Sunday, January 5

"स्वतन्त्र लेखन"5जनवरी 2020

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ब्लॉग संख्या :-616
विषय स्वतंत्र लेखन,मिट्टी का लौंदा
विधा काव्य

5 जनवरी 2020,रविवार

घूमते हुये चाक पर,मिट्टी का लौंदा बोलता है।
डंडे की घुमाई पाकर,मन ही मन डोलता है।

मटका मटकी दीपक बने,गोल गोल चाक पर।
श्रमिक बूंद प्यास बुझावेअपनी ठंडी धार धर।
बार बार आँसू पौंछे,फिर वह मन सोचता है।
भारत माँ की स्वर्ण मिट्टी ,धनिक वर्ग नोचता है।

गेंती खाई लात खाई,मुँह ऊपर कुछ थाप खाई।
चांटे खाते खाते मुझमें, थोड़ी सी तमीज आई।
कुम्भकार निर्मित मूरत ,बाजारों में छोड़ता है।
प्रभु मूरत की पूजन करने,बाजारों में बेचता है।

क्या मर्जी है कुम्भकार की,कैसे मुझे बनाया है।
रचना करके पल भर में,अग्नि मुझे जलाया है।
अग्नि परख उत्तीर्ण कराकर,बाजारों में बेचता है।
खन खनाती मुद्राओं से, वह स्वंय नित खेलता है।

फूल चढ़ाते माल चढ़ाते,मीठे मीठे भोग लगाते।
कई कामना लाते मन ,झुक झुक शीश झुकाते।
जीवन के उपवन में मानव,जैसा पौधा रोपता है।
जो बोवोग वह ही पावेगा ,गौतम ऐसा सोचता है।

स्वरचित, मौलिक
गोविन्द प्रसाद गौतम
कोटा,राजस्थान।

दिनांक-05/01/2020
विषय-स्वतंत्र लेखन

मात्राभार-2122 2122 212
अर्कान-फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
क़ाफ़िया- आना स्वर
रदीफ़- चाहिए ।
विधा -ग़ज़ल
====================
जो गिरे उसको उठाना चाहिए ।
इस पै सारा बल लगाना चाहिए ।।

मेरे दिल का हाल जानो आप भी,
यूँ हँसाकर मत रुलाना चाहिए।।

घास के मैदान मिल जायें कहीं ,
फिर वहीं पशुधन चराना चाहिए ।।

आप मिलते ही रहें हर मोड़ पर ,
बात करने को बहाना चाहिए ।।

चाहना है आदमी इतना करे ,
आदमी के काम आना चाहिए ।।
=======================
'अ़क्स ' दौनेरिया

दिनांक -5/01/2020
विषय-स्वतंत्र


( भारतीय संस्कृति का आदित्य )
विधा - छंदमुक्त कविता

मेरी भारतीय संस्कृति की गाथा
जग में सबसे अजब निराली है ,
प्रकृति से जन-जन का नाता
समरसता इसकी ख़ुशहाली है ।

रात्रि का गहन तम चीरकर
आदित्य देव चले आते हैं ,
इसके तप से तापित होकर
एक नई ऊर्जा हम पाते हैं ।

अदिति पुत्र कहलाता आदित्य
जो स्वर्णिम आभा बिखराता है ,
निद्रा को तजकर जीव -जगत
घरौंदों से बाहर आ जाता है ।

प्राची में जब होता सुशोभित
जन जीवन में हलचल होती है ,
करबद्ध होकर सब करें वंदना
दिनचर्या की शुरुआत होती है ।

स्नान क्रिया से होकर पवित्र
लोग दीया बाती जलाते हैं ,
लुटिया भरकर मात्र जल से
आदित्य देव को रिझाते हैं ।

मंदिरों के सब कपाट खुल जाते
इष्ट देव देवियाँ मुसकाते हैं ,
आस्था, श्रद्धा के परम भक्त
उनके दर्शन करने चले आते हैं ।

बैलों की जोड़ी को चारा पानी दे
कृषक अपने खेतों में जाते है ,
माटी के कणों में पनपी फ़सल
मन पुलकित हर्षित हो जाते है ।

पनिहारिन की पायल झंकार सुन
पनघट पर रौनक़ बढ़ जाती है,
धरकर सिर पर माटी के मटके
वे बतियाती -खिलखिलाती हैं ।

नव विहान का संदेश लेकर
सूरज हर एक दिन आता है ,
साँझ ढले जब थक सा जाता
निशा को निमंत्रण भिजवाता है ।

संतोष कुमारी ‘ संप्रीति ‘
स्वरचित एवं मौलिक
05/01/2020
स्वतंत्र लेखन .....

"खाट"
1
है
खाट
आराम
ढाबा शान
पथिक जान
देशी खान-पान
तड़का,रोटी,प्याज।
2

पिया
रतिया
डोले हिया
देख खटिया
सोहनी माहिया
बैठ करे बतिया।

स्वरचित पूर्णिमा साह
पश्चिम बंगाल ।।
।। कागा की कसक ।।

मीठी वाणी सब जानें
पर लायें कहाँ से यार ।।

कागा पेड़ पर बैठकर
करे है ये सोच-विचार ।।

सजा कहें इस जन्म को
या कहें इसे उपहार ।।

कहने को कुछ भी कहे
ये दुनिया ये संसार ।।

हंस हँसे अपने तन पर
इठलाये हर एक बार ।।

देखो कैसे कर लेते
हैं हम अपना ये शिकार ।।

देख कर वाणी और तन
को करो न तिरस्कार ।।

कागा में भी खास गुण
मिल बाँट कर खाये यार ।।

हंस ने तो हद कर दी
ठगी का सारा व्यापार ।।

पहेलियाँ हर शय 'शिवम'
समझना सदा ये सार ।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 05/01/2020

दिनांक-05/12/2020
स्वतंत्र लेखन


नायिका जब सोलह श्रृंगार करती है....नायक के लिये

कर के आऊं जब मै सोलह श्रृंगार ,तेरे नैन मुझे देखें, मेरे कजरे की धार......

मेरे होंठ हया की लाली है
कानों में मधुर प्रीति की बाली है
हार सजा है कुंदन का
खिले फूल चंदन का
गेसू में हो गजरे का प्यार
नैनों में हो अश्रु की जलधार
जब मैं करके आई सोलह श्रृंगार....
मांग मेरी सिंदूर भरा
है टीका उसका पहरेदार
मेरे कंगन तुझे बुलाते
बिन सजना ,के ये बेकार
जब मैं करके आई सोलह श्रृंगार ....
हाथ में भीनी खुशबू है
मेहंदी है ,चुनरी है धानी गोटेदार
हाथ में खनके चूड़ी है
पैरों में पायल की झंकार
मैं करके आई सोलह श्रृंगार....
बिन सजना के है बेकार

सत्य प्रकाश सिंह केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज इलाहाबाद

"भावों के मोती"
5/1/2020

स्वतंत्र लेखन
एकाकीपन
**********
हैं चारों ओर मेरे अपने
फिर भी मन एकाकी है
एक अनछुआ सा एहसास है
अन्तःमन मन मे चलता एक
द्वंद
फिर उस एकाकीपन का बादल
मन को घेर लेता है
औऱ आंखे न जाने क्यूँ बरबस
बरस जाती हैं
कुछ बातें जैसे मन मे रह जाती
हैं कहने को
एक लहर सी उठती है मन मे
क्यूँ है मन का एक
कोना रीता सा जैसे श्वेत कागज़ का
टुकड़ा जिस पर कोई लफ्ज़ न
उकेरे जा सकेंगें ।।
स्वरचित
अंजना सक्सेना
इंदौर
मेरा टपका खून और मेरी नन्हीं पोती
मैंने देखी उसमें करुण भावना रोती
💘💘💘💘💘💘💘💘💘

दाडी़ ब
नाते समय मेरा ध्यान थोडा़ हट गया
और ब्लेड से दाहिना गाल हल्का सा कट गया
खून की कुछ बूँदें परिलक्षित हो गईं
और नन्हीं पोती की सँवेदना भिगो गईं।

मासूम की अन्तरवेदना प्यार में झलक उठी
दादा की पीर दूर करने की उसमें ललक उठी
ज़ल्दी से वह क्रीम मेरे लिये ले आई
बडे़ मनोयोग से उसने मेरी त्वचा सहलाई।

नन्हीं में सारी करुणा थी समाई
सच है भोले भाव मिले रघुराई
उसने ठीक होने का विश्वास भी दिलाया
अपनी सहानुभूति का मेघ मुझ पर बरसाया।

बच्चे ही तो मन में अनोखा लाते सावन
झुलसते मन के लिये शीतल लाते छावन
इनके सानिध्य में मन निर्मल होता
और होता अध्यात्म् दृष्टि से पावन।
🌾🌺 गीतिका 🌺🌾
****************************
मापनी- 212 , 212 , 212 , 212
समान्त- आने , पदांत- लगी
🌹🌴🌹🌴🌹🌴🌹🌴🌹🌴

भोर की नव किरण मुस्कराने लगी ।
प्राण की बाँसुरी गुनगुनाने लगी ।।

नेह जागा तभी उर खिली नव कली ,
बज उठी रागिनी प्रीति छाने लगी ।

था सुहाना समाँ , कोयली कूकती ,
आज मन का तराना सुनाने लगी ।

यों चली सरसराती पवन पुरवई ,
सुरमई रागिनी मन लुभाने लगी ।

आ गयी याद पिय की न आये अभी ,
पीर हिय में उठी तड़पड़ाने लगी ।।

🌹🍏🌺🌻

🌻🌺**...रवीन्द्र वर्मा आगरा
विषय- स्वतंत्र

दिनांक 5-1- 2020

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

मीठे बोल राह भटकाएंगे,मान यही सच्चाई है।
बुजुर्गों ने समझाया,बात कहा समझ आई है।।

शब्दों में कठोरता,राह नेक उसने दिखाई है।
संग सदा वह खड़ा रहा,जैसे तेरी परछाई है ।।

सच्चाई जग में,सबने सदा ऐसे ही बिसराई है।
अपनी गलती को मनु,तूने नित ही दोहराई है।।

नापाक मंशा मुकम्मल,कभी नहीं हो पाई है।
झूठी राह अपना,हकीकत जिसने बिसराई है।।

झूठ फरेब नकाब लगा,सब हकीकत छुपाई है।
प्रभु पारखी नजर से,नहीं बचा कोई भाई है।।

सच्चाई पर जो अड़े रहे,हंसकर जान गवाई है।
मर कर अमरता जग में,कुछ बिरलो ने पाई है।।

कह रही वीणा,यह दुनिया बहुत ही तमाशाई है।
झूठ दौड़ रहा,पर सच्चाई की नहीं सुनवाई है।।

वीणा वैष्णव
कांकरोली
5 /1/2020
बिषय,, स्वतंत्र लेखन

रोशनी के लिए एक चिराग काफी है
जलाने के लिए थोड़ी सी आग काफी है
गैरों से.क्या. गिला.दर्द. अपने ही देते हैं
गिराने में कोई कसर नहीं फिर हँस हँस के मजे लेते हैं
परायों की क्या मजाल जो बुरी नजर से देखे
ए तो इनकी ही चालें.जो नजरों से गिरा देते हैं
डूबता वही जिसे तैरना आता है
वरना लोग किनारे से ही मजा लेते हैं
किस किस पर भरोसा कीजिए किसको कहें अपना
भरोसेमंद ही तो कश्ती डुबा देते हैं
जीवन भर न मिटने बाले जख्म
यही तो वो लोग हैं जो नासूर बना देते हैं
स्वरचित,, सुषमा, ब्यौहार

विषय: मनपसंद
दिनांक:05/01/2020


शीर्षक : किसान

धरती का अन्नदाता किसान,
कांधे पर हल साजे निशान।
अन्न देवता स्वरूप भगवान,
बैलगाड़ी है जिसका वाहन।

सर्दी, गर्मी और वर्षा सहता,
अहर्निशं यह मेहनत करता।
खेतों में नित फसलें उगाता,
जग का धान से पेट भरता।

किसान छेड़ता मधुर तान,
बैलों के गले में घूंघरू गान।
पशु - पक्षी जंगल की शान,
अतिथि देव का करता मान।

मोर सिर ताज कलंगी धारा,
पंख फैलाकर नाचता प्यारा।
किसान का यह सखा प्यारा,
फसलों का हरदम रखवारा।

प्रकृति में ये हरियाली लाता,
वसुंधरा की सुंदरता बढ़ाता।
प्रेम प्यार के गीत यह गाता,
'रिखब' संग में सुर मिलाता।

रिखब चन्द राँका 'कल्पेश'
स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित
जयपुर राजस्थान

.05.01.2020
रविवार

विषय -
मन पसंद विषय लेखन

मिटो न तुम तो

मिटो न तुम तो,हम मिट जाएँ कितने करें उपाय
हर दल में ,अपने को रखें दल-दल में फँस जाय ।।

अच्छे दिन भी रास न आते,
अच्छे दिन के ख़्वाब सताते
इधर-उधर की बातें करते,
सच को झूठ बतलाय ।।

चैन न लेने दें औरों को,बंदर बाँट में रहते
मनवांछित फल मिलते जाते,तब तक सब मुसकाय।।

छल-बल का है,खेल निराला
फँसते और फँसाते
राजनीति का चक्रव्यूह है, अभिमन्यु बन जाय ।।

आतंकी जेहादी को तो,सदा
पोसते रहते
उनसे बढ़ कर हैं नेता जी,
कौन इन्हें समझाय ।।

हमसे अब ‘ उदार ‘ मत पूछो,इनकी कथनी-करनी
कहते क्या करते क्या हैं ये, ख़ुद ही समय ना आय ।।

स्वरचित
डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार

5/1/2020
विधा-स्वतंत्र लेखन


🌺कुछ मुकरियाँ🌺

अंधियारी आधी रात में आया
उसकी आहट से मन घबराया
छुपके आये कमरे की ओर
क्या सखि साजन ?ना सखि , चोर!

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

जलद -नाद सुन गीत सुनाए !
नाच दिखा कर मन भरमाये!
रूप सजीला है चितचोर!
क्या सखि साजन? ना सखि, मोर

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

सिगरी रात ठंड मोहे लागी!
उसके बिना रात भर जागी!
कोरे नैनन रैन बिताई!
क्या सखि साजन?ना सखि,रजाई!

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

नेह भर नैनन,मद बिखराया!
करूँ रतजगे, प्रेम जगाया!
भरे उन्माद,करूँ मैं कंत,कंत!
क्या सखि साजन?ना सखि ,वसंत!

आशा शुक्ला
शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश
Damyanti Damyanti 
विषय_स्वतंत्र
आशा |
आ जाओ मेरे श्याम सलोने,बन के मेरे मीत आ जाओ

मन की तमन्नाएं फिर मचलने लगी, तुम से मिलने प्यारे |
मेरी बिगडी सभंल जाये, अगर तुम मिल जाओ |
2. मुझे गम है मैने जिदंगी मे कुछ पाया नही|
ये गम दिल से निकल जाये,अगर तुम फिर से मिल जाओ |
संसारिक आशाओ मे उलझा जीवन ये२
ये उलझने सभी सुलझ जाये, श्याम प्यारे अगर तुम मिल जाओ!!3!! नैयन निकले ये अश्रु कह बेकार न चले जाये'२'
तेरे चरणो पर गिर ये बने मोती,अगर सावरे तुम मिल जावो |
न मिले तुम तो संसारिक माया जाल मुझे रुलाता हे |
कटे ये माया के भव बंधन ,सावंरे अगर तुम मिल जाओ |
स्वरचित_ दमयंती मिश्रा 

०५/०१/२०२०
स्वतंत्र विषय


"मेरी कविता एक ताकत है"

मेरी कविता वह पीड़ा है,जो उर के भाव सुनाती है।
भारत माँ के हर पल पल का,यह हाल सभी को सुनाती है।।

जब भी मन आहत होता है, मेरी कलम बोलने लगती है।
फिर चाहे जो अंजाम मिले, यह पोल खोलने लगती है।।

अंधे की लाठी से लेकर, अबला का सहारा बनती है।
अंजाम की चिंता न करके, हर पल यह खुलासा करती है।।

भ्रष्टाचारी दूर भागते हैं,सच को यह गले लगाती है।
जब मार्ग रोकता है कोई, रणचंडी यह बन जाती है।।

निर्बल को सबल बनाती है, खोया वैभव लौटाती है।
अरि दल में जब भी घुसती है,विध्वंसक यह बन जाती है।।

मेरी कविता एक ताकत है, ज्वाला की भांति धधकती है।
बन सखा कृष्ण की भांति सदा, अर्जुन को युद्ध जिताती है।।

कभी दूत औऱ कभी मित्र बन, सच का मार्ग दिखाती है।
लेकिन जितने भी पापी हैं,पल पल उनको तड़पाती है।।

कभी सावरकर कभी शिवाजी, कभी कलाम सरीखी है।
पन्ना सा इसमें राज धर्म, क्षत्राणी हाड़ी रानी सी है।।

मर्दानी झांसी रानी सी, और स्वाभिमानी राणा सी है।
शेखर सी दृढ़ संकल्पी तो,निर्भीक वीर भगत सी है।।

मेरी कविता एक ताकत है,जो उर के भाव सुनाती है।
फिर चाहे जो अंजाम मिले, यह तनिक नहीं घबराती है।।
(अशोक राय वत्स) © स्वरचित
रैनी, मऊ, उत्तरप्रदेश।
स्वतंत्र
05/01/20

कुंडलिया
1)
पनघट

पनघट पर घट ले खड़ी,मृग तृष्णा की प्यास।
रिक्त घड़ा कैसे भरें ,जीवन में ये आस ।।
जीवन में ये आस,तप्त मन कर दें शीतल ।
एक बूँद की चाह ,तृप्त अब करें हृदयतल ।।
खोज रही हूँ राह, तृषा का लगता जमघट।
भरिये घट में ज्ञान,सिक्त कर दें यह पनघट।।
2)

नैतिक
कच्ची मिट्टी के घड़े,सोच समझ कर ढाल।
उत्तम बचपन जो गढ़ो ,उन्नत होगा काल।
उन्नत होगा काल,रहे मन में नैतिकता।
भूले क्यों आधार,सत्य की बहती सरिता।
पढिये नैतिक पाठ,सुरक्षित कोमल बच्ची।
रखना होगा धैर्य ,अभी माटी है कच्ची ।

स्वरचित
अनिता सुधीर

रविवारीय आयोजन
मनपसंद विषय लेखन

5 / 1 / 2020
विधा : कविता

कैसे रचूं मैं रचना !
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कैसे रचूं मैं रचना !

भावों में गति नहीं,
अभिव्यक्ति में शक्ति नहीं,
लेखनी में रति नहीं,
करूं पूर्ण कैसे सपना ?

कैसे रचूं मैं रचना !

चाहत में तो क्षति नहीं,
प्रयास में भी नेति नहीं,
राहत में क्यों अति नहीं,
और कितना होगा तपना?

कैसे रचूं मैं रचना !

कला,स्वीकार मेरी अर्चना
मुझे दे वरदान धर्मणा
मेरा सब कुछ तेरे अर्पणा
श्रद्धा से करूं मैं वंदना ।

कैसे रचूं मैं रचना !

-रीता ग्रोवर
--स्वरचित
नमन भावों के मोती
🌹नज़्म 🌹
सुवह सोचता हूँ
शाम सोचता हूँ।।
जाने क्यों मैं तेरा
नाम सोचता हूँ।।

नाम बड़ा प्यारा तेरा
इसको जाम सोचता हूँ।।
मुझको खुशियाँ देगा ये
रब का पयाम सोचता हूँ।।

ज्यों डाक्टर की दवा हो
वैसे काम सोचता हूँ।।
रानी सपनों की तुझको
मैं वरदान सोचता हूँ।।

तुझे मिलाकर मुझे रब का
कोई अरमान सोचता हूँ।।
तिरा हिज्र मेरा नसीब
इसको मैं शान सोचता हूँ।।

'शिवम' सलामत रहे सदा तूँ
खुद की मैं जान सोचता हूँ।।
मिरी खुदाई लग जा तुझे
इतना अरमान सोचता हूँ।।

हरि शंकर चौरसिया 'शिवम'
स्वरचित 05/01/2020
विषय-मन पसंद विषय लेखप
विधा-कविता

दिनांक-5/1/2020
रविवार

हैं माफी के हकदार वही, जब हो गलती अनजाने में।
उसकी माफी कभी न होती,की जाती जब वो जाने में।।

अपराध यदि जघन्य होंअवश्य सजा अपराधी हो।
हर्गिज माफी उसे न हो,त्वरित सजा उसे सख्त हो ।।

जो होते बलवान उदार,करूणा कर क्षमा करते ।
दंतहीन,विषहीन सर्प ,क्षमा किसी को क्या करते ।।

क्षमा भूषण है वीरों का,दया,क्षमा वे ही करते।
निर्बल के कुछ वश नहीं,वे कुछ भी नहीं कर सकते ।।

स्वरचित एवं स्वप्रमाणित
डाॅ एन एल शर्मा जयपुर 'निर्भय ,

आज का कार्य मनपसंद
तिथि -5/1/2020/रविवार

विषय-* हास्य व्यंग्य*
विधा॒॒॒ -छंदमुक्त

एकदिन
हम अकेले भोजनालय
भोजन करने गये
बाहर से
भोजनालय का निरीक्षण किया और
अंदर धंस गये।
भोजनालय में
वहां के कर्मचारी ने
हमें घूरकर देखा
जैसे कोई
अजूबा आ गया है
पूछा कैसे आऐ
हम बाहर निकले
फिर पुनः भीतर घुसकर
उसे बताया
देखो भाई ऐसे आऐ।
वह बोला
हमारा मतलब ये नहीं था
आपसे पूछ रहे
क्या चाहते आपकी क्या सेवा करें
हमने कहा आप जो भी
सेवा कर सकते हैं करें
अरे श्रीमान हम आपसे
जान रहे
आप चाय पिऐंगे
स्वल्पाहार लेंगे या भोजन करेंगे
जो चाहें आपकी इच्छा पूरी करेगे।
तब ठीक है भाई
हम भी आपको
अधिक परेशान नहीं करेंगे।
आप बताइये
भोजन कैसे मिलेगा
उसने कहा बिल्कुल ताजा और
गरमागरम मिलेगा।
अरे भाई गरम तो दिख रहा है
जो हमारे सामने बन रहा है
आप तो बस इतना ही बताइये
कि भोजन करने का
क्या हिसाब है।
भोजनालय बाला बोला
हमारे यहां तो जैसे सबही
खुली खुली किताब है।
वैसे थाली में भी मिलता है
और यदि कम ही खाना है तो
एक रुपये की चार रोटी
और दाल फ्री
हम बहुत खुश हुऐ
पूछा फिर से बताओ
उसने कहा भैया सुना नहीं क्या
एक रुपये की चार रोटी और दाल फ्री
कहा तुम नाराज नहीं हो
ठीक है
अब सिर्फ दाल ही दाल आने दो
हम इससे ही काम चला लेंगे
पेट भरकर हमें घर जाने दो।

स्वरचितःः
इंजी शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना मध्य प्रदेश
जय श्रीराम रामजी

*हास्य -व्यंग्य*छंदमुक्त
5/1/2020/रविवार

दिनांक -5/1/020
" संयुक्त परिवार "


वटवृक्ष सा शीतल छाँव
हर शाखा का मिलता जिसमें प्यार
ऐसी है हमारी संस्कृति
जहाँ बसते संयुक्त परिवार।

एकता का प्रतीक यह
खुशियों का संसार
वैर नहीं जहाँ किसी को किसी से
एक - दूजे को सींचता
बढ़ता यह परिवार।

प्रेम के सूत में पिरोते
रिश्तों के अनमोल मोती
जो चमकते हैं एक समान
संस्कारीत होते नव पौध यहाँ
करते बुजुर्गों का आदर सम्मान।

पर अब यह परिवार
कुछ सिकुड़ने लगा है
आधुनिक परिवेश में
ढ़हने लगा है।

क्षीण होती मानवता
इसे जर्जर किया है
अपनों के लोभ, अहंग, अविश्वास
ने इसे विकलांग किया है।

उसीका दंश हम झेल रहे हैं
छोड़ माता -पिता को
कैसी गृहस्थी बसा रहे हैं?
जहाँ नहीं है कोई अपना
सिर्फ मतलबी रिश्ता निभा रहे हैं
फिर एक दिन.....
आकर अवसाद में
कोरे कागज पर संयुक्त परिवार बना रहे हैं.........

स्वरचित : - मुन्नी कामत।

५/१/२०
विषय-मन पसंद

विधा-कुण्डलियाँ छंद

कुसुम की कुण्डलियाँ-४

13 जीवन
जीवन जल की बूंद है,क्षण में जाए छूट,
यहां सिर्फ काया रहे , प्राण तार की टूट ,
प्राण तार की टूट, धरा सब कुछ रह जाता
जाए खाली हाथ ,बँधी मुठ्ठी तू आता ,
कहे कुसुम ये बात , सदा कब रहता सावन ,
सफल बने हर काल, बने उत्साही जीवन ।।

14 उपवन
महका उपवन आज है, निर्मेघ नभ अतुल्य
द्रुम पर पसरी चाँदनी ,दिखती चाँदी तुल्य
दिखती चाँदी तुल्य ,हिया में प्रीत जगाती,
भूली बिसरी याद, चाह के दीप जलाती
पहने तारक वस्त्र , निशा का आँगन चमका ,
आये साजन द्वार , आज सुरभित मन महका ।।

15 कविता
रूठी रूठी शल्यकी ,गीत लिखे अब कौन ,
कैसे मैं कविता रचूं , भाव हुए हैं मौन ,
भाव हुए हैं मौन , नही अवली में मोती
नंदन वन की गंध , उड़ी उजड़ी सी रोती ,
कहे कुसुम ये बात ,बिना रस लगती झूठी ,
सुनो सहचरी मूक , नहीं रहना तुम रूठी ।।

16 ममता
ममता माया छोड़ दी, छोड़ दिया संसार ,
राग अक्ष से बँध गया, नहीं मोक्ष आसार,
नही मोक्ष आसार , रही अन्तर बस आशा ,
अपना आगत भूल , फिरे शफरी सा प्यासा ,
कहे कुसुम ये बात हृदय में पालो समता
रहो सदा निर्लिप्त ,रखो निर्धन से ममता।।

स्वरचित

कुसुम कोठारी।।
भावों के मोती
विषय-- स्वतंत्र लेखन

___________________
राग-द्वेष में क्या रखा है
नवयुग का निर्माण हो
जनमानस के जीवन में
सुखद भरा विहान हो
महक उठे वन-उपवन
महक उठा यह संसार
अम्बर से धरती तक
खुशियों की दस्तक देने
आया नव विहान
सुर्य की बिखरी लाली
जीवन में बन खुशहाली
रश्मियों का आँचल डोले
कानों में हौले से बोले
कब-तक यूँ चुप बैठोगे
नवगीत निर्माण हो
जनमानस के जीवन में
खुशियों भरा विहान हो
चहकते यह पंछी सारे
नवमंडल में पंख पसारे
तरुवर बोले झूम-झूमकर
उठो अपनी आँखें खोलो
कब-तक द्वेष की अग्नि में
अपने ही घर को फूकोगे
राग-द्वेष में क्या रखा है
नवयुग का हो निर्माण
जनमानस के जीवन में
खुशियों भरा विहान हो
***अनुराधा चौहान***स्वरचित
दिनांक-5/1/2020
विषय-मनपसंद

शीर्षक-कौमी एकता

हलचल के इस नए दौर में
कैसे कैसे कहर हो रहे
बाहर के खतरों से जूझें
अन्तस् कैसे सबर करे?

अगर सभी स्वहित की सोचें
तो संग कैसे चल पाएंगे
एकता को खतरा होगा
तो कैसे हम बच पाएंगे

याद करो तुम उन दिनों को
जब हिंसा का नाम नहीं था,
छुआछूत नहीं जानते थे
जाति-पाति का भान नहीं था

अपने देश की अखंडता में
ये किसने सेंध लगाई है
कौमी एकता के नाम पर
ये कैसी छिड़ी लड़ाई है

घिर आए संकट के बादल
सिरफिरों ने हैरान किया
कौम,जाति और धर्म के नाम
अराजकता का तंबू तान दिया

देश हमारा अपना ही है,
हम ही इसे संभालेगे
हम अपने संविधान को
सूक्ष्म दृष्टि से खंगालेंगे

आज एकता की चाहत ने
फिर हमको ललकारा है,
बुराई को पनपने न देंगे
ये ज्वलंत हमारा नारा है।।

**वंदना सोलंकी**©स्वरचित
दिन :- रविवार
दिनांक :- 05/01/2020

विषय :- स्वतंत्र लेखन

स्वप्न सहेली,
ये रात अलबेली।
सँग तारों के,
करती अठखेली।
शबनम जैसे,
मोती बरसाती।
भोर होते जो,
लगते पहेली।
स्याह कभी,
कभी चाँदनी।
खिले गगन ताल,
बनकर कुमुदिनी।
नवयौवना सी,
नटखट चंचल।
मृगनयनी सी,
सहज सुंदर।
हरती क्लांत हर तन के,
करती शांत ज्वार मन के।
ये रात अलबेली,
स्वप्न सहेली।

स्वरचित :- राठौड़ मुकेश




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