Monday, January 27

"दर्द,पीड़ा,व्यथा "'27जनवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-638
विषय दर्द,पीड़ा,व्यथा
विधा काव्य

27जनवरी 2020,सोमवार

दर्द पीड़ा व्यथा और चिंता
जीवन का हिस्सा होती है।
कभी खुशी में हम हँसते हैं
कभी दर्दमय आँखे रोती है।

ये जीवन ही धूप छाँव है
सुख दुःख आते जाते रहते।
लाभ हानि यश अपयश से
हम जीवन में आगे बढते।

कई व्यथाएँ हम खुद लेते
लालच लत बुरी है जीवन।
करके भी पछताते रहते है
तब उजड़ जाता है उपवन।

दैहिक दैविक भौतिक पीड़ा
व्यथा निरन्तर नहीं रहती है।
सबक सिखाती वे जीवन में
नयी प्रेरणा हिय में भरती है।

जीवन होता संग्राम सुहाना
सघर्षो से बढ़ते नित आगे।
सुधा स्नेह जीवन बरसाओ
सारे संकट स्नेह से भागे।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

दिनांक 27-01-2020
विषय- दर्द


दर्द जीवन का असीमित,
न जाने क्यूं सहते रहे ।
नफ़रतों के इस शहर में,
दर्दे ग़म में बहते रहे।

अहसास भी नहीं किसी को,
दर्द के इस सैलाब का ।
क्या अंत हो पाएगा कभी,
दर्द के इस आफताब का।

मर्ज़ भी दिखता नहीं,
लंबी है दर्द की दास्तां ।
गमों से है चूर जिंदगी,
मिलता न कोई रास्ता।

ऐ दर्द है बेदर्द तू भी,
साया सा संग है मेरे ।
तन्हा सफ़र है जिंदगी,
कोई नहीं सिवा तेरे।

अंतर्मन की पीड़ा को,
किसको मैं सुनाऊं l
गैर बन जा दर्द तू भी,
तुझसे भी न कह पाऊं।

दर्द जीवन की चुभन,
दर्द मन की है उलझन l
रुसवाई का मंज़र है,
दर्द हृदय की तपन।

ऐ दर्द मुझको ये बता,
हुई क्या मुझसे ख़ता l
क्यूं इश्क है तुझे मुझसे,
हमसाया बनकर मत सता।

ऐ दर्द तूने खींच ली,
माथे पर गम की रेखा l
मुस्कान देखी मेरी सबने,
मेरा दर्द किसी ने न देखा।

कुसुम लता 'कुसुम'
नई दिल्ली

दिनांक-27/01/2020
विषय- व्यथा...


मौन एक कथा है....... या एक व्यथा है

मन के कोरे कागज पे

चली लेखनी विचारों की।

मन से ही क्यों पूछ रहे हो

कौन गली है हम बंजारों की।

मन ने छोड़ा जब साथ हमारा

तुमने थामा जब हाथ हमारा

अब चाह नहीं है उपहारों की।

तुम बिन अब अच्छा लगता नहीं

खाली तस्वीर दीवारों की।

मौन एक कथा है बस........

या एक व्यथा है बस..........

द्रवित हृदय के उद्गारो की।

कभी अपने मन से पूछो ?

रहते हो दौलत की इमारत में

खुद को समझो खुद से

आत्मा की अदालत में।

एक ज्वाला है तन में

एक ज्वाला है मन में

एक ज्वाला है वतन में

एक ज्वाला है जहन में

कैसे हो ज्वाला का दहन

एक भड़की है आग

इस व्याग्र मन में

क्यू एकांत चाहे मेरा मन

मन की चाहत ,मन की भाषा

समझ ना पाए अब तक कोई

गजब है एक ऐसी जिज्ञासा

स्वरचित

सत्य प्रकाश सिंह


विषय-दर्द
द्वितीय प्रस्तुति

चूड़ियों के टूटने से जख्मी होती है कलाइयां ।
बेदर्द बयां करती तन मन की रूसवाईयां।।

एक दर्द निष्प्राण करता मुझे.........

करुण क्रंदन हृदय करता
बेदर्द जख्म तेरा
मेरे प्राणों को हरता
एक कील न जाने क्यों
मेरे तन मन को चुभता
हृदय तार झंकृत हो उठता
सिद्ध चित विकृत हो जाता
कदाचित ऐ काले सूरज........
एक सृष्टि ,दो दृष्टि ना रखता
कानन उपवन से कहता
देख प्रकृति की अनुकंपा
हम दोनों को दिए उसने
एक को दर्द, एक को चंपा
कितना तूने भेद किया
क्यों कहता तु ...........
दोनों का समभाव किया
मेरा तो श्रृंगार किया
हृदयाघात तिरस्कार किया

रो रहा है आंगन
चीखती है दीवारें रात -दिन
खो गए रंगीन सपने
गुम हुई मेरी नादानियां
कील -कील चुभ रही
उड़न परियों की कहानियां
वो हँसी खिलखिलाहट
न जाने कहां गुम हो गई जवानियां
शो केस में दर्द पैदा करती
नादान चूड़ियों की बेचैनियां
भ्रमर कांटो में थिरकते
प्रीत के बादल मन मे घुमड़ते।
झांकता है चांद खिड़की से
गुम हो गई मेरी तनहाइयां।।

स्वरचित...
सत्य प्रकाश सिह
इलाहाबाद

27/1/2020
दर्द/पीडा/व्यथा
**************
मन के कागज़ पर
खींचती हूं
कुछ लकीरें
फिर मिटा देती हूँ
कहना चाहती हूँ
कुछ तुमसे फिर
चुप्पी लगा जाती हूं,
देखती हूँ तुमको आशा
भरी नज़रों से
फिर नजरें झुका लेती हूँ
क्या बोलूं ,क्यों बोलू
जानती हूँ
न समझ पायेगा
मेरी इस पीड़ा को कोई
न पहुचेगा उस व्यथा तक
स्वयं ही इसे मना लेती हूँ
स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर
विषय - दर्द/पीड़ा/व्यथा
प्रथम प्रस्तुति


रूठी जिन्दगी ये मनायी न गयी
एक आवाज़ उन्हे लगायी न गयी।।

क्या कहें दोस्तो हमसे ये अपनी
दोस्ती जाने क्यों निभायी न गयी।।

बताते उन्हें पीड़ा कुछ बात बनती
पीड़ा हमें उनसे बतायी न गयी।।

सोचा जिन्दगी को मनालूँ पहले
ये जिन्दगी हमसे मनायी न गयी।।

आज ये जिन्दगी मनी भी है थोड़ी
तो उनसे मेरी गली आयी न गयी।।

अजीब सी कश्मकश रही जिन्दगी में
मुकम्मिल राह यहाँ बनायी न गयी।।

हर एक शय यहाँ हैरां परेशां 'शिवम'
सारी फूल की राह सजायी न गयी।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 27/01/2020

" व्यथा..."

किसको सुनाऊं अपनी मन की व्यथा ।

सबकी है अपनी-अपनी राम कथा ।।

ना मैं अभी गिरा हूं ना मेरी ,
उम्मीदों के मीनार गिरे हैं ।
पर लोग मुझे गिराने में ,
कई कई बार गिरे हैं ।।

कभी जी में आता है लिख ,
डालूं अपनी आत्मकथा ।
किसको सुनाऊं अपनी मन की व्यथा ।
सबकी है अपनी-अपनी राम कथा ।।

सवाल जहर का नहीं था ,
वह तो मैं कब का पी गया ।
तकलीफ लोगों में तब हुई ,
पीकर भी मैं जी गया ।।

कभी भटकूं वन में कभी ,
ढूंढू जीवन की अता-पता ।
किसको सुनाऊं अपनी मन की व्यथा ।
सब की है अपनी-अपनी राम कथा ।।

डाली पर बैठे परिंदे को पता है ,
वह डाली है कमजोर ।
फिर भी उस डाली पर बैठता है ,
क्योंकि पंख पर भरोसा है पुरजोर ।।

मन में है विश्वास ,
जीवन पर है आस्था ।
किसको सुनाऊं अपनी मन की व्यथा ।
सबकी है अपनी-अपनी राम कथा ।।

स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
सुदर्शन पार्क मोती नगर
नई दिल्ली
🍊🍀 गीतिका 🍀🍊
**************************
दर्द / पीड़ा /व्यथा
मापनी- 211 211 211 211
( भगण * 4 )( वर्णिक )
समान्त- अन , अपदांत
🌺🌺🌺🌷🌷🌷🌷🌺🌺🌺

प्रेम पगे नित चाहत है मन ।
राग उगे नव योवन लोचन ।।

छोड़ गये परदेश पिया जब,
नींद न नैन , तकें पथ वाहन ।

आग लगे दिन- रात दुखे जिय ,
आन मिलें कब मीत सुभावन ।

कौन विदेश रमे नहिं आवत ,
याद न कौंधत हाय जिया तन ।

क्या इस प्यार करें दिल बैठत ,
दर्द भरे हिय हूक डरावन ।।

🌷💧🌹

🌴🐦...रवीन्द्र वर्मा , आगरा



दर्द

तुझे तकलीफों का
तकिया कहूँ
या फिर....
दुख का दरवाजा
तेरे आने पर ही तो
पता चलता है
अपनों का
और ...
आराम की अहमियत का

तुझमें इतनी स्थिरता है
कि ...
मन की चंचलता भी
हार मान लेती है
ध्यान को भटकने का
मौका ही नहीं देते हो तुम
बैठा लेते हो
हाथ पकड़ कर
अपने पास ही

क्योंकि ....
तुम्हारे सिद्धांत ही
अटल हैं
नो के पहाड़े की तरह
आगे से पढ़ो
या पीछे से
किसी भी हाल में
अर्थ कभी
बदली हो ही नहीं सकता

नफे सिंह योगी मालड़ा ©
स्वरचित रचना

27/1/20
विषय दर्द,पीड़ा,व्यथा


जब विकल ह्रदय
द्रवित हुआ
दुख की गगरी
जब छलक गई
वेदना मन की
असीम हुई
कोलाहल पूर्ण
मानस पटल
विस्मृति यादो
के पट खुले
मेरी ही ध्वनि
बिलखने लगी
रह रह कर
फेरी देने लगी
नैनो के कोरे
भिगोने लगी
मछली बन
वो तैरने लगी
ब्याकुल आँखिया
बरसने लगी
बूँद अश्को के
झरने लगे
वेदना मन की
दिखने है लगी
घिर आई
घटाए अश्को की

स्वरचित
मीना तिवारी

27-01-2020
व्यथा

(लावणी,16,14)
हिवड़े में जो रही घुमड़ती,
अधरों तक वो आ न सकी।
पलपल मन को रही सालती,
चैन बैन बन पा न सकी ॥

खंड-खंड पीर-पिशुन प्रचंड,
पोर-पोर में थमा रहा।
भावों का हिम-खंड सघन भी,
घनीभूत हो जमा रहा॥

व्यथा बोझ से दबी जिंदगी
घुटती कहीं मचलती है।
पुलक-मूलक दो बोल के बरबस
हिमशिला भी पिघलती है॥

व्यथा-धार निर्झर झरझर कर,
कोरों से आज बह गया।
जाने या अनजाने में ही,
सखि, बात अपनी कह गया॥
-©नवल किशोर सिंह
स्वरचित
दिनांक-27.1.2020
विधा --मुक्तक

1.
बढ़ती दर्द घटाएँ जरा, हटा कर तो देखो।
किसी के दिल में लगी चुभन, मिटा कर तो देखो।
आशीष की बौछार स्वतः, आएगी ' हितैषी '--
संकट की घड़ियों में दर्द, बटाकर तो देखो।
2.
बढ़ते तेवर दर्द के, तानाबाना खोज।
तथ्य नए नए मिलते, खोज करें गर रोज।
दर्द मिटे 'उनका'अगर, अपना भी हो दूर--
अंत,दर्द द्वय का मिटे, बढ़ रिश्ते का ओज।

******स्वरचित ******
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '

सुख कहाँ पर है सारे जहाँ में ढूंढ लो
इस दर्दीले संसार में दुख ही दुख पड़ा है
सुख कहाँ पर है.......

कहीं अधिक धन झूल रहा
उसके घर मोर नाच रहा
लेकिन. उसको भी है दुख
इस दर्दीले संसार में........
कांप रहा गरीब अपनी गरीबी से, रोगी करहा रहा अपने मर्ज से,कौन जाने सब है कैसे कैसे दर्द में,
सबका अक्स एक नहीं
सबका दर्द एक नहीं, दर्द सभी के पास है, फिर भी जीने की आस है,
सुख कहाँ पर है सारे जहाँ में ढूंढ लो, इस दर्दीले संसार में दुख ही दुख पड़ा है
व्यथा
किस किस की व्यथा सुनाऊँ यारों।
मुख से तो कुछ कहा नहीं जाता।

मन की पीड़ा बताए कि तन की पीड़ा।
सनम की पीड़ा बताऊँ कि वतन की पीड़ा।
किसानों की पीड़ा कि बेरोजगारों की पीड़ा
राजनीति की साजिश या सैनिकों की पीड़ा
रग रग दुखता है कौन सी व्यथा को बताऊँ
देश का हाल, खेत खलिहान का सवाल।
नवजवानों के जवानी पर होता मलाल।
अस्पतालों में मरते हुए बच्चों का सवाल।
देश में गिरती हुई मँहगी शिक्षा का हाल।
भाग्य को कोसता भाग्य विधाता का हाल।
बलात्कार होती देश की बेटियों का हाल।
गाँधी के देश पर उठता ये गहरा सवाल।
गणतंत्र को कलंकित करते ज्वलंत सवाल।

स्वरचित कविता प्रकाशनार्थ डॉ कन्हैया लाल गुप्त शिक्षक उत्क्रमित उच्च विद्यालय ताली सिवान बिहार
विषय - दर्द

मुझसे ये रास्ते बदहाल पूछते हैं,
क्यों नही होता कमाल पूछते हैं,

मैं उलझा हूँ अपनी ही उलझनों में,
क्यों शहर में मचा बवाल पूछते हैं,

#दर्द बांटने का शौक खत्म हो गया,
बस पूछने को मेरा हाल पूछते हैं,

तकलीफे जिंदगी को जब लिखा,
लोग मुझसे ढेरो सवाल पूछते हैं,

उड़ने का हुनर है या कंही खो गया,
फेंक मुझ पे अपना जाल पूछते हैं,

सपने हकीकत में क्यों नही बदलते,
बनाकर लोगो को फटेहाल पूछते हैं,

"प्रांश" जानता है फितरत लोगो की,
चला खंजर खुद हालचाल पूछते हैं।
🖊️स्वरचित:- प्रकाश जांगिड़ प्रांश


विषय:-दर्द
हर अच्छे काम पर उंगली उठाते हैं लोग,

सफलता ना मिले तब तक, चिढ़ाते हैं लोग,

जीतेजी किसी की, कद्र नही होती है यंहा,
पर मरने के बाद अपनापन जताते हैं लोग

रुककर पथिक, समय ना अपना व्यर्थ कर,
रुकने वाले को तो, पीछे छोड़ जाते हैं लोग,

जिंदगी का नाम जिंदादिली रखा है किसी ने,
मायूस लोगो को ज्यादा #दर्द, दे जाते हैं लोग,

राह में सिर्फ फूल बिखरे हो, ये मुमकिन नहीं,
अपनापन जताकर राह में,कांटे बिछाते हैं लोग,

उम्मीदों का ये आसमान, बहुत बड़ा है दोस्तो,
खुलकर पंख फैलाये,उसके ही हो जाते हैं लोग,

जरूरी नही यंहा हर शख्स, बुरा ही हो "प्रांश",
नेक बनकर के इंसानियत भी , दिखाते हैं लोग।
🖊️ स्वरचित:- प्रकाश जांगिड़ प्रांश

27-01-2020
विषय:- व्यथा / पीड़ा
वि
धा :- ताटंक छंद

भोग रहे तन मन की पीड़ा , इस जग के सारे प्राणी ।
बुरा बोलते बुरा भोगते , उनको ये मारे वाणी ।।१।।

सभी बातों की व्यथा पीड़ा ,कारण इच्छायें होती ।
मन की वृत्तियाँ की हो पूर्ति , बीज लालसा के बोती ।।२।।

चिंता करते जब भविष्य की , मन चिंतित लगता होने ।
असंतुष्टि पैदा हो जाती , सुख वंचित लगता होने ।।३।।

चोट लगे जब अहंकार पर , मन पीड़ित है हो जाता ।
हृदय व्यथित ही रहे रात दिन , दुख आलोड़ित हो जाता ।।४।।

खान पान पर न हो नियंत्रण , मन बन जाता है भोगी ।
भोगों का अतिरेक भोग कर , तन बन जाता है रोगी ।।५।।

भोग योग से जब हम करते , रहे नहीं तन की पीड़ा ।
योग करें मन योगीश्वर से , दिखती है उसकी क्रीड़ा ।।६।।

स्वरचित:-
ऊषा सेठी
सिरसा

विषय : दर्द
विधा कविता

तिथि : 27.01.2020

बह रहा है दर्द का लावा
तटस्थ है समस्त आवा,
कोई भी कंधा पास नहीं
न है मरहम,न ही फ़ाहा।

बह रहा है दर्द का लावा
जैसे बहे अग्नि प्रवाहा
जला रहा भीतर- बाहर
अस्तित्व हो रहा स्वाहा।

बह रहा है दर्द का लावा
पोर - पोर में दर्द समावा
दर्द की काली गर्द छाई
हो गया , जीवन सियाहा।

बह रहा है दर्द का लावा
दुखों का प्रबल है धावा
गिरहगिरह गांठता जाता
करता पर कार्मिक दावा

क्या ये बीज मैने बुआवा
बेदर्द भाग्य ऐसा गावा
बोया यदि बबूल का पेड़
बोलो आम कहां से पावा?

सुखाना है दर्द का लावा
कर सत्कर्म जीतना दावा
टीसें रौंद,जगा सुख कौंध
पानी भाग्य से वावा-वावा।
- रीता ग्रोवर
- स्वरचित
तिथि-27/1/2020/सोमवार
विषय-*दर्द/पीड़ा/व्यथा*

विधा-काव्य

रहूं पर पीड़ा को सहने तत्पर,
प्रभु कभी उदास नहीं हो पाऊं।
ना होऊं परोपकार से बिचलित,
नहीं मैं दर्द से व्यथित हो पाऊं।

नहीं पीड़ाओं की बातें करते।
यहां बस रोटी की बातें करते।
दीनबंधु सब दुखहर्ता संहर्ता,
केवल मानवता की बातें करते।

देखें रोज हम तड़पते यहीं पर।
कितने देखते घिसटते जमीं पर।
हम हादसों में मरते रहते हैं,
अपनी पीड़ा सहें कहीं कहीं पर।

क्या सारी मानवता मर चुकी है।
हमारी दानवता जाग चुकी है।
खुश होते हंसते मरते देखकर,
क्योंकि संवेदनाऐ मर चुकी हैं।

पर पीड़ाओं से खुशी मिलती है।
मनो व्यथा अपनों से होती है।
नहीं कर सकें हम वश में ‌ भावना,
सच कुछ हमारी करनी रोती है।

स्वरचित,
इंजी शंम्भू सिंह रघुवंशी अजेय
मगराना, गुना म प्र

विषय -दर्द
दिनांक २७-१-२०२०

दर
्द की राह ,हम यूं गुजरते रहे।
चोट खा कर,हम मुस्कुराते रहे।

हर कदम पे,आजमाए जाते रहे।
किस्मत,कसौटी खरे उतरते रहे।

साथ हर कदम मैने सबका दिया।
फिर भी हर दिल,यूं खटकते रहे।

सूल बनकर ,सभी को चूभते रहे।
फूल खुशबू जैसे,हम बिखरते रहे।

गमे ए दरिया में,हम सदा डूबे रहे।
हर कदम, भौंरो से गुनगुनाते रहे।

शोहरत खजाना,फिर भी पाया।
बच कांटो से,पांव धरा रखते रहे।

हर बात,जो फायदे नजर देखे।
दूर रह, चाल समझ बढ़ते रहें।

वीणा वैष्णव
कांकरोली

विधा:- मुक्त काव्य
ओ शेर-
तुम तैयार थे टूट पड़ने को
उन पर
जो वक्त बेवक्त
मख़ौल उड़ाते थे तुम्हारा।
आक्रोश भड़क उठता था
जो हर हमेशा
उड़ाते थे मख़ौल तुम्हारा।
किन्तु,वह-
दहकता,बिखरता,दहाड़ता
आक्रोश आज शान्त कैसे?
शायद तुम्हारा-
गला बैठ गया
नित्य की चिल्ल -पों से
आँखे सूज उठीं
समय के संक्रमण से।
तभी तो-
छाती के सामने
फिर से वही तुम्हारा
मख़ौल उड़ा रहे हैं
' ओ परम्परावादी-बूढ़े शेर '
और तुम चुप हो
किस #व्यथा# से।

मौलिक:
डॉ.स्वर्ण सिंह रघुवंशी, गुना मध्यप्रदेश

विषय - दर्द , पीड़ा , व्यथा,
दिनांक - २७,१,२०२०.

दिन , सोमवार .

अभी दर्द दिल का बढ़ गया है , यहाँ रोशनी बँटने लगी है।
जो घर कभी था एक हसीन सपना, शूल सा चुभने लगा है।
दुश्मन हुआ है भाई का भाई , अभी एतबार का गढ़ ढ़ह रहा है।
देखकर हालत वतन की,मन में सागर व्यथा का मचल रहा है।
यहाँ पे उजड़ रहा है जर्रा जर्रा, और माँ का आँचल छिन रहा है ,
सोया हुआ था जो दर्द पहले , हमें पीड़ा वही अब दे रहा है ।
अरे ओ सोने वालो जागो अब तो, जब दुश्मन आगे बढ़ रहा है।
अपनी व्यथा किससे कहें हम , जब अपना ही दुख दे रहा है ।

स्वरचित , मधु शुक्ला . सतना , मध्यप्रदेश .

भावों के मोती।
विषय-दर्द,व्यथा,पीढा।
िधा-काव्य।
स्वरचित।
देश की आन, बान,शान को
हम हैं तैयार सजग बड़े।
झुकने ना देंगें सिर
हैं तैयार खड़े।।
***

घरवाले उनके वो
इन्तज़ार करते ही रहे
त्यौहार आते रहे,जाते रहे
वो थे नौजवान देश के प्रहरी
सीमा पर डटे रहे जाबांज सैनिक।।
****

इन्त़जार, इन्त़जार ही रह गया अपनों का
सिन्दूर चला गया सौभाग्यशालिनी का।
बच्चों का बचपन रह गया अधूरा,
हो गये बड़े,समय से पहले ही।
बहनों के हाथों में राखियां
राह देखतीं, थक गईं।।
****

सहारा बूढ़े मां-बाप का
अपनी मातृभूमि की खातिर
भूल गया कंपकंपाते हाथों औ
लड़खड़ाती जुबां के आशीर्वादों को
याद रहा अपना संकल्प, मां का क़र्ज़।।
****

दर्द,व्यथा,पीढा समझेगा कौन पीछे बचों की??
कवि वीर रस की कविताओं से ओज भरेगें
देगें कुछ,श्रृद्धांजलि कुछ फूलों, शब्दों से
फिर सब जायेगें भूल उन शहीदों को।।
****
प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
27/01/2020

नमन भावों के मोती
विषय --पीड़ा/दर्द/व्यथा

द्वितीय प्रस्तुति

दवाखाना पास था
बैध भी पास था।।

मगर मैं क्या करता
मुझे आता लाज था।।

नहि था पता ये दर्द
ताउम्र का साज था।।

ये मीठा-मीठा दर्द
जन्म-जन्म का साथ था।।

ये अहसास ये चुभन
एक अनूठा राज़ था।।

यकीनन मिलती दवा
बस देना आवाज़ था।।

ये गीत बिमारी का
इक असफल प्रयास था।।

कितना लिखुँ दर्द न घटे
जो कल था वो आज था।।

आज सोचूं मैं ये दिल
कितना बेनियाज़ था।।

मरीजे दिल 'शिवम' इक
नज़र का मुहताज था।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 27/01/2020

विषय-दर्द/पीड़ा/व्यथा

एक दर्द होता है सीने में,
दम घुटता है जीने में।
साँसे फँसी- फँसी सी हैं
भीगा बदन पसीने में।

इस पीड़ा को कहा नही जाता
पर आसानी से सहा नहीं जाता।
कैसे जिएँगे इस माहौल में
जहरीली गैस में रहा नहीं जाता।

प्रदूषण की मार से बचना है
शुद्ध परिवेश को रचना है।
आओ इस व्यथा को दूर करें
हमको ही तो सोचना है।

वृक्ष लगाकर धरा का श्रृंगार करें
मानवता का उपकार करें
शुद्ध जल और शुद्ध हवा
शुद्ध जीवन पर अधिकार करें।

आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश

आज का कार्यः-दर्द,पीड़ा , व्यथा

का सै कहूँ दर्द अपना दुनिया वाले नहीं समझते है।
जाने क्यों जान बूझ कर ही हमसे उलझते रहते है।।

काम नहीं क्या इनको कोई, हमें ही सताते रहते है।
आती नहीं शर्म, कभी दीवाना कभी पागल कहते है।।

जानते नहीं यह पत्थर दिल प्यार किसको कहते है।
खुशी को यार की दिल अपना, अता किया करते हैं।।

सितम सह कर यार का उस पर ही करम करते हैं।
दर्द सहते रहते है मगर उफ भी कभी नहीं करते हैं।।

होकर के भी बरबाद यार को अपने आबाद करते है।
तकलीफ हर सहते है फिर भी यार पर ही मरते है।।

चला गया यार, दर्द उसकी जुदाई का हम सहते हैं।
व्यथित हृदय दर्द बयां नहीं करते बस रोते रहते हैं।।

डा0 सुरेन्द्र सिंह यादव
"व्थथित हृदय मुरादाबादी"
स्वरचित.
विषय- दर्द
ना धूप सुहाती है मुझको

ना छांव में ही आराम आता है।
ना प्रशंसा भाती है मुझको
ना निंदा से ही मन घबराता है।
जिम्मेदारियों तले यूं दबा हुआ हूं
ना मर पाता,ना जिया जाता है।
बूंद-बूंद दर्द से,बन गया समंदर
ना ठहर पाता,ना ही बह पाता है।
यादों के मोतियों से, बना तो ली माला
ना पहन पाता,ना तोड़ा जाता है।
दिल मेरा नन्हा मासूम सा बच्चा
उम्र के साथ ना बड़ा हो पाता है।
स्वरचित- निलम अग्रवाल,खड़गपुर

विधा- -हाइकु
शिर्षक- पीड़ा

तिथि- 27/1/20
वार-सोमवार

सख्त निर्णय
हृदय मजबूर
पीड़ा के आँसू

तन्हा है दिल
दर्श को तरसते
नैनों की पीड़ा

व्यथित मन
बनावटी जीवन
अपने दूर

दिल लाचार
दर्द -ए- मोहब्बत
कड़ा पहरा
***
स्वरचित-रेखा रविदत्त
* नमन -भावों के मोती
* विषय -दर्द /व्यथा

* वार -सोमवार /27/01/20
* विधा -गीत

जुम्मन काका के नयनों से,टपक रहे थे मोती ।
फफक-फफक कर कहते जायें,कुछ ने आग लगाई ।

भारत एक पर एक नहीं था,सियासत के ये कांटे ।
तीन सौ सत्तर के नक्षत्रर, घाटी को थे बांटे ।
खाला,अम्मा और युवतियां,आशंकित सदा रहती ।
तीन तलाक की गाज गिरे जब,गंगा यमुना बहती ।

दफ्न कर दिया इन्हें जमीं में,राजनीति गरमाई ।
फफक-फफक कर कहते जायें, कुछ ने आग लगाई ।।

पूरा विश्व राम को माने, अवध राम की माता ।
भारत में कुछ कौये उड़ते,इनका क्या है जाता ।
कांय-कांय इनकी आदत है,रहे जनम के रोगी ।
टायर सिलते-सिलते देखो,अब हैं सुविधा भोगी ।

बाबर को ये बाप मानते, शीर्ष बात ठुकराई ।
फफक-फफक कर कहते जायें, कुछ ने आग लगाई ।।

सर्व धर्म भारत की पूंजी, कई फूलों की माला ।
पहला पुष्प कौनसा यारो, कौन बताने वाला ।
सौहार्द शांति रखो हमेशा,बोल प्यार की भाषा।
अखंड अटल वतन है मेरा,यहां न कोई प्यासा ।

हर साख के इन उल्लुओं को,बू अंजाम न आई ।
फफक-फफक कर कहते जायें, कुछ ने आग लगाई ।।

स्वरचित
रामगोपाल 'प्रयास 'गाडरवारा मध्य प्रदेश

दिनांक २७/१/२०२०
शीर्षक-दर्द/पीड़ा


दिल में दर्द छुपाये बैठा
हर एक से आस लगाए बैठा
अपना दर्द बहुत कम लगा
जब दूसरों के दर्द को जीना सीखा।

भुलाकर अपना दर्द
दूसरों के दर्द को बाँटना सीखा
उम्मीद लगाए बैठा था जो
दूसरों की उम्मीद बनना सीखा।

निमग्न रहा जो दुःख के सागर में
हमदर्द जमाना का बनना सीखा
दुःख ने दिये जो उसे दुःख
हास्य के रबर से मिटाना सीखा।

भर गया था जीने से मन
भलाई जमाना का करना सीखा
सुख दुःख चलता जीवन के संग
जीवन के मर्म को समझना सीखा।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।

दिन :- सोमवार
दिनांक :-27/01/2020

शीर्षक :- दर्द/पीड़ा/व्यथा

वक्त का ठहरा हुआ दर्द..
आज फिर गहरा हुआ है..
तन्हाई भरे इस सदन में..
फिर यादों का पहरा हुआ है..
उठने लगी है टीस रुक-रुककर..
हृदय उद्विग्न हो रहा धक-धककर..
दर्द कुछ यूँ ले रहा अंगडाई..
पल -पल थमा रहा है तन्हाई..
लहरा रहे सागर खारे...
पतवार नहीं मिल रही..
उठ रहे तूफाँ इतने..
कि साहिल नहीं टिक रहे..
दर्द देखो कैसे यहाँ...
दाम कौडियों के बिक रहे..
जिधर देखो दर्द ही है पसरा...
यहाँ दर्द का सागर है गहरा...
यहाँ दर्द का सागर है गहरा..

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश

नमन मंच
27-1-2020
दर्द
********
दर्द का भी किस्सा अजीब है,
जीता है साथ ऐसे, लगता सजीव है।
हो साथ प्रीतम के मीठा मीठा दर्द है,
माँ के आंचल में ममता की टीस है।
टूटता है दिल,धङकन या रुक जाए,होता असहनीय दर्द है।
ये दर्द ही तो है जो अपना सा लगता है,वरना कौन कहाँ किसका अजीज है।
दर्द का रिश्ता ही तो एक जान को दूसरी जान से जोड़ता है।
न होता दर्द तो अपना पराया न होता,
है रिश्ता दर्द का,तो इंसा, इंसा के करीब है।।
दर्द हो तन का मिट जाता है,
है दर्द दिल में तो मौत के करीब है।।
गीतांजली वार्ष्णेय
27जनवरी2020
विषय:-दर्द/पीड़ा/व्यथा
विधा:-हाइकु
1
पीकर पीड़ा
मजदूरी करती
उठाती बीड़ा
2
निज व्यथा को
माँ सबसे छुपाती
जीवन थाती
3
दर्द से रोता
अस्पताल में व्यक्ति
हाथ में पर्चा
4
रोड धरना
अभिव्यक्ति आजादी
व्यथा में मृत्यु
5
स्वतंत्र देश
लोकतंत्र की व्यथा
विपक्षी चिन्ता
6
वियोगी कवि
दर्द में रचा काव्य
ऋषि वाल्मीकि
7
सावन वर्षा
असहनीय पीड़ा
पिया वियोग
8
बूढ़ी आँखों में
पुत्र का इंतजार
व्यथा के आँसू
9
आतंकी वार
देश पर प्रहार
पीड़ा का बोझ

मनीष श्री
दिनांक-27/1/2020
विषय- दुःख/व्यथा/पीड़ा


दुख-सुख जीवन प्रतिछाया
समन्वय इनमें सदा रहता है
बारी-बारी से आते जीवन में
भाव दोनों में अलग रहता है ।

सुख आए तो लगता सुखकारी
दुःख ही हृदय को तड़फ़ाता है
सहनशीलता की यह पराकाष्ठा
मनोदशा का उत्पीड़न होता है ।

मत कहो मन की पीड़ा किसी से
बड़े बुजुर्गों ने यही सिखलाया है
दुख संजोने से बढ़ जाता तनाव
ऐसा मनोविज्ञान ने बतलाया है ।

आज ,हालात कुछ ऐसे हो गए
हर आदमी व्यथित सा दिखता है
कहीं,तन पीड़ा ; कहीं ,मन पीड़ा
पीडि़त हर आदमी ही दिखता है ।

पीड़ा की भी अपनी एक प्रकृति
साहस की परीक्षा लिया करती है
अनुभति के कोरे पन्ने पर अक्सर
साकार जीवंतता हुआ करती है ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
शीर्षक-दर्द,पीड़ा,व्यथा
विधा-हाइकु

1.
घायल पंछी
दर्द में कराहता
दवा चाहता
2.
मन की व्यथा
अंतरात्मा आवाज़
आँखें दर्शाती
3.
गरीब रोता
कर्ज़ का भार धोता
दर्द सहता
4.
विदाई बेला
हर कोई न जाने
दर्द कितना
5.
कौन जानता
बिन पूछे मन की
विरह कथा ।
***********
स्वरचित
अशोक कुमार ढोरिया

विषय- दर्द/पीड़ा/व्यथा

दर्द होता है उर में,जो कोई घात करता है।
ये दिल टूट जाता है, जब अपना ही घात करता है।।

वो बच्चों को उकसाते हैं, हम उनको सीख देते हैं।
वो नफरत के उपासक हैं, हम दिलों पर छाप रखते हैं।।

वो टुकड़े के समर्थक हैं , हम भारत के ही रक्षक हैं।
करें वो लाख आन्दोलन, हम नागरिकता के ही रक्षक हैं।

वो नफरत बोके बेबस हैं,हम भाईचारे वाले हैं।
वो मुर्दाबाद में खुश हैं, हम जिंदाबाद वाले हैं।।

आन्दोलन तो बहाना है, मकसद उनका बंटवारा है।
जो भौंक रहे हैं आज, सबक उनको सिखाना है।।
(अशोक राय वत्स)©®
स्वरचित
रैनी, मऊ उत्तरप्रदेश
27/1/2020
सोमवार
विषय -पीड़ा

पीड़ा ,

पीड़ा कितनी गहरी है
आकोगे कैसे ?
अश्रूओं से ?
मुख से ?
झूठी हँसी से ?
उसका पता तो इसी से चलेगा ,
उसके मन को कितनी
ठेस पहुँची है ,
धरती पर कितनी
यातना स ही है

विषम परिस्थितियों ,
मे रहकर भी जो
हीरा बनकर उभरा है ,
जो सबसे अनोखा है ,
सदा मुस्कुराता है ,

उसी की पीडा गहरी है ,
वही प्रेरणा स्रोत बना है .
पीड़ा ....
दर्द / व्यथा/पीड़ा

होते हैं
आंसू बड़े
बेदर्द
सह सकते
नहीं दर्द

करते नहीं
दर्द किसी से
बेबफाई
करते हैं बफाई
बेरहमी से

जब भी
होती है बात
दर्दे-ए-दिल की
याद आयेगे
बदनसीब
हीरा-रांझा हरदम

छिपा
दिल का दर्द
देता है आहें
दर्दभरी

समझो
पीड़ा दर्द पराई
थामेगा मौला
हाथ
फकीर

तोलो मत
रिश्तों को
पैसे से
होते
दर्द के
रिश्ते
फरिश्ते

सहा है
इतना दर्द
"संतोष"
अब तो दर्द
हो गये बेदर्द

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
27.1.2020
विषय--दर्द,पीड़ा

अग्नि के समक्ष मैं ,
दो भागों में बंट गई थी।
भरकर मांग सिंदूर से ,
मैं तप रही थी।
मेरी आशा ,मेरी जिज्ञासा पनप रही थी।
--- मेरा "प्रेम "उस तपोवन में था , जो मेरे अंदर हीं विराजमान था।
मेरी देह सेज पर सज रही थी जहां ,
किसी अजनबी को अपना मानने की जद्दोजहद ,
खुद से कर रही थी।
मैं अपरिचिता -सी ,उस आगंतुक को अपना सर्वस्व मान,
इस पावन -परिणय-सूत्र की लाज रख रही थी ---
और एक अपरिचित के ,
आगोश में ढल रही थी।
अपनों की खुशियों की वेदी पर ,
मेरे जज्बातों की बलि चढ़ रही थी।
मेरी पीड़ा सदा के लिए दफन हो रही थी।
***************************
स्वरचित --निवेदिता श्रीवास्तव ,जमशेदपुर, झारखण्ड

27-01-2020
विषय:-पीड़ा/व्यथा
विधा :- ताटंक छंद ( द्वितीय प्रस्तुति )

छलक रही है आँसू गगरी , पूछ रही कब आओ गे ।
फड़क रहे हैं अंग बाहिनें , जल्दी कंठ लगाओ गे ।।

तुम बिन मैं तो हुई बावरी , पीड़ा बहती आँखों से ।
दिखे नहीं बहती यह नदिया , विह्वल सूखी आँखों से ।।

नित्य देखती पंथ तुम्हारा , बरगद के नीचे जाती ।
गाते थे दोनों झूले पर , गीत अकेली हूँ गाती ।।

आती नीचे देख पक्षिनी , ढाढ़स मुझे बँधा देती ।
रक्तिम फल बरगद के चुन कर , मुझको फुदक खिला देती ।।

देख अभिसार चाँद चाँदनी , ईर्ष्या से जल मैं जाती ।
निशा विरहिणी मुझे देख कर , रोक न आँसू है पाती ।।

अश्रु पंक तन मैला करता , पद्म न विकसित मन का होता ।
प्रेम बीज दलदल में मरते , व्यथित हृदय रहता रोता ।।

शीघ्र लौट के आओ प्रीतम , करो विलम्ब नहीं प्यारे ।
बरस बरस के रिक्त न होते , मेघ नयन के ये कारे ।।

अपने तन की शरशैया पर , तुम बिन रहती हूँ सोई ।
यादों की तस्वीरें धुँधली , उनमें रहती हूँ खोई ।।

स्वरचित:-
ऊषा सेठी
सिरसा

।अधरों पे पीड़ा आई ।
व्यथा नहीं कहती मैं दिल की ,जब से ठुकराई
पीड़ा का अतिरेक देख कर , अधरों पर जमती काई ।।

मुलाक़ात

तेरी आंखो की जो वज़ा है सनम।
मेरे जीवन की वो फ़ज़ा है सनम।।

बेगुनाह पर सितम बेपनाह करो।
तेरे हर सितम में एक मज़ा है सनम।।

मेरे हो जाओ मेरे साथ रहो।
मेरे दिल की तो यही रज़ा है सनम।।

तुमको खंज़र की कहां जरूरत है।
हर ईशारा तीर-ए-क़ज़ा है सनम।।

तुमको देखा तो जी उठा है सरल।
तेरा हंसना भी जांफ़िज़ा है सनम।।

सुरेश जजावरा "सरल"
©®

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