ।
सीमा के भीतर,
रहने का प्रयास ।
जीस दिन,
यह अहसास,
खत्म हो जाएगा ।
चारों तरफ,
प्रलय अाएगा ।
तू तो क्या?
सारी धरती का,
निशान मीट जाएगा ।
X प्रदीप सहारे
समंदर का किनारा,
कहता हैं लहरॊ से ।
" हे समंदर की लहरों,
तुम्हारी शक्ति का,
भरती हो दम ।
हर किसी को,
समझती हो कम ।
लेकिन,
मेरे सामने,
अाते ही हो ,
हो जाती हो नम ।"
लहरे बोली,
"शक्ति होते हुए,
नहीं उसका अहसास ।
सीमा के भीतर,
रहने का प्रयास ।
जीस दिन,
यह अहसास,
खत्म हो जाएगा ।
चारों तरफ,
प्रलय अाएगा ।
तू तो क्या?
सारी धरती का,
निशान मीट जाएगा ।
X प्रदीप सहारे
जख्म कसम में बाधक कैसे
जख्म कसम में बाधक कैसे?
देख नहीं मैं डर जाऊंगा ,
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
फर्ज करें फरियाद आज ये ,
सिर पर है सरहद का कर्जा।
जब तक इसे निभा न दूँगा ,
कैसे मिले शहीद का दर्जा ?
बेशक हाथ पैर कट जाएँ ,
फिर भी सागर तर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
नज़र टिकी दुश्मन चौकी पे,
जहाँ तिरंगा झंडा होगा।
एक हाथ से गोली दागूँ ,
दूजे परचम डण्डा होगा।।
जुनून जवानों के हृदय में ,
ठोक -ठोककर भर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
गिर पैरों में दर्द पुकारे ,
मैं पीघलूँगा न अर्जी से ।
तूफान तरु पर दया करे न,
वह रुकता अपनी मर्जी से।।
धड़कन धड़के ,नाड़ी फड़के,
कैसे कहो पसर जाऊंगा ?
काम अधूरे बाकी काफी,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ।।
हिंदुस्तान के दिल के ऊपर ,
मुझे अभी छाना है बाकी।
पहले पेज छपी फोटो पर ,
सबको हर्षाना है बाकी ।।
देश दुनिया में मां -बाप का ,
नाम अमर मैं कर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
जख्म कसम में बाधक कैसे?
देख नहीं मैं डर जाऊंगा ,
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
फर्ज करें फरियाद आज ये ,
सिर पर है सरहद का कर्जा।
जब तक इसे निभा न दूँगा ,
कैसे मिले शहीद का दर्जा ?
बेशक हाथ पैर कट जाएँ ,
फिर भी सागर तर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
नज़र टिकी दुश्मन चौकी पे,
जहाँ तिरंगा झंडा होगा।
एक हाथ से गोली दागूँ ,
दूजे परचम डण्डा होगा।।
जुनून जवानों के हृदय में ,
ठोक -ठोककर भर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी ,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
गिर पैरों में दर्द पुकारे ,
मैं पीघलूँगा न अर्जी से ।
तूफान तरु पर दया करे न,
वह रुकता अपनी मर्जी से।।
धड़कन धड़के ,नाड़ी फड़के,
कैसे कहो पसर जाऊंगा ?
काम अधूरे बाकी काफी,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ।।
हिंदुस्तान के दिल के ऊपर ,
मुझे अभी छाना है बाकी।
पहले पेज छपी फोटो पर ,
सबको हर्षाना है बाकी ।।
देश दुनिया में मां -बाप का ,
नाम अमर मैं कर जाऊंगा ।
काम अधूरे बाकी काफी,
ऐसे कैसे मर जाऊंगा ?
नफे सिंह योगी मालड़ा ©
किनारा/तट
नमन मंच भावों के मोती समूह।गुरूजनों, मित्रों।
काव्य लेखन
मेरी नैया मंझधार फंसी है,
भगवन पार लगाओ।
तट पर मुझे पहुंचाओ।
ना कोई मेरा तेरे सिवा है।
स्वार्थी जनों से संसार भरा है।
बस एक तुम हो मेरा सहारा।
नैया भरोसे तेरे छोड़ा है।
लहर जोरों की जो है आई।
डगमगाने लगी नैया,
अब तुम्हीं इसे संभालो।
तट पर मुझे पहुंचाओ।
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित
नमन मंच भावों के मोती समूह।गुरूजनों, मित्रों।
काव्य लेखन
मेरी नैया मंझधार फंसी है,
भगवन पार लगाओ।
तट पर मुझे पहुंचाओ।
ना कोई मेरा तेरे सिवा है।
स्वार्थी जनों से संसार भरा है।
बस एक तुम हो मेरा सहारा।
नैया भरोसे तेरे छोड़ा है।
लहर जोरों की जो है आई।
डगमगाने लगी नैया,
अब तुम्हीं इसे संभालो।
तट पर मुझे पहुंचाओ।
वीणा झा
बोकारो स्टील सिटी
स्वरचित
उडती हुई रंगत हूँ और खामोश नजारा हूँ,
मै तब भी तुम्हारा था मै अब भी तुम्हारा हूँ।
नयी नयी रवानी थी हर रोज़ ही कहानी थी,
सबसे छुपानी थी कुछ तुम को सुनानी थी।
समझा नहीं जिसे तुमने मै ही वो इशारा हूँ,
मै तब भी तुम्हारा था मै अब भी तुम्हारा हूँ।
उठती हुई मौजे थी क्या खूब जवानी थी,
क्या खूब समन्दर था क्या खूब रवानी थी।
तरसा था जो बूंदों को वही एक किनारा हूँ,
मै तब भी तुम्हारा था मै अब भी तुम्हारा हूँ।
अपनी ही खताओं से मैं रोज ही मिलता हूँ,
हर शाम सुलगता हूँ हर रात मै जलता हूँ।
आजाओ हवा बनके धुआँ होके पुकारा हूँ,
मैं तब भी तुम्हारा था मै अब भी तुम्हारा हूँ।
विपिन सोहल। स्वरचित
मै तब भी तुम्हारा था मै अब भी तुम्हारा हूँ।
नयी नयी रवानी थी हर रोज़ ही कहानी थी,
सबसे छुपानी थी कुछ तुम को सुनानी थी।
समझा नहीं जिसे तुमने मै ही वो इशारा हूँ,
मै तब भी तुम्हारा था मै अब भी तुम्हारा हूँ।
उठती हुई मौजे थी क्या खूब जवानी थी,
क्या खूब समन्दर था क्या खूब रवानी थी।
तरसा था जो बूंदों को वही एक किनारा हूँ,
मै तब भी तुम्हारा था मै अब भी तुम्हारा हूँ।
अपनी ही खताओं से मैं रोज ही मिलता हूँ,
हर शाम सुलगता हूँ हर रात मै जलता हूँ।
आजाओ हवा बनके धुआँ होके पुकारा हूँ,
मैं तब भी तुम्हारा था मै अब भी तुम्हारा हूँ।
विपिन सोहल। स्वरचित
तिथि -17/1/2020/शुक्रवार
विषय-* किनारा/तट*
विधा -काव्य
कोई किनारा दिखता नहीं है।
भगवन हमारी सुनता नहीं है।
पतवार कहीं हमें मिले तो,
तन्हाई में तट मिलता नहीं है।
तन्हाईयां मुश्किल भा रही हैं।
हमें बिल्कुल नहीं भा रहीं हैं।
याद हमें यहां उनकी सताती,
पास अपने उन्हें बुला रही हैं।
आजतक हम अकेले पड़े हैं।
कोई नहीं जो समीप खड़े हैं।
तन्हाई से ही रिश्ता बना अब,
क्यों हम यहां मुद्दतों से गड़े हैं।
पाप शायद हमने ही किया है।
तभी किनारा उन्होंने किया है।
जी रहे जैसे भी ये जीवन,
सच तन्हाई से सौदा किया है।
स्वरचित,
इंजी शंभू सिंह रघुवंशी अजेय
मंगलाना , गुना म प्र
विषय-* किनारा/तट*
विधा -काव्य
कोई किनारा दिखता नहीं है।
भगवन हमारी सुनता नहीं है।
पतवार कहीं हमें मिले तो,
तन्हाई में तट मिलता नहीं है।
तन्हाईयां मुश्किल भा रही हैं।
हमें बिल्कुल नहीं भा रहीं हैं।
याद हमें यहां उनकी सताती,
पास अपने उन्हें बुला रही हैं।
आजतक हम अकेले पड़े हैं।
कोई नहीं जो समीप खड़े हैं।
तन्हाई से ही रिश्ता बना अब,
क्यों हम यहां मुद्दतों से गड़े हैं।
पाप शायद हमने ही किया है।
तभी किनारा उन्होंने किया है।
जी रहे जैसे भी ये जीवन,
सच तन्हाई से सौदा किया है।
स्वरचित,
इंजी शंभू सिंह रघुवंशी अजेय
मंगलाना , गुना म प्र
नमन भावों के मोती
शीर्षक- किनारा/तट
प्रथम प्रस्तुति
बैठ किनारे मज़ा न लेते
डूबते को सहारा देते ।।
आ गयी गर नैया किनारे
औरों की भी कभी खेते ।।
बात छोटी है पर बड़ी है
मुसीबत कब कहाँ खड़ी है।।
किनारे भी बह जाते हैं
ये बात क्यों नहीं गढ़ी है।।
हम पर भी कुछ कर्ज होते
हमारे भी कुछ फ़र्ज होते।।
आया कोई भँवर से बचाने
ये अहसां दिल में दर्ज होते।।
हैं किनारे ये उसकी रहम
गया था कभी हवा से सहम।।
कैसे भूल सकता दिल उसे
जिसने तैरना सिखाया 'शिवम'।।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 17/02/2020
शीर्षक- किनारा/तट
प्रथम प्रस्तुति
बैठ किनारे मज़ा न लेते
डूबते को सहारा देते ।।
आ गयी गर नैया किनारे
औरों की भी कभी खेते ।।
बात छोटी है पर बड़ी है
मुसीबत कब कहाँ खड़ी है।।
किनारे भी बह जाते हैं
ये बात क्यों नहीं गढ़ी है।।
हम पर भी कुछ कर्ज होते
हमारे भी कुछ फ़र्ज होते।।
आया कोई भँवर से बचाने
ये अहसां दिल में दर्ज होते।।
हैं किनारे ये उसकी रहम
गया था कभी हवा से सहम।।
कैसे भूल सकता दिल उसे
जिसने तैरना सिखाया 'शिवम'।।
हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 17/02/2020
17-01-2020
*गंतव्य किनारा*
देकर दिल को बहुत दिलासा
मन-जाग्रत विपुल अभिलाषा
निज हाथों में थाम पतवार
संग खे चले बीच मँझधार
उठती जो लहरें लोल लोल
नैया को करती है डांवाडोल
लहरों औ' तूफान को कोसा
शंकित मन को दिया भरोसा
आँक सकी न मनोभावों को
तेरे मन में पलते दुर्भावों को
कहते पल में मिलेगी किनारा
पुलक प्राप्त सान्निध्य तुम्हारा
प्रलोभन में तेरे जो न बहती
ठगी आज भला क्या रहती
पग-पग जो किए इशारा तुम
मुझसे ही किए किनारा तुम
अविरल कलकल जल धारा
रोके कैसे संग कौन सहारा
शक्ति संबल संचित कर सारा
मँझधार के उस पार किनारा
बहुर पाये न कुत्सित मंतव्य
लक्ष्य यही, अब मेरा गंतव्य
लहरों पर ही मुझे चलना है
कुटिल कुत्सा को कुचलना है
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
*गंतव्य किनारा*
देकर दिल को बहुत दिलासा
मन-जाग्रत विपुल अभिलाषा
निज हाथों में थाम पतवार
संग खे चले बीच मँझधार
उठती जो लहरें लोल लोल
नैया को करती है डांवाडोल
लहरों औ' तूफान को कोसा
शंकित मन को दिया भरोसा
आँक सकी न मनोभावों को
तेरे मन में पलते दुर्भावों को
कहते पल में मिलेगी किनारा
पुलक प्राप्त सान्निध्य तुम्हारा
प्रलोभन में तेरे जो न बहती
ठगी आज भला क्या रहती
पग-पग जो किए इशारा तुम
मुझसे ही किए किनारा तुम
अविरल कलकल जल धारा
रोके कैसे संग कौन सहारा
शक्ति संबल संचित कर सारा
मँझधार के उस पार किनारा
बहुर पाये न कुत्सित मंतव्य
लक्ष्य यही, अब मेरा गंतव्य
लहरों पर ही मुझे चलना है
कुटिल कुत्सा को कुचलना है
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
विषय_ किनारा |
जीवन चलता रहता पल पल
दो किनारो के मध्य सदैव |
सफल हो या अफल ये आधारित
भावनाओ,व मार्यादित,कर्मो पर |
सागर की लहरे तूफानीआ टकराती
छोडती नही मर्यादा अपनी
सडक के दो किनारे पार करना
सोच समझके अंधे न बनकर नही |असवाधानिया ही तो लील लेती हे हमे |
चलो संभलकर प्राणी हो कोई साहिल|
कठिन नही पार करना चलो आँख खोलकर
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा |
जीवन चलता रहता पल पल
दो किनारो के मध्य सदैव |
सफल हो या अफल ये आधारित
भावनाओ,व मार्यादित,कर्मो पर |
सागर की लहरे तूफानीआ टकराती
छोडती नही मर्यादा अपनी
सडक के दो किनारे पार करना
सोच समझके अंधे न बनकर नही |असवाधानिया ही तो लील लेती हे हमे |
चलो संभलकर प्राणी हो कोई साहिल|
कठिन नही पार करना चलो आँख खोलकर
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा |
कुण्डलिया छंद
शीर्षक .. किनारा
*******************
किया किनारा, वो हमें,
मतलब करके साध।
अब नाहि हमें जानता,
त्याग राह में आध॥
त्याग राह में आध, नही
अब मतलब कोई।
शेर जगा सम्मान,
तो फिर वो नाहि सोई॥
मतलब से जब प्रीत,
तो फिर न कोई प्यारा।
भव मे डूबी प्रीत,
जो फिर ,किया किनारा॥
स्वरचित .. शेर सिंह सर्राफ
शीर्षक .. किनारा
*******************
किया किनारा, वो हमें,
मतलब करके साध।
अब नाहि हमें जानता,
त्याग राह में आध॥
त्याग राह में आध, नही
अब मतलब कोई।
शेर जगा सम्मान,
तो फिर वो नाहि सोई॥
मतलब से जब प्रीत,
तो फिर न कोई प्यारा।
भव मे डूबी प्रीत,
जो फिर ,किया किनारा॥
स्वरचित .. शेर सिंह सर्राफ
17 /1/2020
बिषय, किनारा,, तट
किश्ती मझधार में दूर हो किनारा
ऐसी कठिन परिस्थिति में प्रभु का ही सहारा
इतने बड़े जहां में किसी का नहीं कोई
दौलत के सब साथी विपत्ति का न कोई
नदिया गहरी नाव पुरानी तट भी बहुत दूर है
इसी तरह विपरीत समय बन जाता नाशूर है
इस नश्वर जिंदगी ने जाने क्या क्या रंग दिखाए
झणभंगुर की ए सांसें जाने कव उखड़ जाए
जितना दिया प्रभु ने क्यों न संवार लें
भावों के मोती से स्वयं को निखार लें
स्वरचित,, सुषमा, ब्यौहार
बिषय, किनारा,, तट
किश्ती मझधार में दूर हो किनारा
ऐसी कठिन परिस्थिति में प्रभु का ही सहारा
इतने बड़े जहां में किसी का नहीं कोई
दौलत के सब साथी विपत्ति का न कोई
नदिया गहरी नाव पुरानी तट भी बहुत दूर है
इसी तरह विपरीत समय बन जाता नाशूर है
इस नश्वर जिंदगी ने जाने क्या क्या रंग दिखाए
झणभंगुर की ए सांसें जाने कव उखड़ जाए
जितना दिया प्रभु ने क्यों न संवार लें
भावों के मोती से स्वयं को निखार लें
स्वरचित,, सुषमा, ब्यौहार
विषय : किनारा
विधा : कविता
तिथि : 17. 1. 2020
किनारा
दुखियारा
साथी सहारा
दूर बेचारा।
है शाश्वत विछाड़ा-
क्या न्याय तुम्हारा !
क्यों भाया न तुमको-
साथ हमारा?
समानांतर बनाया
कभी न मिलाया,
बस, सदा मुस्कराया
कारण न बताया।
समानांतर सही-
पर, साथ हमारा,
सदा बना ही रहेगा
न बने गा बेचारा।
हमने ही दिया
नदियों को आकार,
दिया उसने साथ-
मान हमारा आभार।
नदिया का पानी-
बना हरकारा,
मिलन का शाश्वत-
माध्यम हमारा।
--रीता ग्रोवर
विधा : कविता
तिथि : 17. 1. 2020
किनारा
दुखियारा
साथी सहारा
दूर बेचारा।
है शाश्वत विछाड़ा-
क्या न्याय तुम्हारा !
क्यों भाया न तुमको-
साथ हमारा?
समानांतर बनाया
कभी न मिलाया,
बस, सदा मुस्कराया
कारण न बताया।
समानांतर सही-
पर, साथ हमारा,
सदा बना ही रहेगा
न बने गा बेचारा।
हमने ही दिया
नदियों को आकार,
दिया उसने साथ-
मान हमारा आभार।
नदिया का पानी-
बना हरकारा,
मिलन का शाश्वत-
माध्यम हमारा।
--रीता ग्रोवर
17/1/20
विषय-तट किनारा।
तट और लहर
तट के बंधनों को तोड़नें
विकल सी बढ़ती है लहर मतवाली ,
पर किनारों के कोलाहल को सुन
लौट जाती अपने सागर की बाहों में
फिर मुक्त होने को छटपटाती
सर किनारों पर पटकती ,
और लौट जाती पता नहीं क्यों?
अनसुलझी सी पहेली अनुत्तरित,
ऐसे लगता ज्यों इठलाती लहर
तट पर शीश रख कुछ पल जब सोती है ,
लहर अपना कुछ हिस्सा वहां रेत पर खोती है
इसलिये लौट-लौट फिर जा
सागर के सीने में समाती है,
वो मतवाली लहर सूर्य का हाथ
थाम वाष्प बन उड जाती है।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
विषय-तट किनारा।
तट और लहर
तट के बंधनों को तोड़नें
विकल सी बढ़ती है लहर मतवाली ,
पर किनारों के कोलाहल को सुन
लौट जाती अपने सागर की बाहों में
फिर मुक्त होने को छटपटाती
सर किनारों पर पटकती ,
और लौट जाती पता नहीं क्यों?
अनसुलझी सी पहेली अनुत्तरित,
ऐसे लगता ज्यों इठलाती लहर
तट पर शीश रख कुछ पल जब सोती है ,
लहर अपना कुछ हिस्सा वहां रेत पर खोती है
इसलिये लौट-लौट फिर जा
सागर के सीने में समाती है,
वो मतवाली लहर सूर्य का हाथ
थाम वाष्प बन उड जाती है।
स्वरचित
कुसुम कोठारी।
दिनांक 17/01/2020
विधा : तांका
विषय: कगार/टीला/किनारा
🚣♀️🚣♀️🚣♀️
नदी कगार
मंद हवा मुस्काये
लहरे गाये
नौका पार कराये
चंद्रमा साथ साख
🐟🐟🐟
टीला खडा
इच्छाओ का महल
जीवन पथ
जिम्मेदारियां खडी
उम्र गुज़र गई।
💦💦💦💦
विशाल नदी
नहीं दिखता छोर
निर्मल जल
पंख पसारे जहाज
नीलम्बर उतरा ।
स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव
विधा : तांका
विषय: कगार/टीला/किनारा
🚣♀️🚣♀️🚣♀️
नदी कगार
मंद हवा मुस्काये
लहरे गाये
नौका पार कराये
चंद्रमा साथ साख
🐟🐟🐟
टीला खडा
इच्छाओ का महल
जीवन पथ
जिम्मेदारियां खडी
उम्र गुज़र गई।
💦💦💦💦
विशाल नदी
नहीं दिखता छोर
निर्मल जल
पंख पसारे जहाज
नीलम्बर उतरा ।
स्वरचित
नीलम श्रीवास्तव
साहिल/किनारा/तट
******************
खड़े थे साहिल पे,तूफ़ां का गुमां न था
आएगी मुसीबत इस तरह, पता न था।
जिंदगी के सफर में चले थे तलाशने मंजिल
राहें होंगी काँटों भरी, ये शुबा(गुमां) न था ।।
खोए थे ख्यालों मैं,हलचल थी पानी में,
डुबा ही देगी लहर,ये सोचा ही न था।
किनारों पे डूबा करती है कश्तियां,
इस हकीकत का हमको पता न था।।
भूल हुई साहिल को मंजिल समझ बैठे,
साहिल पे डूबी कश्ती हमारी,संघर्षों का समय न था।
जीवन नैया खड़ी किनारे पर,
मगर पतवार का हमको पता न था।।
अक्सर तूफान में किनारे मिल जाते है,
हमसे क्या क्या छूटा,मंजरों(लहरों) को पता न था,
छोड़कर चाहत फूलों की,काँटों से दिल लगा बैठे,
फूलों में छिपे हुए शूल का पता न था।।
गीतांजली वार्ष्णेय
******************
खड़े थे साहिल पे,तूफ़ां का गुमां न था
आएगी मुसीबत इस तरह, पता न था।
जिंदगी के सफर में चले थे तलाशने मंजिल
राहें होंगी काँटों भरी, ये शुबा(गुमां) न था ।।
खोए थे ख्यालों मैं,हलचल थी पानी में,
डुबा ही देगी लहर,ये सोचा ही न था।
किनारों पे डूबा करती है कश्तियां,
इस हकीकत का हमको पता न था।।
भूल हुई साहिल को मंजिल समझ बैठे,
साहिल पे डूबी कश्ती हमारी,संघर्षों का समय न था।
जीवन नैया खड़ी किनारे पर,
मगर पतवार का हमको पता न था।।
अक्सर तूफान में किनारे मिल जाते है,
हमसे क्या क्या छूटा,मंजरों(लहरों) को पता न था,
छोड़कर चाहत फूलों की,काँटों से दिल लगा बैठे,
फूलों में छिपे हुए शूल का पता न था।।
गीतांजली वार्ष्णेय
भावों के मोती
शीर्षक -- किनारा/तट
आज टहलते हुए समुन्दर के किनारें
जा पहुंचीं....
समुन्दर से पूछा नदियाँ इतनी मीठी तुम में आकर मिलती है..और ...तुम्हारा पानी इतना नमकीन..... इतना खारा क्यों ......
बोला ये तुम्हारी इन आँखों के कारण जो सदियों से बह रही है बहते हुए इनकी धाराएँ मुझ तक रोज चली आती है और मुझे खारा कर जाती है.....
सोचने लगे हम इसे भी अब एतराज है
हमारे अश्क बहाने पर....
यहीं तो एक जरिया है जो हमें सुकून पहुँचाता है....
हमारे सुकून से यहाँ भी खार फैल जाता है....
अब अश्क भी न बहाएं हम....
आशा पंवार
शीर्षक -- किनारा/तट
आज टहलते हुए समुन्दर के किनारें
जा पहुंचीं....
समुन्दर से पूछा नदियाँ इतनी मीठी तुम में आकर मिलती है..और ...तुम्हारा पानी इतना नमकीन..... इतना खारा क्यों ......
बोला ये तुम्हारी इन आँखों के कारण जो सदियों से बह रही है बहते हुए इनकी धाराएँ मुझ तक रोज चली आती है और मुझे खारा कर जाती है.....
सोचने लगे हम इसे भी अब एतराज है
हमारे अश्क बहाने पर....
यहीं तो एक जरिया है जो हमें सुकून पहुँचाता है....
हमारे सुकून से यहाँ भी खार फैल जाता है....
अब अश्क भी न बहाएं हम....
आशा पंवार
स्वरचित।
बीच भंवर नैया और दूर किनारा है।
हो तेरी कृपा हम पर,तेरा ही सहारा है।।
अत्याचार हुआ तब द्रोपदी पुकारी है।
नंगे पैरों भागे आये श्री गिरधारी है।
चीर बढा करके कृष्णा को उबारा है।।
हो तेरी....
बिष का प्याला जब राणा ने भिजवाया।
ये भोग है नटवर का कहकर पिलवाया।
पीकर मीरा हांसी श्रीकृष्ण पुकारा है।।
हो तेरी..…
प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
17/01/2020
बीच भंवर नैया और दूर किनारा है।
हो तेरी कृपा हम पर,तेरा ही सहारा है।।
अत्याचार हुआ तब द्रोपदी पुकारी है।
नंगे पैरों भागे आये श्री गिरधारी है।
चीर बढा करके कृष्णा को उबारा है।।
हो तेरी....
बिष का प्याला जब राणा ने भिजवाया।
ये भोग है नटवर का कहकर पिलवाया।
पीकर मीरा हांसी श्रीकृष्ण पुकारा है।।
हो तेरी..…
प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
17/01/2020
विषय, किनारा , तट
शुक्रवार
१ ७,१,२०२०.
भव सागर में जीवन नैया,
ढूँढ़ रही है किनारा।
बीच भंवर में हिचकोले खाये ,
नहीं कोई मिले सहारा ।
काम क्रोध मद लोभ ने घेरा,
ममता मोह डुबोये ।
पिंजर अंदर रोये आत्मा ,
मन ये रहता भरमाया ।
दिल दुनियाँ में छिड़ी लड़ाई ,
मस्तिष्क करे भरपाई।
ऊपर वाला करे तमाशा ,
काया समझ न पाई ।
सुमिरन कर ले हरि का प्राणी,
शायद मिल जाये किनारा ।
बंधन भव के जो काटने वाला,
उससे क्यों कर बैठा किनारा।
स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
शुक्रवार
१ ७,१,२०२०.
भव सागर में जीवन नैया,
ढूँढ़ रही है किनारा।
बीच भंवर में हिचकोले खाये ,
नहीं कोई मिले सहारा ।
काम क्रोध मद लोभ ने घेरा,
ममता मोह डुबोये ।
पिंजर अंदर रोये आत्मा ,
मन ये रहता भरमाया ।
दिल दुनियाँ में छिड़ी लड़ाई ,
मस्तिष्क करे भरपाई।
ऊपर वाला करे तमाशा ,
काया समझ न पाई ।
सुमिरन कर ले हरि का प्राणी,
शायद मिल जाये किनारा ।
बंधन भव के जो काटने वाला,
उससे क्यों कर बैठा किनारा।
स्वरचित , मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .
भावों के मोती
17/01/20
किनारा को कई अर्थ में बताने का प्रयास
समन्दर का किनारा
ठंडी रेत पर नंगे पाँव
हाथों में हाथ लिए
दुनिया जहान से दूर
अपने में रहते मशगूल
वो दिन भी क्या दिन थे।
वक़्त ने क्या सितम किया
गलतफहमियां दीवार बन गयीं
रिश्ते बिखरते जा रहे थे
एक दूजे से दूर जा रहे थे
किनारे की तलाश में
बेड़ियोँ के भँवर में डूबते जा रहे थे।
समय के चक्रव्यूह में
उलझ कर रह गए हम
तुम तो गैर हो गए थे
अपनों ने भी किनारा कर लिया।
नदी के दो किनारों की तरह
हम समानांतर चलते रहे
नसीब में नहीं था मिलना
किनारे की तलाश में
हम सहारा ढूँढते रहे ।
जल नदियों का किनारा
छोड़ता जा रहा है
सिकुड़ती हुई नदियां
सूखे की स्थिति ला रही हैं
जल, किनारा तोड़ निरंकुश हो जाये
प्रलय और बाढ़ के हालात बनते जाएं ।
स्वरचित
अनिता सुधीर
17/01/20
किनारा को कई अर्थ में बताने का प्रयास
समन्दर का किनारा
ठंडी रेत पर नंगे पाँव
हाथों में हाथ लिए
दुनिया जहान से दूर
अपने में रहते मशगूल
वो दिन भी क्या दिन थे।
वक़्त ने क्या सितम किया
गलतफहमियां दीवार बन गयीं
रिश्ते बिखरते जा रहे थे
एक दूजे से दूर जा रहे थे
किनारे की तलाश में
बेड़ियोँ के भँवर में डूबते जा रहे थे।
समय के चक्रव्यूह में
उलझ कर रह गए हम
तुम तो गैर हो गए थे
अपनों ने भी किनारा कर लिया।
नदी के दो किनारों की तरह
हम समानांतर चलते रहे
नसीब में नहीं था मिलना
किनारे की तलाश में
हम सहारा ढूँढते रहे ।
जल नदियों का किनारा
छोड़ता जा रहा है
सिकुड़ती हुई नदियां
सूखे की स्थिति ला रही हैं
जल, किनारा तोड़ निरंकुश हो जाये
प्रलय और बाढ़ के हालात बनते जाएं ।
स्वरचित
अनिता सुधीर
विषय -किनारा
दिनांक-१७-१-२०२०
सब समझ पाए,इतनी सरल लिखावट नहीं हूंँ मैं।
मेरा हर शब्द सच,समझने में बहुत कठिन हूंँ मैं।
किनारे का कचरा नहीं,बस गहराई मोती हूंँ मै।
मिले सबको सही राह, यही प्रयास करती हूँ मैं।
नहीं परवाह किसी की, सच्चाई बयां करती हूँ मैं ।
कलम उठाई कुछ करने को, सफलता पाऊंगी मैं।
मुझे पता है,बहुत कठिन किरदार निभा रही हूँ मैं ।
अपनी लेखनी से समाज को,राह दिखा रही हूँ मैं।
अच्छों के लिए अच्छी,बुरों के लिए सदा बुरी हूँ मैं।
अच्छा बनने के लिए, सच्चाई नहीं छुपा रही हूँ मैं।
मेहनत के बल पर,कामयाबी हासिल करती हूँ मैं ।
किस्मत को जुए में,यूं कभी नहीं आजमाती हूँ मैं ।
लेखनी पर घमंड नहीं गर्व है, कुछ कर रही हूँ मैं ।
बस सच लिखने से,खुद को ना रोक पा रही हूँ मैं।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
दिनांक-१७-१-२०२०
सब समझ पाए,इतनी सरल लिखावट नहीं हूंँ मैं।
मेरा हर शब्द सच,समझने में बहुत कठिन हूंँ मैं।
किनारे का कचरा नहीं,बस गहराई मोती हूंँ मै।
मिले सबको सही राह, यही प्रयास करती हूँ मैं।
नहीं परवाह किसी की, सच्चाई बयां करती हूँ मैं ।
कलम उठाई कुछ करने को, सफलता पाऊंगी मैं।
मुझे पता है,बहुत कठिन किरदार निभा रही हूँ मैं ।
अपनी लेखनी से समाज को,राह दिखा रही हूँ मैं।
अच्छों के लिए अच्छी,बुरों के लिए सदा बुरी हूँ मैं।
अच्छा बनने के लिए, सच्चाई नहीं छुपा रही हूँ मैं।
मेहनत के बल पर,कामयाबी हासिल करती हूँ मैं ।
किस्मत को जुए में,यूं कभी नहीं आजमाती हूँ मैं ।
लेखनी पर घमंड नहीं गर्व है, कुछ कर रही हूँ मैं ।
बस सच लिखने से,खुद को ना रोक पा रही हूँ मैं।
वीणा वैष्णव
कांकरोली
हाइकु💐💐
💐💐💐💐हिन्दू-मुस्लिम
नदी के दो किनारे
कब मिलेंगे👌
💐💐💐🎂🎂🎂
बीच भँवर
फँसी जीवन नैया
मिला न तट👍
🎂🎂🎂💐💐💐
मिलेगा तट
तुम आओ तो पास
यही आसरा💐
💐💐💐💐💐💐
जीवन नैया
तुम ही हो खिवैया
मिलेगा तट🎂
🎂🎂🎂🎂🎂🎂
श्रीराम साहू"अकेला"
💐💐💐💐हिन्दू-मुस्लिम
नदी के दो किनारे
कब मिलेंगे👌
💐💐💐🎂🎂🎂
बीच भँवर
फँसी जीवन नैया
मिला न तट👍
🎂🎂🎂💐💐💐
मिलेगा तट
तुम आओ तो पास
यही आसरा💐
💐💐💐💐💐💐
जीवन नैया
तुम ही हो खिवैया
मिलेगा तट🎂
🎂🎂🎂🎂🎂🎂
श्रीराम साहू"अकेला"
17/1/20
पकड़ लो हाथ मेरे गुरुवर
नही तो छूट जायेगे।
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा
मगर हम डूब जायेगे।
किनारे पर थी मेरी नैया
भवँर में आ फसी नैया।
लगा तो पार मेरे गुरुवर
नही तो डूब जायेगे।
थामी थी हमने तेरी उंगली
यही तो भूल थी भारी।
पकड़ना हाथ तुम मेरे
नही हम छूट पाएंगे।
बसे हम माया की नगरी
बड़ी चक। चौंध सी लगती।
बहा दो ज्ञान की गंगा
उसी में हम डूब जायेगे।
स्वरचित
पकड़ लो हाथ मेरे गुरुवर
नही तो छूट जायेगे।
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा
मगर हम डूब जायेगे।
किनारे पर थी मेरी नैया
भवँर में आ फसी नैया।
लगा तो पार मेरे गुरुवर
नही तो डूब जायेगे।
थामी थी हमने तेरी उंगली
यही तो भूल थी भारी।
पकड़ना हाथ तुम मेरे
नही हम छूट पाएंगे।
बसे हम माया की नगरी
बड़ी चक। चौंध सी लगती।
बहा दो ज्ञान की गंगा
उसी में हम डूब जायेगे।
स्वरचित
17/01/2020
हाइकु(5/7/5)किनारा
(1)
जिन्हें था पाला
कर गए किनारा
शत्रु बुढ़ापा
(2)
साँझ-सवेरे
वसुंधरा किनारे
रवि टहले
(3)
नभ खिलता
रवि धरा किनारे
रंग भरता
(4)
दर्द छुपा के
पलकों के किनारे
बैठे हैं आँसू
(5)
तन की नाव
कैसे लगे किनारे
छेद हज़ार
स्वरचित
ऋतुराज दवे
हाइकु(5/7/5)किनारा
(1)
जिन्हें था पाला
कर गए किनारा
शत्रु बुढ़ापा
(2)
साँझ-सवेरे
वसुंधरा किनारे
रवि टहले
(3)
नभ खिलता
रवि धरा किनारे
रंग भरता
(4)
दर्द छुपा के
पलकों के किनारे
बैठे हैं आँसू
(5)
तन की नाव
कैसे लगे किनारे
छेद हज़ार
स्वरचित
ऋतुराज दवे
दिनांक- 17/01/2020
शीर्षक- किनारा/तट
विधा- कविता
***********
एक घर नदी तट पर मेरा हो,
रोज लहरों संग नया सवेरा हो,
शीतल हवायें मुझे जगाती हों,
हमदम हमेशा साथ मेरा हो |
हर शाम नौका की सवारी हो,
नदी तट पर फुल-फुलवारी हो,
तट पर जो लहरें टकराती हों,
चेहरे को मेरे छूकर जाती हों |
स्वरचित- *संगीता कुकरेती*दिनाँक 17/01/2020
शीर्षक- किनारा/तट
विधा- कविता
***********
एक घर नदी तट पर मेरा हो,
रोज लहरों संग नया सवेरा हो,
शीतल हवायें मुझे जगाती हों,
हमदम हमेशा साथ मेरा हो |
हर शाम नौका की सवारी हो,
नदी तट पर फुल-फुलवारी हो,
तट पर जो लहरें टकराती हों,
चेहरे को मेरे छूकर जाती हों |
स्वरचित- *संगीता कुकरेती*दिनाँक 17/01/2020
विधा हाइकु
1
धुंध कुहासा
सड़क के 'किनारे'
महिला शव
2
नदी का 'तट'
जल में उतराता
वृद्ध का शव
३
सागर 'तट'
लहराता तिरंगा
जलयान पे
4
अनन्य भक्ति
भगवान सहारा
मिले 'किनारा'
5
गीले हुए हैं
नयनों के 'किनारे'
न्याय प्रतीक्षा
©मनीष श्री
दिनांक-17/1/20
भावों के मोती
विषय-किनारा/तट
विधा-छन्द-मुक्त
सागर तट की
गीली रेत पर
चलती नँगे पैर
यादों में डूबी मैं
चली जा रही हूँ
दूर क्षितिज पर
सूर्य का लाल गोला
पर्वत-श्रृंखला के पीछे
छुपने को आतुर
सागर लहरों पर
अंतिम प्रतिबिम्ब छोड़ता
तट की रेत
चिपट गई है
पैरों से ऐसे
जैसे बिखरी-बिखरी यादें
चिपटी हैं मेरे मन से
यह तट कभी
हो जाता था गुलजार
हमारे ठहाकों से
आज केवल गर्जना है
पछाड़ खाती लहरों की
और तट है वीरान
मेरे मन सा ।
सरिता गर्ग
भावों के मोती
विषय-किनारा/तट
विधा-छन्द-मुक्त
सागर तट की
गीली रेत पर
चलती नँगे पैर
यादों में डूबी मैं
चली जा रही हूँ
दूर क्षितिज पर
सूर्य का लाल गोला
पर्वत-श्रृंखला के पीछे
छुपने को आतुर
सागर लहरों पर
अंतिम प्रतिबिम्ब छोड़ता
तट की रेत
चिपट गई है
पैरों से ऐसे
जैसे बिखरी-बिखरी यादें
चिपटी हैं मेरे मन से
यह तट कभी
हो जाता था गुलजार
हमारे ठहाकों से
आज केवल गर्जना है
पछाड़ खाती लहरों की
और तट है वीरान
मेरे मन सा ।
सरिता गर्ग
तिथि : 17 जनवरी 2020
विषय : किनारा
समंदर रुपी जीवन में ,
अनेकानेक ज्वार भाटाएं है ।
दर्द और पीड़ा की लहरें ,
हमेशा उफनती है ।
और किनारे पर लाकर छोड़ देती है ।
और हम मृत्यु शैया में पड़े रहते हैं ।
पुनः लहरें आती है और
बहाकर ले जाती है ।
काश ! ऐसे में ...,
तेरे काजल के आंचल में ,
नैन समंदर बन जाए ।
उस समंदर का वासी बन जाऊं ।
और सदा सदा के लिए ,
तुम्हारा जीवन साथी बन जाऊं ।।
कितने भी बवंडर तूफां आए ,
कितने भी ज्वार भाटाएं उठे ।
लहरें उफनती रहे ,
और हम दोनों को किनारे पर
लाकर फेंक दे ।
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ हो ,
बेशक ! मृत्यु शैया पर हो ।
जन्नत मिल जाए !
मंजिल मिल जाए !!
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क मोती नगर
नई दिल्ली
विषय : किनारा
समंदर रुपी जीवन में ,
अनेकानेक ज्वार भाटाएं है ।
दर्द और पीड़ा की लहरें ,
हमेशा उफनती है ।
और किनारे पर लाकर छोड़ देती है ।
और हम मृत्यु शैया में पड़े रहते हैं ।
पुनः लहरें आती है और
बहाकर ले जाती है ।
काश ! ऐसे में ...,
तेरे काजल के आंचल में ,
नैन समंदर बन जाए ।
उस समंदर का वासी बन जाऊं ।
और सदा सदा के लिए ,
तुम्हारा जीवन साथी बन जाऊं ।।
कितने भी बवंडर तूफां आए ,
कितने भी ज्वार भाटाएं उठे ।
लहरें उफनती रहे ,
और हम दोनों को किनारे पर
लाकर फेंक दे ।
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ हो ,
बेशक ! मृत्यु शैया पर हो ।
जन्नत मिल जाए !
मंजिल मिल जाए !!
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क मोती नगर
नई दिल्ली
17/1/2020
किनारा
********
ही तुम किनारा जानती हूँ
तुममें कभी मिल न पाऊंगी
हो जो तुम मेरे सरमाया,
फिर भी तुममें समा न पाऊंगी
हो आसमां तुम मैं जमी हूँ
अपनी इस हकीकत को
भला कैसे भूल पाऊंगी
जाती हूं तुम तक फिर
लौट कर अपने आप मे
आ जाती हूं ,
,पाती हूँ तुमको फिर खो
देती हूँ
सुनो तुम भी कभी मिलने
की कोशिश न करना
मुझे तुममें मिलाने की
कोशिश न करना
हम दो किनारे हैं ये याद
रखना ।।
स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर
किनारा
********
ही तुम किनारा जानती हूँ
तुममें कभी मिल न पाऊंगी
हो जो तुम मेरे सरमाया,
फिर भी तुममें समा न पाऊंगी
हो आसमां तुम मैं जमी हूँ
अपनी इस हकीकत को
भला कैसे भूल पाऊंगी
जाती हूं तुम तक फिर
लौट कर अपने आप मे
आ जाती हूं ,
,पाती हूँ तुमको फिर खो
देती हूँ
सुनो तुम भी कभी मिलने
की कोशिश न करना
मुझे तुममें मिलाने की
कोशिश न करना
हम दो किनारे हैं ये याद
रखना ।।
स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर
दिनांक-१७/१/२०२०
शीर्षक तट/किनारा
तटनी तट पर खड़ा था वह,
मन में लेकर सवाल,
मिलते नही दोनो किनारे
फिर भी नही तकरार।
साथ साथ चलते सदा
मिलते सागर में साथ
है कैसा मानव व्यवहार?
एक देश में रहते सभी,
हर एक का भिन्न विचार
"अहं श्रेष्ठ" का भाव लिए
करे हमेशा बवाल
आर्यावर्त है एक देश हमारा।
भूल बैठे हैं वह आज
मर्कट नही है ,हम मानव
हम है ज्ञानी मानव
तना नही, विशाल वृक्ष है हम।
दृढ़ संकल्प है हमारा
हम नही अबोध समान
हर स्वर्ग से सुन्दर देश हमारा
हम है इसके लाल।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
शीर्षक तट/किनारा
तटनी तट पर खड़ा था वह,
मन में लेकर सवाल,
मिलते नही दोनो किनारे
फिर भी नही तकरार।
साथ साथ चलते सदा
मिलते सागर में साथ
है कैसा मानव व्यवहार?
एक देश में रहते सभी,
हर एक का भिन्न विचार
"अहं श्रेष्ठ" का भाव लिए
करे हमेशा बवाल
आर्यावर्त है एक देश हमारा।
भूल बैठे हैं वह आज
मर्कट नही है ,हम मानव
हम है ज्ञानी मानव
तना नही, विशाल वृक्ष है हम।
दृढ़ संकल्प है हमारा
हम नही अबोध समान
हर स्वर्ग से सुन्दर देश हमारा
हम है इसके लाल।
स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
सादर नमन
विधा- मुक्तक
तिथि-17/1/20
विषय-किनारा
*
मिला साथ जबसे तुम्हारा,
दिखे हर तरफ उजियारा,
बह चली खुशियों की नाव,
छोडकर दुखों का किनारा ।
***
खिला फूल बहका भँवरा,
महक उठा देखो सहरा,
तैर मोहब्बत के सागर में,
दिल किनारे पर जा ठहरा ।
***
रहकर खड़े किनारों पर,
नजर रखते हैं सितारों पर,
ले जज्बा देशभक्ति का,
पड़ेगें भारी गद्धारों पर।
***
स्वरचित रेखा रविदत्त
विधा- मुक्तक
तिथि-17/1/20
विषय-किनारा
*
मिला साथ जबसे तुम्हारा,
दिखे हर तरफ उजियारा,
बह चली खुशियों की नाव,
छोडकर दुखों का किनारा ।
***
खिला फूल बहका भँवरा,
महक उठा देखो सहरा,
तैर मोहब्बत के सागर में,
दिल किनारे पर जा ठहरा ।
***
रहकर खड़े किनारों पर,
नजर रखते हैं सितारों पर,
ले जज्बा देशभक्ति का,
पड़ेगें भारी गद्धारों पर।
***
स्वरचित रेखा रविदत्त
किनारा / तट
बहती रहती
सतत नदी
ढूंढती किनारे
यादें रहतीं
दिल में
मुकाम ढूंढती
बेचैनियाँ
बनों जीवन में
मर्यादित किनारे
तट तोड़ते किनारे
हैं बदनाम
समुन्दर पास
खड़ा मानव
ढूंढता किनारा
लहरों में
उलझे किनारे
होते जाते
दूर तट
झील ,तालाब
रहते रोशन
सजते हरे भरे
वृक्षों से किनारे
रखो दूर
प्लास्टिक से
किनारे
पर्यावरण
रखो स्वच्छ
प्रदूषण होगा दूर
रहेगा इन्सान
स्वच्छंद
खुश , सुखी , समृद्ध
ले संकल्प
हर इन्सान
तोड़ेगा नहीं
वह जीवन में
किनारे
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
बहती रहती
सतत नदी
ढूंढती किनारे
यादें रहतीं
दिल में
मुकाम ढूंढती
बेचैनियाँ
बनों जीवन में
मर्यादित किनारे
तट तोड़ते किनारे
हैं बदनाम
समुन्दर पास
खड़ा मानव
ढूंढता किनारा
लहरों में
उलझे किनारे
होते जाते
दूर तट
झील ,तालाब
रहते रोशन
सजते हरे भरे
वृक्षों से किनारे
रखो दूर
प्लास्टिक से
किनारे
पर्यावरण
रखो स्वच्छ
प्रदूषण होगा दूर
रहेगा इन्सान
स्वच्छंद
खुश , सुखी , समृद्ध
ले संकल्प
हर इन्सान
तोड़ेगा नहीं
वह जीवन में
किनारे
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
विषय -किनारा /तट
-----------------------------
तड़प उठता किनारा ,रोज किनारे को देख कर
रहता हूँ संग में ,तड़पता हूँ उम्रभर
साथ में बहती नदी हम दोनों का
दामन भरकर
संचार हो जाता है परस्पर हम दोनों
का प्यार बहकर
जब कभी जेठ दुपहरी जल रहे हो
बैठकर
प्यास से रोते भले ही ,सुख जाते जी मारकर
बीच में आये न कोई मुर्दा ही भले न हो
संग में जिए भी मरे तो संग रहकर
छबिराम यादव
मेजारोड प्रयागराज
-----------------------------
तड़प उठता किनारा ,रोज किनारे को देख कर
रहता हूँ संग में ,तड़पता हूँ उम्रभर
साथ में बहती नदी हम दोनों का
दामन भरकर
संचार हो जाता है परस्पर हम दोनों
का प्यार बहकर
जब कभी जेठ दुपहरी जल रहे हो
बैठकर
प्यास से रोते भले ही ,सुख जाते जी मारकर
बीच में आये न कोई मुर्दा ही भले न हो
संग में जिए भी मरे तो संग रहकर
छबिराम यादव
मेजारोड प्रयागराज
No comments:
Post a Comment