Monday, January 6

"भीड़ "6जनवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-617
 हुजूम है भीड है तमाशा है।
आदमी खून का ही प्यासा है।।


हरेक जुबां की है कहानी जुदा।
इल्म कुछ नहीं क्या खुलासा है।।

पत्थर के हाथों में पत्थर थमे।
फरिश्तों ने किसे यूं तराशा है।।

मै खार को फूल कहता रहा।
फर्क उसमें मुझमें जरा सा है।।

ईमान पर हुई अकीदत मुझे।
उसी दिन से "सोहल" बुरा सा हैं।।

विपिन सोहल। स्वरचित

चौराहे पर
इतनी भीड़ क्यों?
अरे! ये तो दुखिया की बेटी है।
क्या हुआ भाई?
ओहहहहहहह!
कैसे सुरक्षित रहेंगी बेटियाँ
ब... ता...ओ, ब....ता....ओ जरा!
अरे! इन दरिंदों को.........
ओफ! कहाँ तक गिर गये हैं लोग
कि अब अपनी माँ,बाप,भाई,बहन
किसी को नहीं पहचानते
मर गई है इंसानियत
हमें हजारों - हजार बरस
जानवर से इंसान बनने में लगे
पर
इस इंसानियत से कहीं भली थी
जंगलों में विचरण करते
पशुओं की जिंदगी।

रत्नेश कुमार शर्मा"रत्नाकर"
मिहिजाम, जामताड़ा
झारखंड

विषय भीड़
विधा काव्य
06 जनवरी 2020,सोमवार

भागमभाग मची दुनियां भर
जिधर देखते भीड़ बड़ी है।
महानगरों की बुरी है हालत
जँहा देखें वँहा भीड़ खड़ी है।

जनसंख्या विस्फोट हो रहा
मातृभूमि का आँचल सीमित।
मंहगाई बेरोजगारी बढ़ रही
साधन कम चाह अपरिमित।

गाँव नगर शहर सब सारे
भीड़ बढ़ रही है बाजारों में।
चोरी सीनाजोरी बढ़ रही है
कारावासा भरे आवारों से।

लोकतंत्र भीड़तंत्र हो रहा
नित अपराध नये पनप रहे।
मानव करे मानव का शोषण
स्नेह सहयोग जग में खो रहे।

देवालय में भीड़ अति भारी
बड़ी पंक्तियां दर्शन न होते।
शोषक नित शोषण करते हैं
अति प्रदूषण सब जन रोते।

स्वरचित,मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।
विषय , भीड़ .
दिन, सोमवार .
दिनांक , ६ , १, २०२० .

सिलसिला ये अत्यधिक पुराना है ,
दंभ अनुभूति जिन्हें बाहर लाना है।
उन्हें ही जन भावों को उकसाना है ,
उद्देश्य यही भीड़ एकत्रित करना है।

मष्तिष्क भीड़ का शून्य ही रहता है ,
महत्वाकांक्षा का रूप भीड़ होती है।
चेहरा तो सामने बस एक ही रहता है,
बाकी सब तो भेड़ों का हुजूम रहता है।

ऐसे जनहित नहीं उत्पीड़न ही होता है ,
बंटवारा बस मीठे लफ्जों का होता है ।
भीड़ में हरदम झांसा ही दिया जाता है ,
फिर ये भुगतान भीड़ का बन जाता है ।

जो भी भीड़ जुटाने का इरादा रखते हैं ,
वे यहाँ इकट्ठा खुशियों को कर सकते हैं।
वे फूल हँसी के बाँट सभी को सकते हैं ,
नाम भीड़ का अच्छा फिर कर सकते हैं।

स्वरचित, मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश .

विषय-- भीड़
प्रथम प्रस्तुति

भीड़ में अपनी पहचान न खो देना
मिलि हुई आनबान शान न खो देना।।

माना कि वक्त अभी बेमजा बेतुका
जल्द में अंतस का गान न खो देना।।

जो भी मिला है नसीब से मिला है
पट्टे का खेत खलिहान न खो देना।।

विरासतों में जो पाए सम्मान हैं
पुर्वजों का वो सम्मान न खो देना।।

भीड़ में लोगों को बदलते देखा
मन कि एकाग्रता ध्यान न खो देना।।

भीड़ में दोस्त और दुश्मन भी हैं
सूझबूझ विवेक ज्ञान न खो देना ।।

दुनिया की भीड़ में सब अकेले 'शिवम'
प्रभु की साधना गुणगान न खो देना।।

कर भरोसा प्रभु की प्रभुताई पर
गैर के घर जाकर मान न खो देना।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 06/01/2020
दिनांक-6-1-2020
विषय-भीड़
विधा-छन्दमुक्त

मेरा न कोई धर्म है
न ही कोई जाति
मैं सब में घुल जाती हूँ
भली भांति
मैंने न वेद पढ़ें हैं
न बाइबिल कुरान
गुरू के वचनों से
मैं हूँ सदा अनजान
मैं जहाँ मतलब देखती हूँ
वहाँ चुपके से घुस जाती हूँ
ऊँचे आदर्शों से
मुझे क्या मतलब
मेरा स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए बस
कभी कभी तो मैं
चल पड़ती हूँ बेमतलब
मैं तो बस किसी का भी
अनुपालन करने चली जाती हूँ
मैं वहाँ भी पहुँच जाती हूँ
जहाँ मेरी ज़रूरत नहीं होती
नहीं दिखती मुझे
मदद को पुकारती
कोई असहाय लड़की
किसी मासूम बच्चे का रुदन
किसी दिव्यांग की बेबसी
बुजुर्गों की कराह
या किसी की आह
मैं गिर पड़ती हूँ मानवता पर
मैं स्वयं निर्णय नहीं ले पाती हूँ
क्योंकि
मैं भीड़ हूँ
जो कभी भी,कहीं भी
पहुँच जाती हूँ
कभी कभी तो...
पहुंचा दी जाती हूँ।।

शीर्षक-भीड़

भीड़ में नहीं,अकेला दिख।
तू मानव है नहीं भेड़।
भीड़ में नहीं
क्षमता सोच की।
छिपे बीच में
भेड़िया भी अनगिनत।
भीड़ में कायर भी बलवान होते।
भीड़ में बेबकूफ भी बुद्धिजीवी बन जाते।
भीड़ में लोकलन्त्र भी अराजक हो जाता।
भीड़ में अहिंसा का नारा भी हिंसा कर जाता।
भीड़ में हिन्दुस्तानी भी पाकिस्तानी बन जाता।
तो हे मानव!
बचाना है अपना
अस्तित्व और दिखाना है
अपना व्यक्तित्व
फिर भीड़ से बाहर आजा।
हो सके तो बना कृतित्व।
भीड़ तेरे पीछे आयेगी,
तुझे ही सुनेगी और
देखेगी तेरी ही
सृष्टि।।
प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
06/01/2020

6 /1/2020
बिषय,, भीड़
इस भीड़ में अपना सा न कोई
मैं भी न जाने कहाँ खोई
देखा सबको आते जाते
निभाए खूब रिश्ते नाते
बस स्वार्थ सिद्ध के अपने
बुरे वक्त में अपना कोई नहीं
यारी दोस्ती भी देखी
धोखे ही धोखे मिले. यहाँ
अपनों ने ही लूट लिया
गैरों की कोई बात नहीं
अच्छा ही मिला जो कुछ भी मिला
जमाने से फिर क्यों गिला
यही सोच सोच कर जागी मैं
कई रातों से सोई नहीं
स्वरचित,, सुषमा ब्यौहार

विषय :भीड़
6/1/2020

“भीड़”
💐💐💐💐💐💐💐
दुख होता है
देखके भीड़ का उन्मादी चेहरा
इसकी ना कोई जाति ना पहचान
यहाँ सब होते हैं एक से बढ़कर एक हैवान
कारण कुछ भी हो , कृत्य
कैसा भी हो
हाथ लग जाए बस एक मजबूर इन्सान
करने लगते है सब उसका अपमान
सब लगते हैं उसपे हाथ सेंकने
पीट कर उसको लगते हैं अपने पाप धोने
बिना जाने समझे उठा देते हैं हाथ
समझना नहीं चाहता कोई उसकी एक भी बात
बिना पूछे देने लगते हैं धक्के
चलाते हैं लात घूँसे ओर मुक्के
चारों ओर हो रहीं है यही घटनाएँ
कुछ मारें पीटें कुछ विडीओ बनाएँ
पीट- पीट के ले लेते हैं प्राण
सच इन्सान उस वक़्त बन जाते हैं पूरे शैतान
माना पिटने वाले भी होते अपराधी
पर इतनी निर्ममता दिखाना नहीं ज़रूरी
मारने से पहले जाने उसका भी पक्ष
बचने ओर जीने का दें उसको भी हक़
पता नही कौन सी है ग्रंथी
कैसा ख़त्म होगी मनुष्य की ये विकृति
काश हम सब अपना विवेक जगायें
मर ना जाए इंसानियत पहले उसको बचायें
शहला जावेद

Damyanti Damyanti 
विषय_ भीड़
भीड़ कोई वजूद अस्तित्व नही
भीड़ अकेला नही कोईभी |
एक अफवाह से कई लोगहोते एकत्रित |
इसमे अपना उल्लु सीधा करते
होते शैतान |
निज हित भीड मे फैल अफवाह ऐ
करते दंगे फसाद,अग्निकांड
स्वयं लाभ उठा देश को देते क्षति |
भीड के कोई धर्म न गुण नजाति |
आज प्रजातंत्र बड रहा देखो किस ओर |
नेताओ की भीड मे दब रहा जन हित |
सांसे भी थमती सी नजर आ रही
मानव का दम हे घुट रहो |
गली मुहल्ला बाजार सभी भीड़ भरे |
बस भागमभाग निज के हित भी ध्यान नही |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा
06/01/2020
"भीड़"
माहिया

सूरत तेरी प्यारी
भीड़ में देख लूँ
यादें भी न बिसारी

भीड़ में छूटा साथ
मिला था सहारा
थाम लूँ किसका हाथ

भीड़ में भी अकेली
अपना हो कोई
अब ढूँढ़ती सहेली

भीड़ के हजार जुबाँ
कौन किसको सुनें
अनोखा है कारवाँ

इक हसीन मुलाकात
भीड़ से दूर जा
रहा जीवन भर साथ

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।

भावों के मोती
6/1/20
भीड़...
चारों और गहन सन्नटे में भी मैं
महसूस करती हूँ...भीड़ है कहीं मेरे अंदर.... जिसका शोर बस सुनाई देता है मुझे.... जैसे सबाल करता हो मुझसे.....की तुम नहीं समझ सकते हो मेरे अंदर के शोर को....
निस्तब्ध नीरवता में भी एक इतनी भीड़ का अहसास उसका शोर जो मेरे दिल को चीर देता है.... कोई गहरी टीस मानो नस नस में कोई लावा सा वहा देती है.... हाँ शांत दिखने वाला झील से मन में... समंदर से भी अधिक ज्वार भाटे सी उठती गिरती लहरें हैं जो मेरे मन के सन्नाटे में तूफ़ान लाती हैं बेचैन से मन में सच में लगता है कितने स्वरों की सरगम तरंगित होकर मेरे विचारों की भीड़ को उद्देलित कर मेरे मन में कोई हलचल करती है...
पर तुम नहीं समझोगे..... इस विचार श्रृंखला को... कभी नहीं...
पूजा नबीरा काटोल

तिथि : 6/ 1/ 2020
विषय : भीड़
विधा : कविता

भीड़
-------

नकारात्मक विचारों की
भीड़ हो सब तितर-बितर
लग न पाए समाज को-
इनका, कोई भी छितर।

यह रुढ़िवादी परम्पराएं -
अब और नहीं पाएं पसर,
ऐसी वैसी भीड़ का कभी
समाज पर न आए असर।

सकारात्मक सोच कभी
मानव को न जाए बिसर
धार्मिकता फैलाने में हां-
रह न जाए कोई कसर।

समाज में फैले हर विष को
दफ़ना दो तुम जान मृतक
करा सब भीड़ को मधुपान
अहिंसा - करुणा का अमृत।
--रीता ग्रोवर
स्वरचित
दिनांक ६/१/२०१९
शीर्षक-भीड़

विधा-लघुकथा।

"अरे! अनिल रूको,देखो तो उधर कितनी भीड़ है,चलो चलकर देखते हैं लगता है की किसी की दुर्घटना हो गई है,चलो चलकर पता करते हैं की आखिर वहा हुआ क्या है?"
अनिल , गाड़ी चलाते हुए अपनी पत्नी विन्नी से कहा:"अभी हमें मामा के घर पहुंचना है,उनके बेटे का सगाई समारोह में शामिल होना है,देर हो जाने से मामा मामी नाराज हो जायेंगे"।
कही उनकी गाड़ी भीड़ में फंस न जाये यही सोचते हुए उसने अपनी कार की गति तीव्र कर दी,और एक बार भी भीड़ में घुसकर ये देखने की हिमाकत नही की कि आखिर हुआ क्या है? या फिर यदि दुर्घटना में यदि कोई घायल हुआ है तो वह कौन है?
जबकि वह जानता था कि उसे वैसा नही करना चाहिए, क्योंकि वह एक सभ्य और जिम्मेदार नागरिक हैं, परन्तु पता नही उस दिन उसे क्या हुआ था,कि एकपल भी रूक कर अपना समय गंवाना नही चाहता था।
उसके मामा का घर शहर के दूसरे छोर पर था,अभी वह वहां पहूंचा ही था कि उसकी मोबाइल घनघना उठी,दूसरे तरफ से उसके जिगरी दोस्त की पत्नी थी,जो रो रो कर बता रही थी कि उसका पति अभी थोड़ी देर पहले कुछ जरूरी काम से घर से बाहर निकले थे कि अभी उसकी दुर्घटना होने की खबर आई है,आप कृपया अस्पताल आ जाइए,क्योकि इस शहर में मुझे जानने वाला और कोई नही है,और शायद उन्हें खून की भी जरूरत है,क्योकिं माथे के चोट के कारण खून बहुत निकल गया है।
अब अनिल की हालत पतली हो रही थी,क्योकि दुर्घटना की जो जगह उसके दोस्त की पत्नी ने बताई थी,वही के भीड़ से तो वह बच कर निकल भागा था,वह भागकर अस्पताल गया और अपने दोस्त की हालत देखकर उसे बहुत पश्चताप हुआ,क्योकि सही समय पर अस्पताल नही पहुंच पानेऔर अधिक खून बह जाने के कारण उसकी मृत्यु हो चुकी थी।वह घोर पश्चताप में डूब गया कि यदि वहभीड़ को अनदेखा न कर यदि वह जानने की कोशिश करता,कि हुआ क्या है और अपने दोस्त को सही समय पर अस्पताल पहुंचाता तो उसका दोस्त आज जीवित होता अब उसने यह प्रण लिया कि भीड़ में वह सिर्फ इक्कठा होकर भीड़ नही बढ़ायेगा बल्कि यदि भीड़ में किसी को मदद चाहिए तो वह कभी पीछे नही हटेगा।

स्वरचित आरती श्रीवास्तव।
विषय -भीड़
दि.सोमवार/6.1.2020

विधा--दोहा मुक्तक

1.
भीड़ रीढ़ को तोड़ती, बढ़ती जाती रोज।
सड़क,ट्रेन और बस पर, भीड़ बन रही बोझ।
घटती सीमित भूमि कृषि, तथा बढ़ रहे लोग--
सोच समझ गर नहिं चले, निकल जायगी मौज।
2.
सदुपयोग भी भीड़ का , कर सकती सरकार ।
मगर योजना चाहिए, सोच समझ दरकार।
पति पत्नी में एक को, दें शासकीय काम---
काम मिले परिवार को, तथा घटे तकरार।

*******स्वरचित******
प्रबोध मिश्र ' हितैषी '
बड़वानी(म.प्र.)451551
विषय -भीड़
दिनांक -6 -1- 2020
जब से दिल में,मैंने उसको बसाया था।
भीड़ में तन्हा,मैंने खुद को पाया था।।

बहुत समझाया,पर समझ ना आया था।
दिल पर, कब कहाँ बस चल पाया था।।

प्यार में खुद को,मैने पागल बनाया था।
ना हुई वो मेरी,पर मैं हुआ पराया था।।

मन का सुख चैन,मैंने ऐसे गवाँया था।
वो हो गई ओर की,बैघर मुझे बनाया था।।

भीड़ से बेखबर,मैं यादों में खोया था।
जब लगी टक्कर,मैं होश में आया था।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
6/01/2020
विषय: भीड़


गरीब की झोपड़ी में अन्न का दाना भी दुर्लभ है,
वोटों की गिनती को गरीबों की भीड़ ही सुलभ है।।

भीड़ में गुम हो गया वो बचपन,
अब तो उम्र भी हो गयी पचपन।।

अब नही दिखती चेहरे पर वो हंसी,
तन्हाइयों की भीड़ में हंसी भी फंसी।।

मानवता विलुप्त, आज स्वार्थ की भीड़ में,
हाय पैसा,हाय पैसा चूजे भी करते नीड़ में।।

मदिरालय में पसरी बड़ी भीड़ है,
जाम पे जाम,लगे शांति की नीड़ है।।

बेबस बीमार लोगों की बड़ी पीड़ है,
अस्पताल में जमी भीड़ ही भीड़ है।।

स्वरचित
मनीष कुमार श्रीवास्तव

विषय भीड़
विधा कविता

दिनाँक 6.1.2020
दिन सोमवार

भीड़
💘💘

आज जहाँ देखो भीड़ का बोलबाला है
इस भीड़ ने छीना बहुतों का निवाला है
कई ज़गह तो आतंकियों की पनपती शाला है
जिसने शाँति का सारा ही दम निकाला है।

भीड़ इतनी बढी़ कि हर रस्ता ही जाम हुआ
पाँच मिनट मे होने वाला पच्चीस मिनट में काम हुआ
पैदावार बढे़ अतः पैस्टीसाइड्स का प्रयोग हुआ
मिर्ची जैसी चीजो़ं में भी अल्प समय में रोग हुआ।

बेरोज़गारी बढ़ गई उध्योग भी सिकुड़ गये
घी और मावे भी नकली की भेंट चढ़ गये
भीड़ के कदमों से हर व्यवस्था चरमरा गई
न जाने कितने युवाओं के सपने यूँ ही झड़ गये।

स्व रचित
सुमित्रा नन्दन पन्त
जयपुर
विषय: भीड़
दिनांक:06/01/2020


शीर्षक :भीड़

होती है बाजारों में भीड़ जहाँ माल सस्ता मिलता।
होती है दुल्हनों की भारी भीड़ जहाँ दूल्हा बिकता।
होती है बच्चों की भारी भीड़ जहाँ मेला लगता।
होती है मंदिर में भारी भीड़ जहाँ दरबार सजता।
होती है मदारी तमाशा भीड़ जहाँ डमरू बजता।
होती है मतदान केंद्र पर भीड़ जहाँ वोट पड़ता।
होती है हॉस्पिटल भीड़ जहाँ रोगी इलाज चलता।
होती है बागों में भीड़ जहाँ स्वास्थ्य लाभ मिलता।
होती है साहित्य भीड़ जहाँ 'रिखब' सृजन करता।

रिखब चन्द राँका 'कल्पेश'
स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित
जयपुर राजस्थान

तिथि -6/1/2020/सोमवार
विषय -*भीड*

विधा॒॒॒- छंदमुक्त

इस दुनिया की भीड में
मै अपने अस्तित्व को खोज रहा हूँ।
लगातार इसी की लडाई
जन्म से आजतक
लड रहा हूँ ।
समझ नहीं
पाया कहाँ हूँ
कैसे किस माहोल में ईश को छोडकर
किसके चरणों में
क्यों पडा हूँ।
भीड की रेलमपेल बडती जा रही है
मगर पता नहीं
ये सवारी
कहाँ जा रही है।
लक्ष्य हीन आदमी बढ रहा है
तभी तो एक इंच आगे नहीं बढ रहा है।
मैने भौतिकता को ही अपनी प्रगति मान लिया है और भीड में
अपने माथे पर एक
अजीब सा
प्रगतिशीलता का तमगा बांध लिया है।
मानवता ढूंढ रहा हूं
जिसका नामोनिशान भी नहीं मिल रहा
यहां मुझे इस आदमी की भीड में भी
ढूंढे से कोई
सही आदमी नहीं
मिल रहा।
मात्र मानवता मुखौटे ओढे घूम रही है
जैसे अपने आपको ही
किसी ऊहापोह से
उबार रही है।

स्वरचितःः
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश
6/1/2020
भीड़


बस एक भीड़
लिए उन्माद का रूप
खिलते खेलते घर को
कर गई तबाह
एक आह न निकल पाई
हुआ सब कुछ बर्बाद ।

क्या था कसूर
यूँ होना
किसी गलतफहमी का शिकार
बस हो गई थी एक दुर्घटना
हुआ सब खत्म
रचा गया तबाही का मंजर
थोड़ी सी सहानुभूति
पल दो पल का जोश
ठंडा हुआ था सारा आक्रोश
पूरा परिवार हुआ था तबाह।

एक भीड़
एक पल के उन्माद ने
रच दिया था
बर्बादियों का रेला
और सूनसान हुआ था
मेरे लिए जग का मेला.......

मीनाक्षी भटनागर
स्वरचित
विषय - भीड़
06/01/20

सोमवार
कविता

भीड़ में दुनिया की खोई जिंदगी कुछ इस कदर,
खुद की ही पहचान खोता जा रहा है आदमी।

सर्द है रिश्तों की गर्माहट समय के फेर में,
अपनों से ही दूर होता जा रहा है आदमी।

घुट रही इंसानियत हैवानियत की कैद में,
कलुषता के बीज बोता जा रहा है आदमी।

लोभ- लालच- लालसा ही सत्य हैं उसके लिए,
वैभवों का घर संजोता जा रहा है आदमी।

बाहरी दुनिया से उसका न कोई रिश्ता रहा,
दर्द में खुद को डुबोता जा रहा है आदमी।

स्वरचित
डॉ ललिता सेंगर
भीड़

न करो कभी
भीड़ का अनुसरण
करो हमेशा
सत्य का अनुकरण

होती जब
भीड़ बेकाबू
होता जन
धन का नाश
हैं नहीँ वो देशभक्त
बल्कि होते कई
विध्वंसक
चेहरे बेनक़ाब

मत चलो
कभी भेड़चाल
रखो अपना
विवेक साथ
बहकावे में
करते जो काम
नहीं आता
कुछ उनके हाथ
होते बदनाम
करते खराब
अपने माता पिता
का नाम

रहो स्कूल कालेज में
अनुशासन से
जाते है पढ़ने
भविष्य बनाने
गर रहे भीड़ संग
बिगड़ जायेंगे
जीवन के रंग

स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल
विषय भीड़
दिनांक 06/01/2020

~~~~~~~~~~~~~
भीड़
``````````````
भीड़ जब सामने होती है
दुनिया हिल जाती है
भीड़ की ताकत के आगे
हर ताकत झुक जाती है
भीड़ में लोकतंत्र होता है
भीड़ में शहादत होती है
भीड़ में इंसाफ होता है
भीड़ में फैसला होता है
बुराई को हराती है भीड़
सच्चाई को जिताती है भीड़
~विजय कांत वर्मा
06/01/2020

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